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Tuesday, October 31, 2023

‘भाषा के बहाने’ हिंदी की बातें

करीब आठ महीने पहले सुरेश पंत की पुस्तक शब्दों के साथ-साथ का आगमन हुआ था, जिसने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। उस किताब क दूसरे,  तीसरे और चौथे भाग की जरूरत बनी रहेगी। शब्द-सागर की गहराई अथाह है और उसमें गोता लगाने का आनंद अलग है। शब्दों के करीब जाने पर तमाम रोचक बातें जानकारी में आती हैं। उन्होंने अपनी नवीनतम पुस्तक भाषा के बहाने में शब्दों से कुछ आगे बढ़कर भाषा से जुड़े दूसरे मसलों को भी उठाया है। इस अर्थ में यह किताब पाठक को शब्दों के दायरे से बाहर निकाल कर भाषा-संस्कृति के व्यापक दायरे में ले जाती है।

संस्कृति, सभ्यता और समाज के विकास की धुरी भाषा है। हालांकि जानवरों और पक्षियों की भाषाएं भी होती हैं, पर मनुष्यों की भाषाओं की बराबरी कोई दूसरा प्राकृतिक संवाद-तंत्र नहीं कर सकता। अमेरिकी भाषा-शास्त्री रे जैकेनडॉफ (Ray Jackendoff) के अनुसार हमारी भाषाएं अनगिनत विषयों, जैसे मौसम, युद्ध, अतीत, भविष्य, गणित, विज्ञान, गप्प वगैरह, से जुड़ी हैं। इसका सूचना और ज्ञान के प्रसार, संग्रह, मंतव्यों के प्रकटीकरण, प्रश्न करने और आदेश देने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।

इंसानी भाषाओं में चंद दर्जन वाक् ध्वनियों से लाखों शब्द बनते हैं। इन शब्दों की मदद से वाक्यांश और वाक्य गढ़े जाते हैं। विलक्षण बात यह है कि सामान्य बच्चा भी बातें सुनकर भाषा के समूचे तंत्र को सीख जाता है। भाषा या संवाद सांस्कृतिक और राजनीतिक-पृष्ठभूमि को भी व्यक्त करते हैं। दूसरी तरफ जानवरों के संवाद तंत्र में मात्र कुछ दर्जन अलग-अलग ध्वनियां होती हैं। इन ध्वनियों को वे केवल भोजन, धमकी, खतरा या समझौते जैसे फौरी मुद्दों को प्रकट करने के लिए कर सकते हैं। इस लिहाज से मनुष्यों की भाषा की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक-भूमिकाओं का आकाश बहुत विस्तृत है।  

इस पुस्तक में पंत जी ने भाषा के बहाने कई प्रकार के विषयों को उठाया है। सभी विषय भाषा से सीधे नहीं भी जुड़े हैं, तो उन्हें जोड़ा जा सकता है। उन्होंने किताब की प्रस्तावना में लिखा है, भाषा के बहाने उठाए गए विषयों का काल-क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत है। समय-समय पर लिखे गए कुछ लेख भी इस पुस्तक में स्थान पा गए हैं।…हिंदी के बहुत से रोचक पहलुओं पर भी कलम चली है-गाली से लेकर आशीर्वाद तक, ठग से ठुल्ला तक, शिक्षण से पत्रकारिता तक, किसान से राष्ट्रपति तक, गू से गुएँन तक, केदारनाथ से एवरेस्ट तक अनेक विषयों पर चर्चाएं इस पुस्तक में मिल जाएँगी। कुछ कहावतें, कुछ विश्वास, कुछ मसले, कुछ चिंताएँ और कुछ दिशाएँ। इस लिहाज से कुछ अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई सामग्री भी है, जिसे सधे हाथों से तरतीब दी गई है। पुस्तक में 80 छोटे-छोटे अध्यायों के अलावा दो परिशिष्ट हैं। एक में कुछ परिभाषाएं हैं और दूसरे में संदर्भ पुस्तकों की सूची।

Saturday, March 25, 2023

भारतीय भाषाओं का मीडिया और शब्द चयन


हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ'  को पढ़ते हुए मेरे मन में तमाम पुरानी बातें कौंधती चली गई हैं। एक अरसे से मैं भाषा को लेकर एक किताब लिखने का विचार करता रहा हूँ। संभव है मैं उसे तैयार कर पाऊं। मैं भाषा-विज्ञानी नहीं हूँ। केवल भाषा को बरतने वाला हूँ। विचार को ज्यादा बड़े फलक पर व्यक्त करने के पहले अपने ब्लॉग पर मैं स्फुट विचार व्यक्त करता रहा हूँ। हिंदी को लेकर भी 20-25 से ज्यादा लेख मैंने ब्लॉग में लिखे हैं। काफी बातें मेरी डायरियों में दर्ज हैं, जिन्हें मैं समय-समय पर लिखता रहा हूँ।

