Tuesday, April 26, 2022

एलन मस्क ने क्यों किया ट्विटर पर कब्जा?

यह आलेख जब नवजीवन में प्रकाशित हुआ तब उसका शीर्षक था एलन मस्क ने क्यों की ट्विटर पर कब्जे की कोशिश?पर अब इसका शीर्षक बदल चुका है। औपचारिकताएं होती रहेंगी, पर ट्विटर अब उनका कब्जा हो चुका है या हो जाएगा। सवाल है कि वे अब क्या करेंगे? गत 13 अप्रेल को जब टेस्ला और स्पेस एक्स के बॉस एलन मस्क ने ट्विटर पर कब्जा करने के इरादे से 54.20 डॉलर की दर से शेयर खरीदने की पेशकश की, तो सोशल मीडिया में सनसनी फैल गई। दुनिया का सबसे अमीर आदमी सोशल मीडिया के एक प्लेटफॉर्म की इतनी बड़ी कीमत क्यों देना चाहता है? टेकओवर वह भी जबरन, जिसे रोकने के लिए ट्विटर के प्रबंधन को ‘पॉइज़न पिल’ का इस्तेमाल करना पड़ा। इससे एलन मस्क की कोशिशों को झटका तो लगा है, पर यह खेल फिलहाल खत्म नहीं हुआ है। देखना होगा कि मस्क के इरादे कितने गहरे हैं।

'पॉइज़न पिल' किसी कंपनी को जबरन अधिग्रहण से बचाने का एक तरीक़ा है। एक छोटी अवधि के लिए कम्पनी कुछ दूसरे लोगों को काफी कम कीमत पर शेयर खरीदने की अनुमति दे देती है, ताकि अधिग्रहण की कोशिश करने वाले के शेयरों की कीमत कम पड़ने लगे। यह एक वैध योजना है जो किसी को कम्पनी में 15 प्रतिशत से ज्यादा के शेयर खरीदने से रोकती है। यह योजना एक साल की है। मस्क के पास जितने शेयर हैं वे ट्विटर के संस्थापक जैक डोर्सी के शेयरों से चार गुना ज़्यादा है। डोर्सी ने पिछले साल नवंबर में ट्विटर का सीईओ पद छोड़ दिया था जिसके बाद ये ज़िम्मेदारी अब पराग अग्रवाल संभाल रहे हैं।

फ्री-स्पीच की सदिच्छा

एलन मस्क ट्विटर पर अधिकार क्यों चाहते हैं? उन्होंने अमेरिका की मुख्य वित्तीय नियामक संस्था सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज कमीशन को दी गई अर्जी में कहा है कि ट्विटर में ‘फ्री-स्पीच का प्लेटफॉर्म बनने की प्रचुर सम्भावनाएं हैं।’ यह ‘एक सामाजिक-पहल है।’ मैं इस सम्भावना के द्वार खोलना चाहता हूँ। उन्होंने बाद में कहा, मैं यह काम निजी लाभ के लिए नहीं, सार्वजनिक-हित में करना चाहता हूँ।   

Sunday, April 24, 2022

‘ग्रासरूट-लोकतंत्र’ के ध्वजवाहक पंचायती-राज की ताकत को पहचानिए


आज 13वाँ राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जम्मू-कश्मीर जा रहे हैं, जहाँ वे कई परियोजनाओं का उद्घाटन करेंगे। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद से लोकतांत्रिक-दृष्टि से पहला बड़ा फैसला था, राज्य में पंचायत-राज की स्थापना। इसके पहले वहाँ तीन-स्तरीय पंचायती-राज व्यवस्था लागू नहीं थी। अक्तूबर 2020 में यहाँ पंचायती-व्यवस्था लागू की गई और दिसम्बर तक चुनाव भी हो गए। जम्मू-कश्मीर में इस व्यवस्था में एक जिला विकास परिषद (डीडीसी) के नाम से लोकतांत्रिक-व्यवस्था की एक नई परत जोड़ी गई है। हालांकि राज्य में विधानसभा चुनाव अभी तक नहीं हुए हैं, पर उम्मीद है कि परिसीमन का काम पूरा होने के बाद वहाँ जन-प्रतिनिधि प्रशासन की स्थापना भी हो जाएगी। पंचायत चुनावों के कारण वहाँ जन-प्रतिनिधियों की एक नई पीढ़ी तैयार हो गई है। देश के लोगों से जुड़ना है, तो पंचायती-राज के माध्यम से जुड़ना होगा।

क्रांतिकारी बदलाव

सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में क्रांतिकारी बदलावों की सम्भावनाएं पंचायती-राज के साथ जुड़ी हैं। आज 73वां संविधान संशोधन अधिनियम लागू होने का 30वां साल भी शुरू हो रहा है। यह अधिनियम 1992 में पास हुआ था और 24 अप्रैल,1993 को लागू हुआ था। इस दिन को ‘राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत 2010 से हुई थी। जनवरी 2019 तक की जानकारी के अनुसार देश में 630 जिला पंचायतें, 6614 ब्लॉक पंचायतें और 2,53,163 ग्राम पंचायतें हैं। इनमें 30 लाख से अधिक पंचायत प्रतिनिधि हैं। सबसे निचले स्तर पर पंचायत-व्यवस्था में लगभग प्रत्यक्ष-लोकतंत्र है। यानी कि अपनी समस्याओं के समाधान में जनता की सीधी भागीदारी। यह व्यवस्था जितनी पुष्ट होती जाएगी, उतना ही ताकतवर हमारा लोकतंत्र बनेगा।

