Monday, May 2, 2016

मीडिया की छीछालेदर भी ठीक नहीं

क्या पैसे से ‘मैनेज’ होता है हमारा मीडिया?
फाइल

अगस्ता वेस्टलैंड डील

क्या पैसे से ‘मैनेज’ होता है हमारा मीडिया?


  • राजनीति और पत्रकारिता दोनों साथ चलते हैं. नेता और पत्रकार का चोली-दामन का साथ है. वे एक-दूसरे के साथ मिल बैठकर बातें करते हैं, पर यह तेल-पानी का रिश्ता है.
  • अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले में कथित रूप से 20 पत्रकारों को घूस देने के मामले में सत्ताधारी दल के नेता इशारों में पूरी मीडिया को निशाना बना रहे हैं.
  • यह सत्ताधारी नेताओं की जिम्मेदारी और ईमानदारी का तकाजा है कि वे दागी पत्रकारों के नाम उजागर करें न कि अपरोक्ष तरीके से पूरी मीडिया की बांह मरोड़ें.

अगस्ता-वेस्टलैंड मामले में एक दस्तावेज सामने आया है जो बताता है कि इतालवी कंपनी ने इस सौदे को मीडिया की नजरों से बचाने के लिए तकरीबन 50 करोड़ रुपए आवंटित किए थे.
दस्तावेज की प्रामाणिकता कितनी है पता नहीं, पर यह आरोप गम्भीर है. भाजपा की सांसद मीनाक्षी लेखी ने इस मामले को लोकसभा में उठाया. संसद के बाहर भी इसकी काफी चर्चा है.
बताया जा रहा है कि बीस पत्रकारों को लाभ दिया गया. एक पत्रकार से पूछताछ भी की गई है. क्या वास्तव में भारत के मीडिया को ‘मैनेज’ किया गया? क्या उसे ’मैनेज’ किया जा सकता है?
यह नए किस्म का आरोप है. भारतीय मीडिया के बारे में कई तरह की शिकायतें थीं, पर यह सबसे अलग किस्म की शिकायत है.
लगता नहीं कि मुख्यधारा की पत्रकारिता से इसका रिश्ता है. इस तरह की बातें मीडिया की साख कम करती हैं. बहरहाल इनका सच सामने आना चाहिए. सरकार पर इसकी जिम्मेदारी है. इसकी तह तक जाना जरूरी है. ऐसा न हो कि यह भी रहस्य बना रह जाए.
न जाने क्यों इसे लेकर मुख्यधारा के मीडिया में खामोशी है. जबकि सोशल मीडिया में शोर है. यह स्थिति अच्छी नहीं है. मीडिया को सवालों से भागना नहीं, जूझना चाहिए.
प्रेस काउंसिल, एडिटर्स गिल्ड और ब्रॉडकास्टिंग मीडिया के सम्पादकों की संस्थाओं को आगे बढ़कर पड़ताल करनी चाहिए. यह कुछ व्यक्तियों की बात नहीं मीडिया की प्रतिष्ठा का सवाल है.
हम उस दौर में हैं जब पत्रकारिता के लिए ‘प्रेस्टीट्यूड’ जैसे शब्द ईजाद हुए हैं. सम्भव है यह व्यक्तिगत कुंठा हो या राजनीति का हिस्सा हो. पर इससे समूची पत्रकारिता निशाने पर आ गई है.
आज पत्रकारिता के लिए ‘प्रेस्टीट्यूड’ जैसे शब्द ईजाद हो गए हैं
माना कि हाल के वर्षों में मूल्य-बद्ध पत्रकारिता में गिरावट आई है. पर सामान्य युवा पत्रकार ईमानदारी के साथ इस काम से जुड़ता है. इस पर होने वाले हमलों से उसका विश्वास टूटता है.
दरअसल राजनीति और समाज के समांतर मीडिया भी ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है. खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोगों की राजनीतिक वरीयताएं साफ दिखाई देने लगी हैं.
राजनीति और पत्रकारिता दोनों साथ चलते हैं. नेता और पत्रकार का चोली-दामन का साथ है. वे एक-दूसरे के साथ मिल बैठकर बातें करते हैं, पर यह तेल-पानी का रिश्ता है. दोनों को अलग-अलग रास्तों पर जाना होता है. यह पहला मौका नहीं है जब पत्रकारों पर ऐसे आरोप लगे हैं.
