सुबह के अखबारों में जेपी की रैली की
खबर थी, जिसमें देश की जनता से अपील की गई थी कि वह इस ‘अवैध’
सरकार को खारिज
कर दे। टैक्स देना बंद करो, छात्र स्कूल जाना बंद करें, सैनिक, पुलिस और सरकारी कर्मचारी
अपने अफसरों के हुक्म मानने से इंकार करें। रेडियो स्टेशनों को चलने नहीं दें, क्योंकि
रेडियो ‘झूठ’ बोलता है। लखनऊ के स्वतंत्र भारत में काम करते हुए मुझे डेढ़-दो साल हुए
थे। सम्पादकीय विभाग में मैं सबसे जूनियर था। खबरों को लेकर जोश था और सामाजिक बदलाव
का भूत भी सिर पर सवार था। 26 जून 1975 की सुबह किसी ने बताया कि रेडियो पर इंदिरा
गांधी का राष्ट्र के नाम संदेश आया था, जिसमें उन्होंने घोषणा की है कि राष्ट्रपति
जी ने देश में आपातकाल की घोषणा की है।
आपातकाल या इमर्जेंसी लगने का मतलब मुझे
फौरन समझ में नहीं आया। एक दिन पहले ही अखबारों में खबर थी कि सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा
गांधी को अपने पद पर बनाए रखा है, पर उनके तमाम अधिकार खत्म कर दिए हैं। वे संसद में
वोट भी नहीं दे सकती हैं। इंदिरा गांधी के नेतृत्व और उसके सामने की चुनौतियाँ दिखाई
पड़ती थीं, पर इसके आगे कुछ समझ में नहीं आता था।
हमारे सम्पादकीय विभाग में दो गुट बन
गए थे। कुछ लोग इंदिरा गांधी के खिलाफ थे और कुछ लोग उनके पक्ष में भी थे। इलाहाबाद
हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमे की खबर की कॉपी मुझे ही अनुवाद करने के लिए मिलती थी, जिससे
मुझे मुकदमे की पृष्ठभूमि समझ में आती थी। हमारे यहाँ हिन्दी की एजेंसी सिर्फ हिन्दुस्तान
समाचार थी। वह भी जिलों की खबरें देती थी, जो दिन में दो या तीन बार वहाँ से आदमी टाइप
की गई कॉपी देने आता था। हिन्दुस्तान समाचार का टेलीप्रिंटर नहीं था। आज के मुकाबले
उस जमाने का मीडिया बेहद सुस्त था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाम पर सुबह और रात की रेडियो खबरें
ही थीं। टीवी लखनऊ में उसी साल नवम्बर में आया, जून में वह भी नहीं था। आने के बाद भी शाम की छोटी सी सभा होती थी। आज के नज़रिए से वह मीडिया नहीं था। केवल शाम को खेती-किसानी की बातें बताता और प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के भाषणों का विवरण देता था।