इस चुनाव को
बंगाल में ममता ‘दीदी’ की विस्मयकारी और जयललिता ‘अम्मा’ की अविश्वसनीय जीत के
कारण याद रखा जाएगा। पर इन चुनाव परिणामों की बड़ी तस्वीर है बीजेपी के राष्ट्रीय
फुटप्रिंट का विस्तार। उसके लिए पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार खुल गया है। वह असम की
जीत को देशभर में प्रचारित करेगी। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने पूरे परिणाम आने के पहले
ही इस बात को जाहिर भी कर दिया। असम के बाद पार्टी ने बंगाल में पहले से ज्यादा
मजबूती के साथ पैर जमाए हैं। और केरल में उसने प्रतीकात्मक, पर प्रभावशाली प्रवेश
किया है।
सन 2011 के
विधानसभा चुनाव में इन्हीं राज्यों में बीजेपी ने साढ़े पाँच सौ के आसपास
प्रत्याशी खड़े किए थे, पर सीटें मिली थीं छह। बीजेपी की
सफलता के साथ इन परिणामों का दूसरा बड़ा संदेश कांग्रेस के नाम है। उसके हाथ से दो
महत्वपूर्ण राज्य असम और केरल निकल गए। अब उसके पास कर्नाटक ही बड़ा राज्य बचा है।
शेष राज्य हैं उत्तराखंड, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम।
सबसे विस्मयकारी नतीजे पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु से मिले हैं। इसबार बंगाल में
कांग्रेस और वाममोर्चे के गठबंधन के कारण ऐसा अनुमान लगाया था कि ममता बनर्जी की हार भी हो सकती है। हार न
भी हुई तो मुकाबला काँटे का होगा। पर मुकाबला न सिर्फ एकतरफा रहा, बल्कि तृणमूल
कांग्रेस ने लगभग तीन-चौथाई बहुमत हासिल कर लिया। वाममोर्चे और कांग्रेस को पिछली
बार से भी कम सीटें मिलीं। इस गठबंधन ने भविष्य की राजनीति के लिए नई सम्भावनाएं
पैदा की थीं, पर इसके नतीजे इतने विस्मयकारी होंगे ऐसा सोचा नहीं गया था। ममता की
वापसी का मतलब है वाम मोर्चा का विदाई गीत।
विस्मय की बात है कि 34 साल तक शासन करने वाली पार्टी सीपीएम तीसरे नम्बर पर
पहुँच गई। उसे कांग्रेस से भी कम सीटें मिलीं। एक और विस्मय इस बात पर है कि बीजेपी
वोट प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस के करीब पहुँच गई है। कांग्रेस को तकरीबन 12
फीसदी वोट मिले और बीजेपी को 10 फीसदी। हालांकि विश्लेषण करने में समय लगेगा, पर
फिलहाल लगता है कि बंगाल में बीजेपी ने वाममोर्चा के वोटों में सेंध लगाई है।
तमिलनाडु को लेकर हुए अधिकतर एग्जिट पोल गलत साबित हुए। सन 1984 के बाद पहली
बार कोई पार्टी ‘एंटी इनकम्बैंसी’ का सामना करते हुए लगातार दूसरी
बार सत्ता में पहुंची है। पिछले साल नवम्बर में आई बाढ़ के कारण जनता के मन में
काफी गुस्सा था, पर शायद टू-जी के कारण वोटर के मन द्रमुक के प्रति जो निराशा पैदा
हुई थी, वह खत्म नहीं हुई है। इसके अलावा अम्मा नाम से सस्ते भोजन, सस्ती वस्तुएं,
सस्ती दवाएं जनता को भाई हैं। इन चुनाव परिणामों को देखते हुए लगता है कि शायद के
करुणानिधि अब अपने उत्तराधिकारी एमके स्टैलिन को पार्टी का भार सौंपने को मजबूर
होंगे।
असम में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए हेमंत विश्व शर्मा का कहना था कि भाजपा
गठबंधन को 90 सीटें मिलेंगी। उनकी बात काफी हद तक सही साबित हुई। उनका यह भी कहना
