इस्माइल हानिये और एर्दोआन |
देस-परदेस
दो लेखों की श्रृंखला का दूसरा भाग। इसका पहला भाग यहाँ पढ़ें
पिछले छह महीने से गज़ा में चल रही लड़ाई में
हमास के संगठन और सैनिक-तंत्र को भारी क्षति पहुँची है. वह उसकी भरपाई कर पाएगा या
नहीं, यह तो वक्त बताएगा, पर यह देखना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि फलस्तीनी एकता को
लेकर हमास की राय क्या है. हमास और फतह गुट की प्रतिद्वंद्विता से एक मायने में
इसराइल को राहत मिली है, क्योंकि अब उसपर फतह का दबाव कम है.
हमास की स्थापना हालांकि 1987 में हो गई थी, पर उसे लोकप्रियता तब मिली, जब फतह ग्रुप के
अधीन फलस्तीन अथॉरिटी अलोकप्रिय होने लगी. उसकी अलोकप्रियता के तमाम कारण थे. उसे
इसराइल के प्रति नरम माना गया. प्राधिकरण, भ्रष्टाचार का शिकार भी था. 2004 में
यासर अरफात के निधन के बाद फतह गुट के पास करिश्माई नेतृत्व भी नहीं बचा.
एक जमाने तक अरफात का
गुट ही फलस्तीनियों का सर्वमान्य समूह था. उसने ही इसराइलियों के साथ समझौता किया
था. पर प्रकारांतर से आक्रामक हमास गुट बड़ी तेजी से उभर कर आया, जिसने फतह पर इसराइल से साठगाँठ का आरोप लगाया.
दोनों का फर्क
दोनों में अंतर क्या है? यह अंतर वैचारिक है और रणनीतिक भी. फतह एक तरह से पुरानी
लीक के सोवियत साम्यवादी संगठन जैसा है और हमास का जन्म मुस्लिम-ब्रदरहुड से हुआ
है. फतह ने इसराइल को स्वीकार कर लिया है और इसराइल ने उसे. दूसरी तरफ हमास और
इसराइल के बीच कोई रिश्ता नहीं है. दोनों एक-दूसरे को स्वीकार नहीं करते.
अभी तक हमास और इसराइल के बीच आमतौर पर मध्यस्थ की भूमिका क़तर ने निभाई है, पर अब क़तर कह रहा है कि हम अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करेंगे. लगता यह भी है कि तुर्की की इच्छा इस भूमिका को निभाने में है. पर क्या वह फलस्तीनी गुटों के बीच भी मध्यस्थ की भूमिका भी निभा पाएगा?