सैयद इंशा अल्ला खाँ की 'रानी केतकी की कहानी' संभवतः खड़ी बोली की पहली कहानी है और इसका रचना काल सन 1803 के आसपास माना जाता है। रानी केतकी की कहानी शीर्षक कहानी सैयद इंशा अल्लाह खाँ साहब द्वारा लिखी गई है। यह कहानी हिन्दी गद्य के बिल्कुल शुरूआती दिनों में लिखी गई थी। हिन्दी में पद्य (कविता) की सुदृढ़ परम्परा रही है। पर ज्यादातर पद्य ब्रजभाषा और अवधी और भोजपुरी आदि में है। खड़ी बोली में गद्य की शुरुआत उन्नीसवीं सदी में हुई। जिसके नमूने मैं कुछ समय बाद पेश करूँगा। ‘रानी केतकी की कहानी’ की खड़ी बोली में कविता और दोहों का कई जगह इस्तेमाल हुआ है। भाषा में ब्रज का पुट है। कथानक में राजकुमार और राजकुमारी का प्रेम-प्रणय है तथा राजकुमार के पिता और राजकुमारी के पिता जो अलग-अलग राज्य के राजा हैं, का अहंकार है। यानी वह समय सामंती प्रवृत्तियों से बाहर निकल रहा था। रानी केतकी की कहानी संधि स्थल की कहानी है, जिसमें प्रेम है, रोमांस है, युद्ध और हिंसा है, तिलिस्म-जादूगरी है। कहानी मानवीयता के जमीन पर कम वायवीय लोक में ज्यादा घूमती है। फिर भी प्रारंभिक हिन्दी कहानियों, खासतौर से गद्य के स्वरुप को जानने के लिए यह कहानी महत्वपूर्ण है। हमारी दिलचस्पी हिन्दी-उर्दू के विकास में भी है, इसलिए इसे पढ़ना चाहिए। ध्यान रहे यह उर्दू लिपि में लिखी गई थी। केवल लिपि महत्वपूर्ण होती है, तो इसे हिन्दी की नहीं उर्दू की कहानी मानना होगा, पर अरबी-फारसी शब्दों की उपस्थिति से भाषा उर्दू बनती है, तो इसे उर्दू नहीं मानेंगे। इस कहानी की शुरुआत परिचय के रूप में है, जिसमें अपनी भाषा को लेकर भी उन्होंने सफाई दी है। बहरहाल हमारी खोज में यह बात कई बार आएगी कि हिन्दी किसे कहते हैं और उर्दू किसे। दोनों में ऐसा क्या है, जो उनके बीच एकता को रेखांकित करता है और वह क्या बात है, जो उनके बीच अलगाव पैदा करती है। इंशा अल्ला खाँ को हिन्दी साहित्यकार और उर्दू कवि दोनों माना जाता है। वे लखनऊ तथा दिल्ली के दरबारों में कविता करते थे। उन्होने दरया-ए-लतफत नाम से उर्दू के व्याकरण की रचना की थी। बाबू श्यामसुन्दर दास इसे हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं।
रानी केतकी की कहानी
-सैयद इंशा अल्ला
खां
यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट।
और न किसी बोली का मेल है न पुट।।
सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियाँ जातियाँ जो साँसें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँसे हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खेलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पड़े और कड़वा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बड़े से बड़े अगलों ने चक्खी है।
देखने को दो आँखें दीं और सुनने के दो कान।
नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।।
मिट्टी के बासन को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड़ सके। सच है, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनानेवालो को क्या सराहे और क्या कहे। यों जिसका जी चाहे, पड़ा बके। सिर से लगा पाँव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियाँ खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करैं। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिये यों कहा है -जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लड़के वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से क्या पड़ी! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूँ तीसों घड़ी।