आत्मनिर्भर गाँव

महात्मा गांधी की परिकल्पना थी कि गाँव आत्मनिर्भर इकाई के रूप में विकसित हों, जो देश की परम्परागत-पंचायत व्यवस्था थी। पंचायतों की आवाज देश के नागरिकों की पहली आवाज है। अंग्रेजी शासनकाल में लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन सम्बंधी प्रस्ताव दिया।1884 में मद्रास लोकल बोर्ड्स एक्ट पास किया गया। 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रान्तों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषयों की सूची में रखा गया। कस्बों और शहरों में जन-प्रतिनिधित्व की शुरुआत हुई। 1920 में ग्राम पंचायत कानून बने।

स्वतंत्र भारत

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पंचायती-राज की परिकल्पना की गई, पर बरसों तक स्थानीय-निकाय चुनाव के बगैर केवल सरकारी अफसरों की देखरेख में चलते रहते थे। स्वतंत्रता के बाद 1957 में योजना आयोग ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम (वर्ष 1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम (वर्ष 1953) के अध्ययन के लिए ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया। नवंबर 1957 में समिति ने अपनी रिपोर्ट में तीन-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू करने का सुझाव दिया। 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार की और 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहली तीन-स्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया। हालांकि स्वतंत्रता के बाद सबसे पहले पंचायती-राज लागू करने वाला राज्य बिहार था, जिसने 1947 में इसे लागू कर दिया था। पर तीन-स्तरीय व्यवस्था राजस्थान से शुरू हुई।

Monday, April 18, 2022

दक्षिण एशिया में उम्मीदों की सरगर्मी


इस हफ्ते तीन ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे भारत की विदेश-नीति और भू-राजनीति पर असर पड़ेगा। सोमवार को भारत और अमेरिका के बीच चौथी 'टू प्लस टू' मंत्रिस्तरीय बैठक हुई, की, जिसमें यूक्रेन सहित वैश्विक-घटनाचक्र पर बातचीत हुई। पर सबसे गम्भीर चर्चा रूस के बरक्स भारत-अमेरिका रिश्तों, पर हुई। इसके अलावा पाकिस्तान में हुए राजनीतिक बदलाव और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी गतिविधियों के निहितार्थ को समझना होगा। धीरे-धीरे एक बात साफ होती जा रही है कि यूक्रेन के विवाद का जल्द समाधान होने वाला नहीं है। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश अब रूस को निर्णायक रूप से दूसरे दर्जे की ताकत बनाने पर उतारू हैं। भारत क्या रूस को अपना विश्वस्त मित्र मानकर चलता रहेगा? व्यावहारिक सच यह है कि वह अब चीन का जूनियर सहयोगी है।

स्वतंत्र विदेश-नीति

यूक्रेन के युद्ध ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े किए हैं, जिनमें ऊर्जा से जुड़ी सुरक्षा सबसे प्रमुख हैं। हम किधर खड़े हैं? रूस के साथ, या अमेरिका के? किसी के साथ नहीं, तब इस टकराव से आग से खुद को बचाएंगे कैसे? स्वतंत्र विदेश-नीति के लिए मजबूत अर्थव्यवस्था और सामरिक-शक्ति की जरूरत है। क्या हम पर्याप्त मजबूत हैं? गुरुवार 7 अप्रेल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहकर भारत ने अपनी तटस्थता का परिचय जरूर दिया, पर प्रकारांतर से यह वोट रूस-विरोधी है।

भारत समेत 58 देश संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। इनमें दक्षिण एशिया के सभी देश थे। म्यांमार ने अमेरिकी-प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि उसे चीन के करीब माना जाता है। रूस का निलंबन बता रहा है कि वैश्विक मंच पर रूस-चीन गठजोड़ की जमीन कमज़ोर है।

हिन्द महासागर में चीन

हिन्द महासागर में चीनी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। म्यांमार में सैनिक-शासकों से हमने नरमी बरती, पर फायदा चीन ने उठाया। इसकी एक वजह है कि सैनिक-शासकों के प्रति अमेरिकी रुख कड़ा है। बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर सैनिक साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन उसका मुख्य-सहयोगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम होने के बाद वहाँ भी चीन ने पैर पसारे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-गतिरोध के पीछे जितनी आंतरिक राजनीति की भूमिका है, उतनी ही अमेरिका के बरक्स रूस-चीन गठजोड़ के ताकतवर होने की है।

दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर टकराव के कारण भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के संगठन बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है। हाल में विदेशमंत्री एस जयशंकर बिम्स्टेक के कार्यक्रम के सिलसिले में श्रीलंका के दौरे पर भी गए, और मदद की पेशकश की। श्रीलंका के आर्थिक-संकट के पीछे कुछ भूमिका नीतियों की है और कुछ परिस्थितियों की। महामारी के कारण श्रीलंका का पर्यटन उद्योग बैठ गया है। उसे रास्ते पर लाने के लिए केवल भारत की सहायता से काम नहीं चलेगा। इसके लिए उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पास जाना होगा।

भारत को हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक-शक्ति को बढ़ाने की जरूरत है, वहीं अपने पड़ोस में चीनी-प्रभाव को रोकने की चुनौती है। पड़ोस में भारत-विरोधी भावनाएं एक अर्से से पनप रही हैं। पिछले कई महीनों से मालदीव में ‘इंडिया आउट’ अभियान चल रहा है, जिसपर हमारे देश के मीडिया का ध्यान नहीं है। बांग्लादेश में सरकार काफी हद तक भारत के साथ सम्बंध बनाकर रखती है, पर चीन के साथ उसके रिश्ते काफी आगे जा चुके हैं।