हाल में जब मध्य प्रदेश सरकार ने मेडिकल पुस्तकों को हिंदी में प्रकाशित किया, तब मैंने कुछ लेख लिखे थे और उन्हें आगे बढ़ाने का विचार किया। इसके लिए मैंने फलस्तीन, इसरायल, अरबी और अफ्रीका की भाषाओं में मेडिकल पढ़ाई से जुड़े प्रश्नों पर नोट्स तैयार किए। पर जब उस मसले को राजनीति ने घेर लिया, तब मैंने अपना हाथ रोक लिया। पढ़ने वाले यह समझने की कोशिश करने लगते हैं कि मैं संघी हूँ, कांग्रेसी हूँ, लोहियाइट हूँ, लाल झंडा हूँ या आंबेडकरवादी? काफी लोगों ने इन शब्दों के परिधान पहन रखे हैं। और वे दुनिया को इसी नज़र से देखना चाहते हैं। जब किताब लिखूँगा, तब इस विषय पर भी लिखूँगा। तकनीकी शब्दावली और आम-फहम भाषा से जुड़े मसले भी मेरी दृष्टि में हैं। एक बड़ा रोचक मसला हिंदी-उर्दू का है। दोनों की लिपियों का अंतर उन्हें अलग करता है, पर क्या आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की मौखिक भाषा में दोनों के फर्क को मिटाया जा सकता है? बहरहाल।  

मैं केवल हिंदी-नज़रिए से नहीं देखता। मेरी नज़र भाषा और खासतौर से भारतीय भाषाओं पर है। लेखक और पत्रकार के रूप में भारतीय भाषाओं के विस्तार का सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि हम कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक उसकी भाषा में बात पहुँचा सकते हैं। ऐसे में दो-तीन बातों को ध्यान में रखना होता है। एक, हमारा दर्शक या श्रोता कौन है? उसका भाषा-ज्ञान किस स्तर का है? केवल उसके ज्ञान की बात ही नहीं है बल्कि देखना यह भी होगा कि वह जिस क्षेत्र का निवासी है, वहाँ के मुहावरे और लोकोक्तियों का हमें ज्ञान है या नहीं।

पाठक से सीखें

यह दोतरफा प्रक्रिया है। हमें भी अपने लक्ष्य से सीखना है। खासतौर से तब, जब संवाद लोकभाषा में हो। इसके विपरीत अपेक्षाकृत नगरीय क्षेत्र में मानक-भाषा का इस्तेमाल करने का प्रयास करना चाहिए। लोकभाषा से लालित्य आता हो, तब तो ठीक है, अन्यथा किसी दूसरे क्षेत्र के लोक-प्रयोग कई बार दर्शक और श्रोता को समझ में नहीं आते।

पाकिस्तान में इन दिनों आटे का संकट है। दोनों देशों में दाल-आटे का भाव आम आदमी की दशा पर रोशनी डालता है। भारतीय भूखंड में आटे की व्याप्ति पर डॉ पंत की किताब में अच्छी जानकारी पढ़ने को मिली। आटा संस्कृत आर्द (जोर से दबाना) और प्राकृत अट्ट से व्युत्पन्न हुआ है। अर्थ है किसी अनाज का चूरा, पिसान, बुकनी, पाउडर। कई तरह का चूर्ण बेचने वाला कहलाया परचूनी या परचूनिया। आटा के लिए फारसी शब्द है आद, जो संस्कृत के आर्द का प्रतिरूप लगता है। गुजराती में आटो, कश्मीरी में ओटू, मराठी में आट के अलावा पीठ शब्द भी चलता है, जो पिष्ट या पिसा हुआ से बना है। हिंदी में पिट्ठी या पीठी भी पीसी हुई दाल है। नेपाली में पीठो, कन्नड़ में अट्टसु, पंजाबी, बांग्ला और ओडिया में भी आटा, पर तमिष और मलयाळम में इन सबसे अलग है मावु।

Tuesday, March 14, 2023

शब्दों से एक रोचक मुलाकात

अस्सी के दशक में कभी लखनऊ में रंजीत कपूर के निर्देशन में मैंने बेगम का तकिया नाटक देखा था। तब तक मुझे तकिया शब्द का मतलब सिरहाने लगाने वाला तकिया ही समझ में आता था। मसलन भरोसा करना, फ़क़ीर का आवास, क़ब्रिस्तान और छज्जे में रोक के लिए लगाई गई पत्थर की पटिया, जिसे अंग्रेजी में पैरापीट कहते हैं वगैरह। शब्दों का यह अर्थ-वैविध्य देश-काल के साथ तय होता है। जहाँ शब्द गढ़ा गया या जहाँ से और जब होकर गुज़रा। वक्त के साथ यह भी पता लगा कि शब्दों के मतलब बदलते भी जाते हैं। हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ' को हाथ में लेते ही शब्दों से मुलाकात के कुछ पुराने प्रसंग याद आते चले गए।  

व्यक्तिगत रूप से मेरी मुलाकात शब्दों और उनके बनते-बिगड़ते रूपों के साथ अखबार की नौकरी के दौरान हुई। एक समय तक भाषा की ढलाई और गढ़ाई का काम अखबारों में ही हुआ था। कई साल तक मैंने कादम्बिनी में ज्ञानकोश नाम से एक कॉलम लिखा, जिसमें पाठक कई बार शब्दों का खास मतलब भी पूछते थे। नहीं भी पूछते, तब भी शब्द-संदर्भ निकल ही आते थे। एकबार किसी ने साबुन के बारे में पूछा, तो उसके जन्म की तलाश में मैंने दूसरे स्रोतों के अलावा अजित वडनेरकर के ब्लॉग शब्दों का सफर की मदद ली। 1993 में मैंने कुछ समय के लिए जयपुर के नवभारत टाइम्स में काम किया, तो एक दिन वहाँ अजित जी से मुलाकात भी हुई थी। शायद वे उस समय कोटा में अखबार के संवाददाता थे। पर मुझे उनके कृतित्व का पता अखबारी कॉलम से काफी बाद में लगा।