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Monday, January 29, 2024

गणतांत्रिक-व्यवस्था और ‘लोकतंत्र की जननी’ भारत

साँची के स्तूप में अंकित मल्ल महाजनपद की राजधानी कुशीनगर। इतिहासकार मानते हैं कि गौतम बुद्ध के समय में मल्ल क्षेत्र में दुनिया की पहली गणतांत्रिक व्यवस्था थी

इस साल गणतंत्र दिवस परेड में देश की सांस्कृतिक विरासत और विविधता को एक नए रूप में पेश किया गया. परेड की मुख्य थीम थी, विकसित भारतऔर भारत-लोकतंत्र की मातृका. यह परेड महिला केंद्रित भी थी. 

पहली बार इस परेड के आगे सैनिक बैंड के बजाय 100 महिला कलाकार भारतीय वाद्ययंत्रों के संगीत की खुशबू बिखेरती हुई चल रही थीं और शेष परेड उनके पीछे थी. 

इसके पहले सैनिक टुकड़ियों का नेतृत्व करती महिला अधिकारी आपने देखी हैं, पर इसबार तीनों सेनाओं की 144 महिला कर्मियों की मिली जुली टुकड़ी भी इस परेड में थी.

लोकतंत्र की जननी

यह परेड भारत को 'लोकतंत्र की जननी' के रूप में प्रदर्शित करने का प्रतीक बनेगी. लोकतंत्र अपेक्षाकृत आधुनिक विचार है, और उसका काफी श्रेय पश्चिमी समाज के दिया जाता है. हालांकि उसके विकास में उन समाजों की भी भूमिका है, जो अतीत में उन मूल्यों से जुड़े थे, जो आज लोकतंत्र की बुनियाद हैं.

हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है.

Tuesday, August 15, 2023

लोकतंत्र, कानून का शासन और राष्ट्रीय-एकता


 आजादी के सपने-05

 जिस समय हम 77वें स्वतंत्रता दिवस की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, जम्मू-कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने के फैसले की वैधानिकता पर देश के सुप्रीमकोर्ट की संविधान-बेंच सुनवाई कर रही है. केंद्र सरकार के इस फैसले और उसके निहितार्थ को लेकर 23 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं. फैसला जो भी हो, साबित क्या होगा?

साबित होगी भारतीय लोकतंत्र और उससे जुड़ी संस्थाओं और जनमत की ताकत. हमारे लोकतंत्र के सामने नागरिकों के हितों के अलावा न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना, बहुजातीय-बहुधर्मी-बहुभाषी व्यवस्था को संरक्षण देने के साथ राष्ट्रीय-एकता और अखंडता की रक्षा करने की चुनौती भी है. इस चुनौती को पूरा करने के लिए संविधान हमारा मार्गदर्शक है.

भारतीय संविधान

हमारे पास दुनिया का सबसे विषद संविधान है. दुनिया में सांविधानिक परम्पराएं तकरीबन साढ़े तीन सौ साल पुरानी हैं. लिखित संविधान तो और भी बाद के हैं. 1787 में अमेरिकी संविधान से इसकी शुरूआत हुई. ऑस्ट्रियो हंगेरियन संघ ने 1867 में ऑस्ट्रिया में संविधान लागू किया. ब्रिटिश संविधान तो लिखा ही नहीं गया, परंपराओं से बनता चला गया.

लोकतंत्र का दबाव था कि उन्नीसवीं सदी में अनेक सम्राटों एवं राजाओं ने अपने देशों में संविधान रचना की. भारतीय संविधान की रचना के समय उसके निर्माताओं के सामने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा, लोकतंत्र, संघीय और राज्यों के कार्यक्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या, सामाजिक न्याय और इस देश की बहुल संस्कृति की रक्षा जैसे सवाल थे.

लोकतांत्रिक-समाज

पिछले 76 साल के सांविधानिक अनुभव को देखें तो सफलता और विफलता के अनेक मंजर देखने को मिलेंगे. कभी लगता है हम लोकतंत्र से भाग रहे हैं. या फिर हम अभी लोकतंत्र के लायक नहीं हैं. या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है. या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह उतना नहीं हो सकता. उसकी व्यावहारिक दिक्कतें हैं. वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है.

वस्तुतः समाज ही अपने लोकतंत्र को बढ़ावा देता है और लोकतंत्र से समाज का विकास होता है. संविधान का मतलब है कानून का शासन. पिछले 76 वर्षों में इन दोनों बातों की परीक्षा हुई है. हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है.