था कि असम के मुसलमान भी बीजेपी गठबंधन को वोट देंगे। लगता है ऐसा हुआ भी है। असम में तीस फीसदी से ज्यादा मुसलमान वोट हैं। बीजेपी गठबंधन को मुसलमानों को वोट
न मिलते तो इतनी सीटें नहीं मिलतीं। पिछली बार मौलाना बद्रुद्दीन अजमल
के असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट 18 सीटें हासिल करके देश का ध्यान खींचा था।
उनकी पार्टी को इसबार 22 सीटों की उम्मीद थी।
असम में जीत बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति को वैधानिकता देने में मददगार होगी। पर
इसके साथ जुड़ी चुनौतियाँ भी हैं। असम के लोग बाहरी घुसपैठ को सबसे बड़ी समस्या
मानते हैं। असम समझौते को पूरी तरह अभी तक लागू नहीं किया जा सका है। असम कई
प्रकार के भौगोलिक-सामाजिक टुकड़ों में बँटा है। बीजेपी तभी सफल होगी जब वह सबको
साथ लेकर चलेगी।
इस जीत को कांग्रेस की पराजय के रूप में भी देखना चाहिए। तरुण गोगोई की उम्र हो
चुकी है। उनकी इस हार के बाद पूर्वोत्तर में कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं बचा।
किसी नए नेता को उभरने भी नहीं दिया। उनके विश्वासपात्र हेमंत विश्व शर्मा इसी वजह
से उनका साथ छोड़ कर चले गए। असम में बीजेपी के नेतृत्व ने तय कर लिया था कि बजाय
नरेन्द्र मोदी को आगे रखने के पार्टी राज्य के ही किसी नेता को मुख्यमंत्री पद का
प्रत्याशी घोषित करेगी। इसके लिए सर्बानंद सोनोवाल को आगे किया गया।
पार्टी को सबसे ज्यादा मदद मिली कांग्रेस से आए हेमंत विश्व शर्मा से। तरुण
गोगोई को समय रहते हटाया नहीं गया और भविष्य के नेता के रूप में गोगोई के पुत्र को
प्रोजेक्ट किया। इसके कारण रोष पैदा हुआ। हेमंत विश्व शर्मा के साथ कांग्रेस के
दूसरे नेता भी आए हैं। उन्हें टिकट भी दिए गए हैं। देखना होगा कि सर्बानंद सोनोवाल
और हेमंत के बीच रिश्ते कैसे रहते हैं। इसके अलावा पार्टी का असम गण परिषद और बोडो
डेमोक्रेटिक फ्रंट के साथ गठबंधन है। गठबंधन की जटिलताएं भी होती हैं। बीजेपी को
उनसे निपटना होगा।
केरल में वाममोर्चा का बड़ी जीत हासिल हुई है। अब त्रिपुरा के अलावा केरल ही
वाममोर्चा का ध्वजवाहक है। बंगाल और केरल में कांग्रेस के साथ अलग-अलग किस्म के
रिश्ते वाममोर्चा के गले की फाँस बने। चुनाव परिणाम आने के बाद सीताराम येचुरी ने
कहा कि बीजेपी का बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और केरल में कांग्रेस के साथ भितरखाने
गठजोड़ था। यानी एक-दूसरे को वोट दिलाने और वाममोर्चा के वोट काटने में उन्होंने
भूमिका निभाई। यह बात आसानी से गले उतरती नहीं।
केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लम्बे अरसे से सक्रिय है। केरल और बंगाल में
सीपीएम कार्यकर्ता इतने संगठित हैं कि पूरा गाँव तयशुदा प्रत्याशी को वोट देता है।
बीजेपी के ओ राजगोपाल लम्बे अरसे से सक्रिय रहे हैं। उनके अलावा छह प्रत्याशी
दूसरे नम्बर पर रहे। मंजेश्वर में बीजेपी प्रत्याशी के सुरेन्द्रन की हार सिर्फ 89
वोटों से हुई। इस लिहाज से केरल में एक नई राजनीति की शुरुआत हुई है।
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