इतिहास का बोझ

अफगानिस्तान में सत्ता-परिवर्तन के बाद भारतीय-डिप्लोमेसी में फिर से कदम बढ़ाए हैं। वहाँ की स्थिति स्पष्ट होने में कुछ समय लगेगा। बहुत कुछ चीन-अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों पर भी निर्भर करेगा। इतना स्पष्ट है कि अंततः अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों में खलिश पैदा होगी, जिसका लाभ भारत को मिलेगा। ऐसा कब होगा, पता नहीं। भारत को नेपाल और भूटान के साथ अपने रिश्तों को बेहतर आधार देना होगा, क्योंकि इन दोनों देशों में चीन की घुसपैठ बढ़ रही है।

दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है। शक्तिशाली-भारत की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है। मालदीव और बांग्लादेश का एक तबका भारत को हिन्दू-देश के रूप में देखता है। पाकिस्तान की पूरी व्यवस्था ही ऐसा मानती है। इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं। श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी हिन्दू-व्यवस्था माना जाता है। हिन्दू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती हैं। वहाँ मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों और बांग्लादेश में हिन्दुओं को भारत-हितैषी माना जाता है। दूसरी तरफ चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है। पाकिस्तान और चीन ने भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है।

पाकिस्तान में बदलाव

पाकिस्तान में सत्ता-परिवर्तन हो गया है। नए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की बात कही है, साथ ही कश्मीर के मसले का उल्लेख भी किया है। नवाज शरीफ के दौर में भारत-पाकिस्तान बातचीत शुरू होने के आसार बने थे। जनवरी 2016 में दोनों देशों के विदेश-सचिवों की बातचीत के ठीक पहले पठानकोट कांड हो गया। उसके बाद से रिश्ते बिगड़ते ही गए हैं। यह भी पिछले कुछ समय से पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। फिलहाल हमें इंतजार करना होगा कि वहाँ की राजनीति किस रास्ते पर जाती है। अच्छी बात यह है कि पिछले साल नियंत्रण-रेखा पर गोलाबारी रोकने का समझौता अभी तक कारगर है।

दक्षिण एशिया का हित इस बात में है कि यहाँ के देशों को बीच आपसी-व्यापार और आर्थिक-गतिविधियाँ बढ़ें। भारत और पाकिस्तान का टकराव ऐसा होने से रोकता है। संकीर्ण धार्मिक-भावनाएं वास्तविक समस्याओं पर हावी हैं। पाकिस्तान के राजनीतिक-परिवर्तन से बड़ी उम्मीदें भले ही न बाँधें, पर इतनी उम्मीद जरूर रखनी चाहिए कि समझदारी की कुछ हवा बहे, ताकि ज़िन्दगी कुछ आसान और बेहतर बने। 

नवजीवन में प्रकाशित

Sunday, April 17, 2022

कैसे और कब खत्म होगा यूक्रेन-युद्ध?


यूक्रेन पर रूसी हमले के 50 से ज्यादा दिन हो चुके हैं और लड़ाई का फैसला होता नजर नहीं आ रहा है। इस लड़ाई की वजह से दुनियाभर में आर्थिक-संकट पैदा हो गया है। उधर रूस ने यूक्रेन के कई शहरों को तबाह कर दिया है। उसकी सेना कभी इधर गोले बरसा रही है, उधर मिसाइलें दाग रही है, कभी इस शहर पर कब्जा कर रही है और कभी उसपर, पर परिणाम क्या है? रूस ने क्या सोचकर हमला किया था? क्या उसे अपने लक्ष्यों को हासिल करने में सफलता मिली? वह कौन सा लक्ष्य है, जिसके पूरा होने पर लड़ाई रुकेगी? रूसी लक्ष्य पूरे नहीं हुए, तब क्या होगा? ऐसे बीसियों सवाल अब पूछे जा रहे हैं।

कब रुकेगी लड़ाई?

पर्यवेक्षक मानते हैं कि लड़ाई के थमने के दो ही रास्ते बचे हैं। या तो रूस इतना भयानक नर-संहार करे कि यूक्रेन उसकी हरेक शर्त मानने को तैयार हो जाए। या फिर रूस मान ले कि फिलहाल वह इससे ज्यादा कुछ और हासिल नहीं कर सकता। यों भी रूस के लिए अपनी माली हालत को संभालना मुश्किल होगा। उसने यूक्रेन को ही तबाह नहीं किया है, खुद भी तबाह हो गया है। उसके हाथ लगभग खाली हैं, यूक्रेन ने अभी तक हार नहीं मानी है, बल्कि ब्लैक सी में रूसी युद्धपोत मोस्कवा को डुबोकर रूसी खेमे में दहशत पैदा कर दी है।

रूसी पोत डूबा

लड़ाई से जुड़े ज्यादातर विवरण पश्चिमी सूत्रों से मिल रहे हैं। रूसी-विवरणों में भी अब सफलता की उम्मीदें कम और विफलता के विवरण ज्यादा मिल रहे हैं। युद्धपोत मोस्कवा के बारे में पहले रूसी सूत्रों ने बताया था कि उसके शस्त्रागार में विस्फोट हुआ है, पर बाद में स्वीकार कर लिया कि पोत डूब गया है। ब्लैक सी में रूसी नौसेना का यह फ्लैगशिप था। इसका डूबना भारी धक्का है। पश्चिमी देश मानकर चल रहे हैं कि रूस के साथ कुछ ले-देकर समझौता हो सकता है, पर मॉस्को का माहौल बता रहा है कि पुतिन ने इसे धर्मयुद्ध मान लिया है। यानी कि हमारी पूरी शर्तें माननी होंगी। इसलिए अब रूस की उस सामर्थ्य की परीक्षा है, जो इतने बड़े स्तर पर लड़ाई को संचालित करने से जुड़ी है। राष्ट्रपति पुतिन पुराने सोवियत संघ के दौर की वापसी चाहते हैं। ऐसा कैसे होगा?