Wednesday, August 2, 2023

नीजेर की फौजी बगावत के निहितार्थ

अफ्रीकी देशों में तानाशाही और अलोकतांत्रिक-प्रवृत्तियों का पहले से बोलबाला है। अब मध्य अफ्रीका के साहेल (या साहिल) क्षेत्र के देश नीजेर की लोकतांत्रिक-सरकार का तख्ता पलट करके वहाँ की सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है। नीजेर, अफ़्रीका के गिने-चुने लोकतांत्रिक देशों में से एक था। दूसरे पड़ोसी देशों की तरह वहाँ भी सत्ता पर फौज क़ाबिज़ हो गई है। राष्ट्रपति मुहम्मद बज़ूम के समर्थकों ने भी 26 जुलाई को राजधानी नियामे में रैली निकाली। दूसरी तरफ 30 जुलाई को लोकतांत्रिक-सरकार विरोधी लोगों ने रूसी झंडे लेकर प्रदर्शन किया। वे फ्रांस मुर्दाबाद और पुतिन जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे।

राष्ट्रपति बज़ूम दो साल पहले ही इस पद पर चुनकर आए थे और देश के स्वतंत्र होने के बाद पहली लोकतांत्रिक सरकार थी। पश्चिम अफ्रीका में माली से लेकर पूरब में सूडान तक, अफ्रीका के एक बड़े इलाक़े में अब हुकूमत फौजी जनरलों के हाथों में आ गई है। नीजेर के राष्ट्रपति मुहम्मद बज़ूम, अफ्रीकी देशों में पश्चिम के सबसे करीबी दोस्तों में से एक रहे हैं। पश्चिम के ही नहीं ओआईसी में भारत के भी करीबी मित्र वे रहे हैं। उन्हें हिरासत में ले लिया गया है। गत 26 जुलाई को वहाँ की फौज ने सरकार पर कब्जा कर लिया है।

Thursday, September 15, 2022

असली-नकली लोकतंत्र की बहस में भारत


इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हम इस बात पर बहस कर रहे हैं कि लोकतंत्र क्या है. दिसंबर, 2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘डेमोक्रेसी समिट’ का आयोजन किया था, जिसके जवाब में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा कि असली और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र चीन में है.

हम मानते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है, पर इकोनॉमिस्ट के डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत को उतना अच्छा स्थान नहीं दिया जाता, जितना हम चाहते हैं. पश्चिम में हमारी आलोचना हो रही है. वैसे ही जैसे 1975-77 की इमर्जेंसी के दौर में हुई थी.

सूप बोले तो बोले…

कुछ साल पहले, जब हम भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर बहस कर रहे थे एक अख़बार में खबर छपी कि चीन के लोग मानते हैं कि भारत के विकास के सामने सबसे बड़ा अड़ंगा है लोकतंत्र. कई चीनी अख़बारों ने इस आशय की टिप्पणियाँ कीं कि भारत का छुट्टा लोकतंत्र उसके पिछड़ेपन का बड़ा कारण है.

कुछ साल पहले नीति आयोग के तत्कालीन सीईओ अमिताभ कांत ने कहा, 'हमारे देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है.' 2011 में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता.

चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की निरंकुश राजनीतिक व्यवस्था है. क्या हमें भी वैसी व्यवस्था चाहिए? सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है. वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं.

जागरूक लोकतंत्र

सिस्टम के अलावा लोकतंत्र की इकाई के रूप में नागरिकों की गुणवत्ता भी उसकी सेहत तय करती है. लोकतंत्र की वैश्विक पहल 1988 में फिलिपीन्स के राष्ट्रपति एक्विनो ने शुरू की थी. उनके देश में फर्दिनांद मार्कोस के नेतृत्व में 20 साल से चली आ रही तानाशाही का अंत हुआ था, जिसका उत्सव मनाने के लिए एक्विनो ने जनशक्ति क्रांति या पीपुल पावर रिवॉल्यूशन नाम से यह पहल शुरू की थी.

16 सितंबर 1997 को इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) ने लोकतंत्र का सार्वभौमिक घोषणापत्र जारी किया, जिसका फैसला उसके एक दिन पहले काहिरा सम्मेलन में किया गया था. दस साल बाद 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर साल 15 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक दिवस मनाने का फैसला किया. इसका उद्देश्य है कि दुनिया में जागरूकता फैलाना.

हमारी सफलता

हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है. इस सफलता के बावजूद हमारे लोकतंत्र को लेकर कुछ सवाल हैं.