लोकतांत्रिक विकास के साथ पत्रकारिता एक स्वतंत्र पर्यवेक्षक के रूप में खुद सामने आई थी. उसे किसी राज-व्यवस्था ने स्थापित नहीं किया था. उसकी ताकत थी पाठक के मन में बैठी साख. राज-व्यवस्था और नागरिक–व्यवस्था के बीच सम्पर्क-सेतु है पत्रकारिता. उसके मूल्य खत्म होने वाले नहीं हैं. यह विचलन समय की बात है. इसे ठीक होना होगा.
आपराधिक गठजोड़ में पत्रकारिता का नाम जुड़ना एक खतरनाक स्थिति की तरफ इशारा करता है. पत्रकारिता के बुनियादी मूल्य जिन बातों का पर्दाफाश करने के पक्षधर हैं, उनमें ही पलीता लग गया है. यह सब एकतरफा नहीं है.
पिछले कुछ साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो कुछ पत्रकारों और मीडिया हाउसों पर संगीन आरोप भी लगे हैं. बावजूद इसके समूची पत्रकारिता पर उंगली उठाना गलत है. राजनीतिक दलों ने पत्रकार को पर्यवेक्षक के बजाय दोस्त या दुश्मन समझना शुरू कर दिया है.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उदय के साथ यह द्वंद्व बढ़ा है. वह सत्ता की सीढ़ी चढ़ने-उतरने का माध्यम बन गया है. पत्रकार राजनीति का भागीदार बनना चाहता है. नेताओं की तरह अमीर.
पिछले साल पेट्रोलियम मंत्रालय के कुछ गोपनीय दस्तावेजों के मामले को लेकर एक पत्रकार की गिरफ्तारी हुई थी. गिरफ्तार किए गए पत्रकार ने पेशी पर ले जाए जाते वक्त कहा था कि पेट्रोलियम मंत्रालय में 10 हजार करोड़ रुपए का घोटाला है.
यह भी कि उसे फंसाया जा रहा है. क्या हुआ उस मामले का? यह जिम्मेदारी मीडिया और सरकार दोनों की थी कि जनता को सच्चाई से अवगत कराते.
उसके पहले अगस्त-सितम्बर 2012 में कोयला खानों का मामला खबरों में था. उन दिनों सरकारी सूत्रों से खबर आई थी कि कोल ब्लॉक आबंटन में कम से कम चार मीडिया हाउसों ने भी लाभ लिया. इनमें तीन प्रिंट मीडिया और एक इलेक्ट्रॉनिक चैनल बताया गया था.
उन्हीं दिनों एक व्यावसायिक विवाद में एक चैनल-सम्पादक की गिरफ्तारी हुई. ‘पेड न्यूज’ की प्रेत-बाधा ने पहले ही मीडिया को घेर रखा है. मीडिया के अपने अंतरविरोध हैं. उसकी साख गिर रही है. यह बात लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है. 
मीडिया के अपने अंतरविरोधों की वजह से उसकी साख गिर रही है
देश में सन 2010 के बाद से भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल बना उसमें मीडिया की भी बड़ी भूमिका थी. मीडिया के असंतुलन की वजह से माहौल बना ‘सब चोर हैं.’
अन्ना हजारे का आंदोलन वस्तुतः मीडिया की लहरों पर खड़ा हुआ था. उस आंदोलन से निकली राजनीति को भी उसी मीडिया से शिकायत रही, जिसने उसे खड़ा किया. दो साल पहले अरविन्द केजरीवाल ने मीडिया वालों को जेल भेजने की धमकी दी थी.
बाद में उन्होंने अपनी बात को घुमा दिया, पर सच यह है कि राजनेता को मीडिया तभी भाता है, जब वह उसके मन की बात कहें. पर पत्रकार को अपने पाठक का भरोसा चाहिए नेता का नहीं.

1 comment:

  1. we don't have to do anything to discredit media, media is competent enough to do it itself. there was a time when i would spend about two hours to read one newspaper, nowadays i read three newspapers in fifteen minutes.

    http://www.obliqview.blogspot.in

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