हमलों में तेजी

युद्धपोत डूब जाने के बाद रूस ने हमले और तेज कर दिए हैं। रूस के मुताबिक़ उसके क्रूज़ मिसाइलों ने रात में कीव स्थित एक फ़ैक्टरी को निशाना बनाया, जहाँ पर एयर डिफ़ेंस सिस्टम्स और एंटी-शिप मिसाइलें बनाई जाती हैं। रूस ने यूक्रेन पर यह आरोप भी लगाया कि वे सीमा पार रूस के कई शहरों को निशाना बनाने के लिए हेलिकॉप्टर भेज रहा है। रूस का आरोप है कि रूसी जमीन पर यूक्रेन ने हमले किए हैं। इनमें बेल्गोरोद के तेल डिपो पर हुआ हमला भी शामिल है। यूक्रेन ने इस बात की न तो पुष्टि की है और न खंडन किया है।

नागरिक-प्रतिरोध

जिन इलाकों पर रूस ने कब्जा कर भी लिया है, उनके भीतर मौजूद यूक्रेनी नागरिक पश्चिमी देशों से प्राप्त हथियारों की मदद से प्रतिरोध कर रहे हैं। उन्होंने कई शहरों से रूस को पीछे हटने को मजबूर कर दिया है। राजधानी कीव पर फरवरी में ही कब्जे की उम्मीदें व्यक्त की जा रही थी, जो अबतक पूरी नहीं हुई हैं। बल्कि रूस ने अब उत्तरी इलाकों पर कब्जा करने का विचार त्याग दिया है और पूर्वी तथा उससे जुड़े दक्षिणी इलाकों पर उसकी नजर है।

विशेषज्ञों का मानना है कि रूस पूरे समुद्री तट पर कब्जा करके भी उसे अपने नियंत्रण में नहीं रख पाएगा। आज किसी गाँव पर रूसी झंडा लगता है, तो अगले दिन वहाँ फिर से यूक्रेनी झंडा लग जाता है।

छापामार लड़ाई

हजारों की मौत हो जाने के बावजूद यूक्रेनी नागरिकों का मनोबल ऊँचा है। छापामार युद्ध के लिए लगातार भोजन, हथियारों और उससे जुड़ी कुमुक की जरूरत होती है। साथ ही विपरीत मौसम से लड़ने की क्षमता भी। इन सभी मामलों में यूक्रेनी नागरिक बेहतर स्थिति में हैं, जबकि रूसी सेना के सामने परिस्थितियाँ विपरीत हैं। ऐसे में रूसी लक्ष्य अब क्रमशः सीमित होते जा रहे हैं। शायद उसने मान लिया है कि निर्णायक लड़ाई सम्भव नहीं है, इसलिए समुद्र से लगे इलाकों पर कब्जा करके लड़ाई को खत्म किया जाए, ताकि भविष्य में इस इलाके पर पकड़ बनी रहे। इसीलिए लग रहा है कि फिलहाल बंदरगाह के शहर मारियुपोल पर कब्जा करने का लक्ष्य लेकर रूसी सेना लड़ रही है। यहां भी रूस को कड़ी टक्कर मिल रही है। मारियुपोल पर रूसी कब्जा हो जाएगा, तो क्राइमिया प्रायद्वीप तक जमीनी गलियारा बन जाएगा। क्राइमिया पर रूसी कब्जा 2014 में हो चुका है।

Saturday, April 16, 2022

पाकिस्तानी राजनीति का भिंडी-बाजार

पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ 29वें और व्यक्तिगत रूप से 23वें प्रधानमंत्री हैं। कुछ प्रधानमंत्री एक से ज्यादा दौर में भी पद पर रहे हैं। मसलन उनके बड़े भाई नवाज़ शरीफ को अपने पद से तीन बार हटाया गया था। पहली बार 1993 में राष्ट्रपति गुलाम इसहाक खान ने उन्हें बर्खास्त किया, दूसरी बार 1999 में फौजी बगावत के बाद जनरल मुशर्रफ ने पद से हटाया और तीसरी बार 2017 में वहाँ के सुप्रीम कोर्ट ने। 2013 के पहले तक एकबार भी ऐसा नहीं हुआ, जब लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई किसी सरकार ने दूसरी चुनी हुई सरकार को सत्ता का हस्तांतरण किया हो।

पाकिस्तान का लोकतांत्रिक-इतिहास उठा-पटक से भरा पड़ा है। लोकतंत्र में उठा-पटक होना अजब-गजब बात नहीं। पर पाकिस्तानी लोकतंत्र भिंडी-बाजार जैसा अराजक है। देश को अपना पहला संविधान बनाने और उसे लागू करने में नौ साल लगे थे। पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खां की हत्या हुई। उनके बाद आए सर ख्वाजा नजीमुद्दीन बर्खास्त हुए। फिर आए मोहम्मद अली बोगड़ा। वे भी बर्खास्त हुए। 1957-58 तक आने-जाने की लाइन लगी रही। वास्तव में पाकिस्तान में पहले लोकतांत्रिक चुनाव सन 1970 में हुए, पर उन चुनावों से देश में लोकतांत्रिक सरकार बनने के बजाय देश का विभाजन हो गया और बांग्लादेश नाम से एक नया देश बन गया।