Monday, February 28, 2022

कनाडा के ट्रक-आंदोलन से उभरे सवाल


कनाडा में करीब
हफ्ते से जारी ट्रक ड्राइवरों का विरोध प्रदर्शन खत्म हो गया है, पर यह परिघटना कनाडा के इतिहास में याद रखी जाएगी। इतिहास में दूसरी बार कनाडा में आपातकाल की घोषणा की गई। सरकार ने जो कड़े कदम उठाए, वे कनाडा की सौम्य-व्यवस्था से मेल नहीं खाते हैं। प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए पुलिस ने पेपर स्प्रे और स्टन ग्रेनेड का इस्तेमाल करके संसद के सामने के ज्यादातर हिस्से को साफ किया।

आंदोलन खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आपातकाल की घोषणा को वापस ले लिया है। कनाडा के इतिहास में दूसरी बार इन शक्तियों का इस्तेमाल किया गया था। हालांकि इन शक्तियों के इस्तेमाल की पुष्टि संसद में होनी थी, पर उससे पहले ही इन्हें वापस ले लिया गया है। देश में शांति-व्यवस्था की स्थापना तो हो गई है, पर बहुत से सवाल खड़े हैं, जिनके जवाबों का इंतजार है।

यह आंदोलन केवल कनाडा के लिए ही नहीं अमेरिका समेत पश्चिमी-लोकतंत्र के लिए एक नज़ीर बनेगा। हजारों की भीड़ ने कनाडा की राजधानी पर धावा बोला और मुख्य-मार्गों को अवरुद्ध कर दिया। ट्रक यातायात में गिरावट ने फलों, सब्ज़ियों, ग्रोसरी और अन्य जरूरी वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ा दीं, जिससे व्यापक अशांति फैल गई है। ख़ासतौर पर अमेरिका और कनाडा के बीच कार और ट्रक-कंपनियों का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ।

अराजकता का अनुभव

इस किस्म की अराजकता पश्चिम के अनुशासित जीवन में नए किस्म का अनुभव है। एक तरफ नाराज ड्राइवर थे और दूसरी तरफ इस आंदोलन से नाराज नागरिक। कनाडा के लोग देश के राजनीतिक भविष्य के बारे में सवाल कर रहे हैं। कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह आंदोलन भारत के किसान-आंदोलन से प्रेरित था। पर पश्चिमी सरकारों ने इस आंदोलन की भर्त्सना की और इसके दमन का समर्थन। अमेरिका और यूरोप में भी वैक्सीन की अनिवार्यता और कोविड-19 प्रतिबंधों के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं।

पिछले एक दशक में अमेरिका और यूरोप में इस प्रकार के जनांदोलन बढ़ते जा रहे हैं। क्या यह सिर्फ फौरी-उफान था या पश्चिमी-व्यवस्था के तख़्तापलट की भूमिका?  देश के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं बुनियादी बदलाव की शुरुआत तो नहीं है? ऑक्यूपाई वॉलस्ट्रीट से लेकर पेरिस के पीली-कुर्ती आंदोलन तक सोशल मीडिया एक प्रेरक शक्ति रहा है। क्या यह एक नए युग की शुरुआत है? क्या यह एक बड़े राजनीतिक-विभाजन की शुरुआत है?

Monday, February 1, 2021

म्यांमार में तख्ता पलट

एक राजनीतिक कार्यकर्ता को गिरफ्तार करके ले जाते सैनिक

पड़ोसी देश म्यांमार एकबार फिर से अस्थिरता का शिकार हुआ है। सेना ने फिर से सत्ता पर कब्जा कर लिया है। पिछले पाँच साल में धीमी गति से जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं शुरू हुईं थीं, उन्हें धक्का लगा है। दुनिया के लोकतांत्रिक देशों ने सैनिक शासकों से कहा है कि वे सांविधानिक भावना का सम्मान करें और लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपना काम करने दें। सवाल है कि यह कौन तय करेगा कि जो हो रहा है, वह सही है या नहीं। और इस संकट का समाधान कैसे होगा? सेनाध्यक्ष मिन आंग लैंग ने पिछले हफ्ते  संविधान को भंग करने की धमकी दी थी। पिछले नवंबर में हुए चुनाव के आधार पर नवगठित संसद का अधिवेशन 1 फरवरी से होने वाला था। उसे रोककर और देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची तथा राष्ट्रपति विन म्यिंट और दूसरे नेताओं को हिरासत में लेकर सैनिक शासकों ने अपने इरादों को स्पष्ट कर दिया है।

Sunday, January 10, 2021

ट्रंप की हिंसक विदाई से उठते सवाल

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पहचान सिरफिरे व्यक्ति के रूप में जरूर थी, पर यह भी लगता था कि उनके पास भी मर्यादा की कोई न कोई रेखा होगी। उनकी विदाई कटुता भरी होगी, इसका भी आभास था, पर वह ऐसी हिंसक होगी, इसका अनुमान नहीं था। हालांकि ऐसा कहा जा रहा था कि वे हटने से इनकार कर सकते हैं। उन्हें हटाने के लिए सेना लगानी होगी वगैरह। पर लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं होता था।

बहरहाल वैसा भी नहीं हुआ, पर उनके कार्यकाल के दस दिन और बाकी हैं। इन दस दिनों में क्या कुछ और अजब-गजब होगा? क्या ट्रंप को महाभियोगके रास्ते निकाला जाएगा? क्या संविधान के 25वें संशोधन के तहत कार्रवाई की जा सकेगी? क्या उनपर मुकदमा चलाया जा सकता है? क्या उनकी गिरफ्तारी संभव है? ऐसे कई सवाल सामने हैं, जिनका जवाब समय ही देगा। अलबत्ता इतना स्पष्ट है कि ट्रंप पर महाभियोग चलाया भी जाए, तो उन्हें 20 जनवरी से पहले हटाया नहीं जा सकेगा, क्योंकि सीनेट की कार्यवाही 19 जनवरी तक स्थगित है। संशोधन 25 के तहत कार्रवाई करने के लिए उपराष्ट्रपति माइक पेंस और मंत्रिपरिषद को आगे आना होगा, जिसकी संभावना लगती नहीं। दूसरी तरफ यह भी नजर आ रहा है कि ट्रंप की रीति-नीति को लेकर रिपब्लिकन पार्टी के भीतर दरार पैदा हो गई है। फिर भी  कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अमेरिकी लोकतांत्रिक संस्थाएं दुखद स्थिति पर नियंत्रण पाने में सफल हुईं।

Friday, December 11, 2020

लोकतंत्र की आहट


 इंडियन एक्सप्रेस में आज किसान-आंदोलन के सिलसिले में सुहास पालशीकर ने लिखा है कि देखना होगा कि इस आंदोलन के बारे में उन लोगों की राय क्या बनती है, जो किसान नहीं हैं। पिछले साल इसी वक्त हुए सीएए एनआरसी विरोधी आंदोलन को मुसलमानों का आंदोलन साबित कर दिया गया। अब सरकार और किसानों के बीच बातचीत में से समझौता नहीं निकल पा रहा है। क्या बीजेपी इन माँगों को स्वीकार करेगी या पलटकर वार करेगी? इस दौरान ऐसी बातें भी सुनाई पड़ रही हैं कि आर्थिक सुधारों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं रोक रही हैं।  

पालशीकर ने लिखा है कि किसानों का आंदोलन शुरू होने के कुछ दिन बाद सरकार ने उनसे संवाद शुरू कर दिया। ऐसा सरकार करती नहीं रही है। इस वार्ता ने राजनीतिक लचीलेपन को स्थापित किया है। खेती से जुड़े कानूनों को बोल्ड आर्थिक सुधार के रूप में स्थापित किया गया है। वर्तमान प्रधानमंत्री गुजरात में भी ऐसे ही दावे करते रहे हैं। वे इस बात को कभी नहीं मानते कि सुधारों को लेकर मतभेद हो सकते हैं और ऐसे मामलों को मिलकर सुलझाना चाहिए।

Thursday, November 5, 2020

अमेरिका में 120 साल बाद रिकॉर्ड मतदान



अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में भारी मतदान के संदर्भ में जो शुरुआती जानकारी मिली है, उसके अनुसार 1900 के बाद अमेरिका में इतना जबर्दस्त मतदान हुआ है। फ्लोरिडा विवि के प्रोफेसर माइकेल मैक्डोनाल्ड ने ट्वीट किया है कि 120 साल बाद अमेरिका में सबसे ज्यादा मतदान हुआ है। उनका अनुमान है कि इसबार करीब 16 करोड़ यानी 66.9 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले हैं। सन 1900 में 73.2 फीसदी वोट पड़े थे। हालांकि इसबार का मतदान के प्रतिशत अभी शुरुआती अनुमान ही है, क्योंकि डाक के मत अभी आ ही रहे हैं।  


दुनियाभर के देशों के मतदाताओं और मतदान से जुड़ा डेटा रखने वाली संस्था इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्टोरल असिस्टेंस के अनुसार भारत के मुकाबले अमेरिकी मतदान कहीं नहीं है। अमेरिका में करीब 21 करोड़ मतदाता पंजीकृत हैं वहीं भारत के पिछले लोकसभा चुनाव में 91 करोड़ से ज्यादा मतदाता पंजीकृत थे। इंडोनेशिया दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ 2019 में 19.29 करोड़ मतदाता पंजीकृत थे। भारत में मतदान पूरा होने में करीब डेढ़ महीने का समय लगता है, जबकि अमेरिका और इंडोनेशिया में यह एक दिन में ही पूरा होता है। इनके अलावा ब्राजील, रूस, बांग्लादेश, पाकिस्तान और जापान में 10 करोड़ से ज्यादा मतदाता हैं।