बर्खास्तगीनामा

देश में प्रधानमंत्री का पद 1947 में ही बना दिया गया था, पर सर्वोच्च पद गवर्नर जनरल का था, जो ब्रिटिश-उपनिवेश की परम्परा में था। देश के दूसरे प्रधानमंत्री को गवर्नर जनरल ने बर्खास्त किया था। 1951 से 1957 तक देश के छह प्रधानमंत्रियों को बर्खास्त किया गया। छठे प्रधानमंत्री इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर केवल 55 दिन प्रधानमंत्री पद पर रहे। आठवें प्रधानमंत्री नूरुल अमीन 7 दिसंबर, 1971 से 20 दिसंबर, 1971 तक केवल दो हफ्ते तक अपने पद पर रहे। वे देश के चौथे और अंतिम बंगाली प्रधानमंत्री थे। बांग्लादेश बन जाने के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा।

जब 1956 में पहला संविधान लागू हुआ, तब गवर्नर जनरल के पद को राष्ट्रपति का नाम दे दिया गया। 1958 में राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने देश के सातवें प्रधानमंत्री को बर्खास्त किया और मार्शल लॉ लागू कर दिया। ऐसी मिसालें भी कहीं नहीं मिलेंगी, जब लोकतांत्रिक-सरकार ने अपने ऊपर सेना का शासन लागू कर लिया। विडंबना देखिए कि इस्कंदर मिर्जा ने जिन जनरल अयूब खां को चीफ मार्शल लॉ प्रशासक बनाया उन्होंने 20 दिन बाद 27 अक्तूबर को सरकार का तख्ता पलट कर मिर्ज़ा साहब को बाहर किया और खुद राष्ट्रपति बन बैठे।

सन 1962 में संविधान का एक नया संस्करण लागू हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री के पद को खत्म करके सारी सत्ता राष्ट्रपति के नाम कर दी गई। 1970 में प्रधानमंत्री की पुनर्स्थापना हुई और नूरुल अमीन प्रधानमंत्री बने, केवल दो हफ्ते के लिए। बांग्लादेश के रूप में एक नया देश बन जाने के बाद 1973 में फिर से संविधान का एक नया सेट तैयार हुआ, जो आजतक चल रहा है।

Wednesday, April 13, 2022

महाराष्ट्र के सत्तारूढ़ गठबंधन में दरार


पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को मिली विफलता के परिणाम देखने को मिलने लगे हैं। पराजय का असर है कि कुछ राज्यों से सम्भावित-भगदड़ के संकेत हैं। महाराष्ट्र और झारखंड में सुगबुगाहट है। खासतौर से महाराष्ट्र से किसी भी समय बड़े राजनीतिक-परिवर्तन की खबर आ जाए, तो हैरत नहीं होगी। कहीं न कहीं कुछ पक रहा है। एक तरफ शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस पार्टी के महा विकास अघाड़ी के बीच दरार बढ़ी है, वहीं तीनों पार्टियों के भीतर से खटपट सुनाई पड़ने लगी है।

हाई कमान से मुलाकात

सबसे बड़ा असमंजस कांग्रेस के भीतर है। पार्टी के विधायकों का एक दल अप्रैल के पहले हफ्ते में हाईकमान से मिलने दिल्ली आया। सूचना थी कि विधायकों की 3 या 4 अप्रैल को हाईकमान से मुलाकात होगी। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक विधायकों की मुलाकात पार्टी के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और महासचिव केसी वेणुगोपाल से हुई भी है। ये विधायक सोनिया गांधी या राहुल गांधी से मिलने के इच्छुक बताए जाते हैं। उस मुलाकात की जानकारी नहीं है। यह मुलाकात होगी या नहीं, यह भी स्पष्ट नहीं है।

दिल्ली आए विधायकों ने एक टीवी चैनल से बात करते हुए कहा 'सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद ही सनसनीखेज खुलासे होंगे।' उधर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व तमाम संगठनात्मक गतिविधियों से घिरा है। संसद के बजट सत्र का समापन होने वाला है। कुछ और राज्यों से असंतोष की खबरें हैं। शीर्ष नेतृत्व ने जी-23 के नेताओं से भी संवाद शुरू किया है। दूसरी तरफ लगता है कि सुनवाई नहीं हुई, तो महाराष्ट्र का असंतोष मुखर होता जाएगा।

पराजय से निराशा

गत 10 मार्च को विधान सभा चुनाव परिणाम आने के कुछ दिन बाद शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य मजीद मेमन ने एक ट्वीट में लिखा कि पीएम मोदी में कुछ गुण होंगे या उन्होंने कुछ अच्छे काम किए होंगे, जिसे विपक्षी नेता ढूंढ नहीं पा रहे हैं। उनकी यह टिप्पणी ऐसे समय में आई थी, जब नवाब मलिक की गिरफ्तारी को लेकर उनकी पार्टी और केंद्र सरकार के बीच तलवारें तनी हुईं थीं। मजीद मेमन वाली बात तो आई-गई हो गई, पर अघाड़ी सरकार के भीतर की कसमसाहट छिप नहीं पाई।

Tuesday, April 12, 2022

अपने प्रधानमंत्रियों को ठोकर मारकर क्यों हटाता है पाकिस्तान?

पाकिस्तान के फ्राइडे टाइम्स से साभार

इमरान खान क्या चाहते थे और उन्हें क्यों हटना पड़ा, इन बातों पर काफी लम्बे समय तक रोशनी पड़ती रहेगी. पर अब समय आ गया है, जब इस बात पर रोशनी पड़ेगी कि नवाज शरीफ को सजा क्यों मिली थी. जुलाई, 2019 में ऐसा एक ऑडियो टेप सामने आया था, जिससे लगता था कि नवाज शरीफ को सजा देने वाले जज को मजबूर किया गया था कि जैसा कहा जा रहा है वैसा करो. हालांकि जज ने इस बात से इनकार किया था, पर वह बात खत्म नहीं हुई है. अब कहानी जिस तरफ जा रही है, उससे लगता है कि नवाज शरीफ की देश-वापसी तो होगी ही, उनके मुकदमों को भी खोला जाएगा.