 

 

Tuesday, October 27, 2020

अमेरिका में 'अर्ली वोटिंग' की आँधी


अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में अब सात दिन रह गए हैं और वहाँ डाक से वोट पड़ने वाले वोटों की आँधी आ गई है। नवीनतम सूचना के अनुसार करीब 6.2 करोड़ वोटर अपने अधिकार का इस्तेमाल कर चुके हैं। अर्ली वोटिंग का एक नया रिकॉर्ड अभी कायम हो चुका है। समय से पहले इतने वोट पहले कभी नहीं पड़े थे। डाक से इतनी भारी संख्या में वोटिंग का मतलब है कि अमेरिकी मतदाता कोरोना के कारण बाहर निकलने से घबरा रहा है।

अमेरिका में वोटरों की संख्या करीब 23 करोड़ है। सन 2016 के चुनाव में करीब 14 करोड़ ने वोट दिया था। पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि इसबार 15 से 16 करोड़ के बीच वोट पड़ेंगे। सामान्यतः अमेरिका में 65 से 70 फीसदी मतदान होता है। सवाल यह भी है कि क्या इसबार 80 फीसदी तक मतदान होगा?  ज्यादा मतदान का फायदा किसे होगा? अभी तक का चलन यह रहा है कि अर्ली वोट में डेमोक्रेट आगे रहते हैं और चुनाव के दिन के वोट में रिपब्लिकन। इसबार जो बिडेन ने लोगों से अपील की है कि वे अर्ली वोट करें। दूसरी तरफ ट्रंप ने डाक से आए वोटों को लेकर अंदेशा व्यक्त किया है।

Sunday, April 14, 2019

धन-बल के सीखचों में कैद लोकतंत्र


https://www.haribhoomi.com/full-page-pdf/epaper/rohtak-full-edition/2019-04-14/rohtak-main-edition/358
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि चुनावी बॉण्डों पर स्थगनादेश जारी नहीं किया है, पर राजनीतिक चंदे के बारे में महत्वपूर्ण आदेश सुनाया है। अदालत ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे चुनावी बॉण्ड के जरिए मिली रकम का ब्यौरा चुनाव आयोग के पास सीलबंद लिफाफे में जमा कराएं। इस ब्यौरे में दानदाताओं, रकम और उनके बैंक खातों का विवरण भी दिया जाए। यह ब्यौरा 30 मई तक जमा कराना होगा। वस्तुतः अदालत इससे जुड़े व्यापक मामलों पर विचार करके कोई ऐसा फैसला करना चाहती है, जिससे पारदर्शिता कायम हो।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अदालत में चुनावी बॉण्ड योजना पर रोक लगाने की गुहार लगाई है। इस योजना को केंद्र सरकार ने पिछले साल जनवरी में अधिसूचित किया था। चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी होने के पहले से ही इसका विरोध किया था। विरोध की वजह है दानदाताओं की गोपनीयता। हमारे विधि आयोग ने चुनाव सुधार से जुड़ी अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि राजनीति में धन के इस्तेमाल के साथ जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण चीज है सार्वजनिक जानकारी। जन प्रतिनिधित्व कानून, आयकर कानून, कम्पनी कानून और दूसरे सभी कानूनों के तहत बुनियादी बातों का पता सबको होना चाहिए।

Sunday, July 15, 2018

रास्ते से भटक क्यों रहा है हमारा लोकतंत्र?

लोकतांत्रिक व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर हाल में दो खबरों से दो तरह के निष्कर्ष निकलते हैं। पिछले हफ्ते तरह केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि देश भर में अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सभी पक्षकारों से कहा कि वे अदालत की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए दिशा निर्देश तैयार करने के बारे में अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को अपने सुझाव दें। अटार्नी जनरल ने इससे पहले न्यायालय से कहा था कि अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण दुनिया के अनेक देशों में एक स्वीकार्य परंपरा है। शीर्ष अदालत ने न्यायिक कार्यवाही में पारदर्शिता लाने के इरादे से पिछले साल प्रत्येक राज्य की निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में सीसीटीवी लगाने का निर्देश दिया था।

इस खबर के विपरीत  राज्यसभा के निवृत्तमान उप-सभापति पीजे कुरियन ने कहा कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे सदन की छवि खराब होती है। कुरियन का कहना था कि सदन की कार्यवाही के दौरान भले ही पीठासीन अध्यक्ष असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड के बाहर कर देते हों, लेकिन डिजिटल मीडिया के इस दौर में ये बातें आसानी से जनता तक पहुंच जाती हैं। इस वजह से सदन में शालीनता और व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें बेमतलब हो जाती हैं। उपरोक्त दोनों बातों को मिलाकर पढ़ें, तो क्या निष्कर्ष निकलता है?

Sunday, March 5, 2017

अतिशय चुनाव के सामाजिक दुष्प्रभाव

बिहार में नरेन्द्र मोदी के प्रति नाराजगी जताने के लिए उनकी तस्वीर पर जूते-चप्पल चलाए गए। इस काम के लिए लोगों को एक मंत्री ने उकसाया था। उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी कुंदन चंद्रावत ने केरल के मुख्यमंत्री पिनारी विजयन का सिर काटकर लाने वाले को इनाम देने की घोषणा की थी, जिसपर उन्हें संघ से निकाल दिया गया है। हाल में कोलकाता की एक मस्जिद के इमाम ने नरेन्द्र मोदी के सिर के बाल और दाढ़ी मूंड़ने वाले को इनाम देने की घोषणा की थी। ये मौलाना इससे पहले तसलीमा नसरीन की गर्दन पर भी इनाम घोषित कर चुके थे।

Thursday, February 12, 2015

भेड़ों की भीड़ नहीं, जागरूक जनता बनो

दिल्ली की नई विधानसभा में 28 विधायकों की उम्र 40 साल या उससे कम है. औसत उम्र चालीस है. दूसरे राज्यों की तुलना में 7-15 साल कम. चुने गए 26 विधायक पोस्ट ग्रेजुएट हैं. 20 विधायक ग्रेजुएट हैं, और 14 बारहवीं पास हैं. बीजेपी के तीन विधायकों को अलग कर दें तो आम आदमी पार्टी के ज्यादातर विधायकों के पास राजनीति का अनुभव शून्य है. वे आम लोग हैं. उनके परिवारों का दूर-दूर तक रिश्ता राजनीति से नहीं है. उनका दूर-दूर तक राजनीति से कोई वास्ता नहीं है. दिल्ली के वोटर ने परम्परागत राजनीति को दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया है. यह नई राजनीति किस दिशा में जाएगी इसका पता अगले कुछ महीनों में लगेगा. यह पायलट प्रोजेक्ट सफल हुआ तो एक बड़ी उपलब्धि होगी.  

Monday, June 16, 2014

लोकतंत्र तभी सफल होगा जब दबाव नागरिक का होगा

नई सरकार के लिए राष्ट्रपति के पहले अभिभाषण की उन बातों ने देश का ध्यान खींचा है, जो आर्थिक और तकनीकी विकास से जुड़ी हैं. तमाम बातों की सफलता या विफलता उनके कार्यान्वयन पर निर्भर करती है, इसलिए उनके बारे में कहने से कोई लाभ नहीं है. बेहतर होगा कि हम अगले महीने आने वाले बजट का इंतज़ार करें, जिसमें कुछ ठोस कार्यक्रम होंगे. जनता का मसला है महंगाई. इस बार बारिश कम होने का अंदेशा सबसे बड़ा खतरा है. कैबिनेट सचिव अजित सेठ पिछले कुछ दिनों से केवल इसी विषय पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं कि अनाज और अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों को बढ़ने से किस तरह रोका जाए. प्याज, आलू, गैर-बासमती चावल, दालों और दूध की कीमतों पर सरकार की निगाहें हैं. अगले छह महीनों की अशंकाओं को सामने रखकर सरकार काम कर रही है. पर सरकार उस खतरे से निपटने की कोशिश करे उसके पहले ही दिल्ली और उत्तर भारत के कुछ शहरों में पड़ रही गरमी ने उसके सामने संकट खड़ा कर दिया है. यह संकट बिजली की कटौती का है. बिजली और पानी के संकट ने जीना हराम कर दिया है. संकट की गहराई से ज्यादा सरकार मीडिया में इसकी चर्चा से घबराती है. सही या गलत इस चुनाव के बाद से मीडिया और शहरी नागरिक राजनीति के केंद्र में हैं. उनके सभी मसले सार्थक नहीं होते. पर इनके तेज स्वर इनकी महत्ता स्थापित करने में सफल हुए हैं.