अब यह विचार करने का समय भी आ रहा है कि पाकिस्तान में कोई प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा क्यों नहीं कर पाता? क्या वजह है कि वहाँ आजतक एक प्रधानमंत्री नहीं हुआ, जिसने अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया हो. कार्यकाल पूरा करना तो अलग रहा, ज्यादातर प्रधानमंत्री या तो हटाए गए या किसी वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. राजनेताओं के भाषणों पर यकीन करें, तो पहली नजर में लगेगा है कि वहाँ की व्यवस्था भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े फैसले करती है, पर व्यावहारिक स्थिति यह है कि वहाँ जिसकी लाठी, उसकी भैंस का सिद्धांत चलता है.

इम्पोर्टेड-सरकार

पाकिस्तानी समाज ने शुरू से ही लोकतंत्र को गलत छोर से पकड़ा. यों भी माना जाता है कि यह अंग्रेजी-राज की व्यवस्था है, हम इसे लोकतंत्र मानते ही नहीं. लोकतंत्र वहाँ की पसंदीदा व्यवस्था नहीं है और अराजकता वहाँ का स्वभाव है. इस समय भी देखें, तो वहाँ बड़ी संख्या में लोग संसद के बहुमत और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को महत्वपूर्ण मान ही नहीं रहे हैं. उन्हें लगता है कि सब बिक चुके हैं और इमरान खान को हटाने के पीछे अमेरिका का हाथ है. नई सरकार को इम्पोर्टेड-सरकार का दर्जा दिया गया है.

इमरान खान को शामिल करते हुए पाकिस्तान में 28 प्रधानमंत्री हुए हैं. इनमें से कुछ को एक से ज्यादा बार मौके भी मिले हैं. इमरान सवा साल और अपना कार्यकाल पूरा कर लेते तो ऐसा कर पाने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री होते. पिछले 75 साल से पाकिस्तान को एक ऐसी लोकतांत्रिक सरकार का इंतजार है, जो पाँच साल चले. 75 साल में बमुश्किल 23 साल चले जम्हूरी निज़ाम में वहाँ 28 वज़ीरे आज़म हुए हैं. अब जो नए बनेंगे, वे 29वें होंगे.  

हत्या से शुरुआत

पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खां की हत्या हुई. उनके बाद आए सर ख्वाजा नजीमुद्दीन बर्खास्त हुए. फिर आए मोहम्मद अली बोगड़ा. वे भी बर्खास्त हुए. 1957-58 तक आने-जाने की लाइन लगी रही. वास्तव में पाकिस्तान में पहले लोकतांत्रिक चुनाव सन 1970 में हुए. पर उन चुनावों से देश में लोकतांत्रिक सरकार बनने के बजाय देश का विभाजन हो गया और बांग्लादेश नाम से एक नया देश बन गया.

सन 1973 में ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के प्रधानमंत्री बनने के बाद उम्मीद थी कि शायद अब देश का लोकतंत्र ढर्रे पर आएगा. ऐसा नहीं हुआ. सन 1977 में जनरल जिया-उल-हक ने न केवल सत्ता पर कब्जा किया, बल्कि ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी पर भी चढ़वाया. आज पाकिस्तान में जो कट्टरपंथी हवाएं चल रहीं हैं, उनका श्रेय जिया-उल-हक को जाता है. देश को धीरे-धीरे धार्मिक कट्टरपंथ की ओर ले जाने में उस दौर का सबसे बड़ा योगदान है.

Monday, April 11, 2022

पाकिस्तान के ‘हाइब्रिड-प्रशासन’ का रूपांतरण


पाकिस्तान फिलहाल इस गतिरोध से बाहर निकल आया। इमरान सरकार गई और नई सरकार आ गई, पर इस संकट के कुछ सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम लम्बे अरसे तक याद रखे जाएंगे। देश में सेना के समर्थन से असैनिक सरकार चलाने की हाइब्रिड-व्यवस्था में बदलाव होगा। यह व्यवस्था इमरान खान की सरकार के साथ ही शुरू हुई थी। मोटे तौर पर सेना की भूमिका पूरी तरह खत्म भी नहीं होगी, पर लगता है कि यह भूमिका विदेश-नीति और राष्ट्रीय-सुरक्षा तक ही सीमित रहेगी। सन 2018 के चुनाव में इमरान खान की पार्टी तहरीके इंसाफ को सेना के समर्थन के बावजूद बहुमत नहीं मिला था। उन्हें छोटे दलों का समर्थन दिलाने में भी सेना की भूमिका थी।

मामूली बहुमत से सरकार चलती रही, पर इमरान खान का अहंकार बढ़ता चला गया। वे आंतरिक राजनीति के साथ ही विदेश-नीति में भी विफल हुए। इमरान को इतना तो समझ में आता ही था कि वे संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना नहीं कर सकेंगे, फिर भी उन्होंने हटना स्वीकार नहीं किया और जो तोड़ निकाला, वह बचकाना था। यह भी मानना होगा कि इमरान ने करीब साढ़े तीन साल की सत्ता में लोकप्रियता हासिल करने के अलावा सत्ता के गलियारों में घुसपैठ कर ली है। वे राजनीतिक ताकत बने रहेंगे।