Sunday, January 26, 2014

भागो नहीं, जागो और बदलो

अक्सर लोग पूछते हैं कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस में फर्क क्या है? मोटे तौर पर इसका मतलब है संविधान लागू होने का दिन। संविधान सभा ने 29 नवम्बर 1949 को संविधान को अंतिम रूप दे दिया था। इसे उसी रोज लागू किया जा सकता था या 1 दिसम्बर या 1 जनवरी को लागू किया जा सकता था। पर इसके लिए 26 जनवरी की तारीख मुकर्रर की गई। वह इसलिए कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दिसम्बर 1929 में हुए लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास किया गया और  26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी पूर्ण स्वराज्य दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। पर स्वतंत्रता मिली 15 अगस्त को। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के इसे आगामी 26 जनवरी 1950 से लागू करने का फैसला किया गया।

Monday, October 15, 2012

ऐसे जन सत्याग्रहों की हमें ज़रूरत है


मज़रूह सुलतानपुरी  की नज़्म है , 'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।' ( मूल आलेख में मैंने इसे मखदूम मोहियुद्दीन की  रचना लिखा था, जिसे अब मैंने सुधार दिया है। इसका संदर्भ कमेंट में देखें।)

हालांकि एकता परिषद की कहानी के पीछे वामपंथी जोश-खरोश नहीं है। और न इसकी कार्यशैली और नारे इंकलाबी हैं, पर यह संगठन रेखांकित करता है कि आधुनिक भारत का विकास गरीब-गुरबों, दलितों, आदिवासियों, खेत-मज़दूरों और छोटे किसानों के विकास के बगैर सम्भव नहीं है। और इनके अधिकारों की उपेक्षा करके बड़े औद्योगिक-आर्थिक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती । पर इस विशाल जन-शक्ति का आवाज़ उठाने के लिए ज़रूरी नहीं है कि कड़वाहट भरा, तिक्त-शब्दावली से गुंथा-बुना सशस्त्र आंदोलन खड़ा किया जाए। इसके कार्यक्रम सुस्पष्ट हैं और इनमें नारेबाजी की जगह मर्यादा और अनुशासन है। इससे जुड़े लोगों ने पूरे देश में कई तरह की यात्राएं की है, जिससे इनका जुड़ाव सार्वदेशिक है। आप चाहें तो इसे राजनीतिक आंदोलन कह सकते हैं क्योंकि आखिरकार यह राजव्यवस्था और राजनीति से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल उठाता है, पर सत्ता को सीधे अपने हाथ में लेने का प्रयास नहीं करता है। पिछले हफ्ते इसका  जन सत्याग्रह एक मोड़ पर आकर वापस हो गया। साथ में अनेक सवाल पीछे छोड़ गया। यह बात अलग है कि इसकी आवाज़ उतने ज़ोर से नहीं सुनी गई, जितने ज़ोर से कुछ दूसरे आंदोलनों की सुन ली जाती है। यह बात हमारे लोकतंत्र, सरकारी कार्य-प्रणाली और मीडिया की समझ को भी रोखांकित करती हैं।

पिछले साल जब अन्ना-आंदोलन की लाइव कवरेज मीडिया में हो रही थी, तब थोड़ी देर के लिए महसूस हुआ कि हमारा मीडिया अब राष्ट्रीय महत्व के सवालों को उठाना चाहता है। यह गलतफहमी जल्द दूर हो गई। पिछले हफ्ते 11 अक्टूबर को महानायक अमिताभ बच्चन के जन्मदिन की कवरेज देखने से लगा कि हमारी वरीयताएं बदली नहीं हैं। न जाने क्यों मीडिया की शब्दावली का ‘फटीग फैक्टर’ इन जन्मदिनों पर लागू नहीं होता? साँप-सपेरे, जादू-टोना, प्रिंस, मटुकनाथ, सचिन, धोनी, सहवाग से लेकर राहुल महाजन और राखी सावंत तक सारे प्रयोग करके देख लिए। पर मस्ती-मसाला को लेकर मीडिया थका नहीं। बहरहाल पिछली दो अक्टूबर को ग्वालियर से तकरीबन साठ हजार लोगों का एक विशाल मर्यादित जुलूस दिल्ली की ओर चला था। इसका नाम था जन सत्याग्रह 2012। उम्मीद थी कि इस बार मीडिया की नजरे इनायत इधर भी होगी। और सरकार ने इसी खतरे को भाँपते हुए समय रहते इसे टाल दिया। 

Saturday, February 11, 2012

लोकतांत्रिक राह में असम्भव कुछ भी नहीं

अपनी चुनाव प्रक्रिया को देखें तो आशा और निराशा दोनों के दर्शन होते हैं। पिछले 60 साल के अनुभव ने इस काम को काफी सुधारा है। दो दशक पहले बूथ कैप्चरिंग चुनाव का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। चुनाव आयोग की मुस्तैदी से वह काफी कम हो गई। वोटर आईडी और ईवीएम ने भी इसमें भूमिका निभाई। गो कि इन दोनों को लेकर शिकायतें हैं। प्रचार का शोर कम हुआ है। पैसे के इस्तेमाल की मॉनीटरिंग सख्त हुई है। पार्टियों को अपराधियों से बगलगीर होने में गुरेज़ नहीं, पर जनता ने उन्हें हराना शुरू कर दिया है, जिनकी छवि ज्यादा खराब है। मतलब यह भी नहीं कि बाहुबलियों की भूमिका कम हो गई। केवल एक प्रतीकात्मक संकेत है कि जनता को यह पसंद नहीं।