बावजूद इसके संसद के उपाध्यक्ष की व्यवस्था को स्वीकार करने का मतलब है कि पाकिस्तान में सरकार बन जाने के बाद उसके विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव लाया ही नहीं जा सकेगा, क्योंकि अध्यक्ष या उपाध्यक्ष उसे देश-द्रोह करार देंगे। संकट जितना भी गहरा रहा हो और राजनीतिक गतिविधियाँ जितनी भी हास्यास्पद रही हों, सुप्रीम कोर्ट ने समय पर हस्तक्षेप करके संविधान की मंशा को स्पष्ट किया है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में यह परिघटना मील का पत्थर साबित होगी।

ट्रंप से उधार लिया कार्ड

दूसरी बात जो याद रखी जाएगी, वह है इमरान खान का तुरुप का पत्ता जिसे कुछ पर्यवेक्षकों ने ट्रंप-कार्ड कहा है। सत्ता से चिपके रहने, हार को अस्वीकार करने और भीड़ को उकसाने और भड़काने की अराजक-प्रवृत्ति। उन्होंने संसद में अविश्वास-प्रस्ताव को जिस तरीके से खारिज कराया, उससे हैरत होती है। उसे मास्टर-स्ट्रोक की संज्ञा दी गई। अपनी ही सरकार का कार्यकाल खत्म होने का जश्न मनाया गया। दूसरी तरफ एक झटके में 197 सांसदों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया। इनमें वे सहयोगी दल भी शामिल थे, जो कुछ दिन पहले तक सरकार के साथ थे। उन्होंने इस बात पर भी विचार नहीं किया कि उनकी अपनी पार्टी के करीब दो दर्जन सदस्य उनसे नाराज क्यों हो गए। ये सब बिके हुए नहीं, असंतुष्ट लोग हैं। विरोधियों को गद्दार, देशद्रोही और दुश्मन साबित करने की राजनीति, दुधारी तलवार है। इससे दोनों तरफ की गर्दनें कटती हैं।

Sunday, April 10, 2022

इमरान का गुब्बारा फूटा, अहंकार नहीं टूटा


पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली में इमरान खान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सफल रहने के बाद सोमवार से पाकिस्तानी राजनीति का एक नया अध्याय शुरू होगा, जिसमें संभवतः शहबाज़ शरीफ देश के नए प्रधानमंत्री बनेंगे। सोमवार को असेंबली का एक विशेष सत्र होने वाला है जिसमें नए प्रधानमंत्री का चुनाव किया जाएगा, जो अगले चुनावों तक कार्यभार संभालेंगे। चुनाव समय से पहले नहीं  हुए, तो वे अक्तूबर 2023 तक प्रधानमंत्री बने रह सकते हैं। अगले एक साल और कुछ महीने का समय पाकिस्तान के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था और विदेश-नीति से जुड़े कुछ बड़े फैसले इस दौरान होंगे। खासतौर से अमेरिका-विरोधी झुकाव में कमी आएगी। उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से सहायता लेने और एफएटीएफ की ग्रे-लिस्ट से बाहर आने के लिए अमेरिकी मदद की जरूरत है।

पहले प्रधानमंत्री

शनिवार देर रात नेशनल असेंबली में उनकी सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान में 174 सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। मतदान से पहले नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। असद कैसर के बाद पीएमएल-एन नेता अयाज़ सादिक ने सत्र की अध्यक्षता की। पाकिस्तान के इतिहास में इमरान देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अविश्वास-प्रस्ताव के मार्फत हटाया गया है। इसके पहले 2006 में शौकत अजीज और 1989 में बेनजीर भुट्टो के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव लाए गए थे, पर उन्हें हटाया नहीं जा सका था।

पिछले दो  हफ्ते के घटनाक्रम में बार-बार इमरान खान के तुरुप क पत्त का जिक्र होता रहा, जिसे कुछ पर्यवेक्षकों ने ट्रंप-कार्ड कहा। सत्ता से चिपके रहने, हार को अस्वीकार करने और भीड़ को उकसाने और भड़काने की अराजक-प्रवृत्ति। उन्होंने संसद में अविश्वास-प्रस्ताव को जिस तरीके से खारिज कराया, उससे इस बात की पुष्टि हुई। उनके समर्थकों ने उसे मास्टर-स्ट्रोक बताया। अपनी ही सरकार का कार्यकाल खत्म होने का जश्न मनाया गया। साथ ही उन 197 सांसदों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया, जो उनके खिलाफ खड़े थे। इनमें वे सहयोगी दल भी शामिल थे, जो कुछ दिन पहले तक सरकार के साथ थे। उन्होंने इस बात पर भी विचार नहीं किया कि उनकी अपनी पार्टी के करीब दो दर्जन सदस्य उनसे नाराज क्यों हो गए। ये सब बिके हुए नहीं, असंतुष्ट लोग हैं।

Saturday, April 9, 2022

वैश्विक असमंजस के दौर में भारतीय विदेश-नीति

संरा महासभा में हुए मतदान का परिणाम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पिछले आठ साल में पहली बार कुछ जटिल सवालों का सामना कर रही है। वैश्विक-महामारी से देश बाहर निकलने का प्रयास कर रहा है। पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को वापस लाने की कोशिशें शुरू हुई हैं। ऐसे में यूक्रेन के युद्ध ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े कर दिए हैं। हम किसके साथ हैं
? ‘किसकेसे एक आशय है कि हम रूस के साथ हैं या अमेरिका के? किसी के पक्षधर नहीं हैं, तब हम चाहते क्या हैं? स्वतंत्र विदेश-नीति को चलाए रखने के लिए जिस ताकतवर अर्थव्यवस्था और फौजी ताकत की जरूरत है, अभी वह हमारे पास नहीं है। हमारा प्रतिस्पर्धी दबाव बढ़ा रहा है। हम क्या करें?