प्रत्याशियों के हलफनामों का विश्लेषण करके इलेक्शन वॉच अपनी वैबसाइट पर रख देता है, जिसका इस्तेमाल मीडिया अपने ढंग से करता है। प्रत्याशियों की आय के विवरण उपलब्ध हैं। अब यह तुलना सम्भव है कि पिछले चुनाव से इस चुनाव के बीच प्रत्याशी के आय-विवरण में किस प्रकार की विसंगति है। जन प्रतिनिधि की शिक्षा से लोकतंत्र का बहुत गहरा नाता नहीं है। व्यक्ति को समझदार और जनता से जुड़ाव रखने वाला होना चाहिए। काफी पढ़े-लिखे लोग भी जन-विरोधी हो सकते हैं। कानूनों का उल्लंघन और अपराध को बचाने की शिक्षा भी इसी व्यवस्था से मिलती है। बहरहाल प्रत्याशियों से इतनी अपेक्षा रखनी चाहिए कि वह मंत्री बने तो अपनी शपथ का कागज खुद पढ़ सके और सरकारी अफसर उसके सामने फाइल रखें तो उस पर दस्तखत करने के पहले उसे पढ़कर समझ सके।

Tuesday, January 31, 2012

जनता की खामोशियों को भी पढ़िए

गणतंत्र दिवस के दो दिन बाद मणिपुर में भारी मतदान हुआ और आज शहीद दिवस पर पंजाब और उत्तराखंड मतदान करेंगे। इसके बाद उत्तर प्रदेश का दौर शुरू होगा। और फिर गोवा। राज्य छोटे हों या बड़े परीक्षा लोकतांत्रिक प्रणाली की है। पिछले 62 साल में हमने अपनी गणतांत्रिक प्रणाली को कई तरह के उतार-चढ़ाव से गुजरते देखा है। पाँच राज्यों के इन चुनावों को सामान्य राजनीतिक विजय और पराजय के रूप में देखा जा सकता है और सत्ता के बनते बिगड़ते समीकरणों के रूप में भी। सामान्यतः हमारा ध्यान 26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्वों या चुनाव के मौके पर व्यवस्था के वृहत स्वरूप पर ज्यादा जाता है। मौज-मस्ती में डूबा मीडिया भी इन मौकों पर राष्ट्रीय प्रश्नों की ओर ध्यान देता है। राष्ट्रीय और सामाजिक होने के व्यावसायिक फायदे भी इसी दौर में दिखाई पड़ते हैं। हमारी यह संवेदना वास्तविक है या पनीली है, इसका परीक्षण करने वाले टूल हमारे पास नहीं हैं और न इस किस्म की सामाजिक रिसर्च है। बहरहाल इस पिछले हफ्ते की दो-एक बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है, क्योंकि वह हमारे बुनियादी सोच से जुड़ी है।

Tuesday, December 27, 2011

किसे लगता है 'लोकतंत्र' से डर?

30 जनवरी महात्मा गांधी की 64वीं पुण्यतिथि है। पंजाब और उत्तराखंड के वोटरों को ‘शहीद दिवस’ के मौके पर अपने प्रदेशों की विधानसभाओं का चुनाव करने का मौका मिलेगा। क्या इस मौके का कोई प्रतीकात्मक अर्थ भी हो सकता है? हमारे राष्ट्रीय जीवन के सिद्धांतों और व्यवहार में काफी घालमेल है। चुनाव के दौरान सारे छद्म सिद्धांत किनारे होते हैं और सामने होता है सच, वह जैसा भी है। 28 जनवरी से 3 मार्च के बीच 36 दिनों में पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। एक तरीके से यह 2012 के लोकसभा चुनाव का क्वार्टर फाइनल मैच है। 2013 में कुछ और महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हैं, जिनसे देश की जनता का मूड पता लगेगा। उसे सेमीफाइनल कहा जा सकता है। क्योंकि वह फाइनल से ठीक पहले का जनमत संग्रह होगा। जनमत संग्रह लोकतंत्र का सबसे पवित्र शब्द है। इसी दौरान तमाम अपवित्रताओं से हमारा सामना होगा।