गुरुवार 7 अप्रेल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहकर भारत ने यों तो अपनी तटस्थता का परिचय दिया है, पर प्रकारांतर से यह वोट रूस-विरोधी है। चीन ने इस प्रस्ताव के विरोध में वोट देकर रूस का सीधा समर्थन किया। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) से रूस को निलंबित कर दिया गया। भारत समेत 58 देश संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। इनमें दक्षिण एशिया के सभी देश थे, पर ध्यान देन वाली बात यह है कि म्यांमार ने अमेरिकी-प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि उसे चीन के करीब माना जाता है। यूएनएचआरसी से रूस का निलंबन बता रहा है कि वैश्विक मंच पर रूस-चीन गठजोड़ की जमीन कमज़ोर है। निलंबन-प्रस्ताव के समर्थन में 93 वोट पड़े और 24 वोट विरोध में पड़े। अर्थात 92 देशों ने अमेरिका का साथ दिया और चीन सहित 23 देश रूस के साथ खड़े हुए।

हिंद महासागर में चीनी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। म्यांमार में सैनिक-शासकों से हमने नरमी बरती, पर फायदा चीन ने उठाया। इसकी एक वजह है कि सैनिक-शासकों के प्रति अमेरिकी रुख कड़ा है। बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर सैनिक साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन उसका मुख्य-सहयोगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम होने के बाद वहाँ भी चीन ने पैर पसारे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-गतिरोध के पीछे जितनी आंतरिक राजनीति की भूमिका है, उतनी ही अमेरिका के बरक्स रूस-चीन गठजोड़ के ताकतवर होने की है।

Sunday, April 3, 2022

पाकिस्तान में एक सितारे का बुझना


इमरान खान का खिलाड़ी-करिअर विजेता के रूप में खत्म हुआ था, पर लगता है कि राजनीति का करिअर पराजय के साथ खत्म होगा। उनका दावा है कि उन्हें हटाने के पीछे अमेरिका की साजिश है। यूक्रेन पर हमले के ठीक पहले उनकी मॉस्को-यात्रा से अमेरिका नाराज है। पर बात इतनी ही नहीं है। वे देश की समस्याओं का सामना नहीं कर पाए। साथ ही सेना का भरोसा खो बैठे, जिसे पाकिस्तान में सत्ता-प्रतिष्ठान कहा जाता है। उन्होंने अपने विरोधियों को कानूनी दाँव-पेचों में फँसाने का काम किया। अब उनके विरोधी एक हो गए हैं। कोई चमत्कार नहीं हुआ, तो पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के भाई शहबाज़ शरीफ प्रधानमंत्री बनेंगे। शरीफ बंधुओं पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं, पर पाकिस्तान में आरोप किस पर नहीं हैं। फिलहाल देश की व्यवस्था एक बड़ा मोड़ लेगी। इस मोड़ का भारत पर क्या असर होगा, इसपर विचार करने का समय है। अलबत्ता सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा ने अविश्वास-प्रस्ताव पर फैसला होने के एक दिन पहले दो महत्वपूर्ण बातें कहकर विदेश-नीति के मोड़ को स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग में कहा है कि यूक्रेन पर रूसी हमला फौरन बंद होना चाहिए। उन्होंने पिछले साल इसी कार्यक्रम में भारत से रिश्ते सुधारने की जो पहल की थी, उसे शनिवार को भी दोहराया है। दोनों बातें महत्वपूर्ण हैं।

आज होगा फैसला

इमरान खान की हार पर संसद की मोहर आज लग जाएगी। उन्होंने इस हार को स्वीकार नहीं किया है और खुद को शहीद साबित करने पर उतारू हैं। नवीनतम दावा है कि उनकी हत्या की साजिश की जा रही है। उन्होंने देश की विदेश-नीति को दाँव पर लगा दिया है। जनता को अमेरिका के खिलाफ भड़का कर उन्होंने पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान को बुरी तरह झकझोर दिया है। अनाप-शनाप बोल रहे हैं। हालांकि 25 मार्च से संसद का सत्र शुरू हो चुका है, पर इमरान खान के इशारे पर अविश्वास-प्रस्ताव पर विचार लगातार टलता रहा। 23 मार्च को देश में ‘पाकिस्तान-दिवस’ मनाया गया, जिसमें पहली बार 57 इस्लामिक देशों के विदेशमंत्रियों के अलावा चीन के विदेशमंत्री वांग यी भी शामिल हुए थे। उस रोज इमरान खान ने दावा किया कि मेरे पास एक ‘तुरुप का पत्ता’ है, जिससे मेरे विरोधी हैरत में पड़ जाएंगे।

तुरुप का पत्ता

उन्होंने संसदीय-प्रक्रिया को दूसरा मोड़ दे दिया। 27 मार्च को उन्होंने अपने समर्थकों की विशाल रैली आयोजित की, जिसमें दो घंटे का भाषण दिया। उन्होंने दावा किया कि विदेशी ताकतें मुझे हटाना चाहती हैं, जिसका ‘सबूत’ मेरी जेब में है। फिर एक कागज हवा में लहराते हुए कहा कि यह खत है सबूत। उन्होंने उस देश का नाम नहीं बताया था, जहाँ से यह पत्र आया था, पर 31 मार्च के राष्ट्रीय-संदेश में अमेरिका का नाम भी लिया। पाकिस्तान के अमेरिका स्थित राजदूत का वह पत्र था, जिसे राजनयिक भाषा में ‘टेलीग्राम’ कहा जाता है। यह अनौपचारिक सूचना होती है, जिसमें मेजबान देश के राजनेताओं या अधिकारियों से हुई बातों का विवरण राजदूत लिखकर भेजते हैं।