उत्तराखंड की
सबसे बड़ी त्रासदी है अनिश्चय। नैनीताल हाईकोर्ट ने कांग्रेस के 9 बागी विधायकों
की अर्जी खारिज करके मंगलवार को होने वाले शक्ति परीक्षण को रोचक बना दिया है। विधायकों
को उम्मीद थी कि शायद उनकी सदस्यता बहाल हो जाए। उन्हें वोट का अधिकार मिलता तो मुकाबला
एकतरफा हो जाता। अदालत के इस फैसले के बाद अस्थिरता और ज्यादा गहरी हो जाएगी। हरीश
रावत के पक्ष में यदि बहुमत विधायक वोट डाल भी देंगे तब भी यह कहना मुश्किल है कि अगले
साल चुनाव होने तक वे अपने पद पर बने रहेंगे। कांग्रेस की जिस अंदरूनी कलह के कारण
यह स्थिति पैदा हुई है, वह आसानी से खत्म होने वाली नहीं है। पहले तो शक्ति
परीक्षण में जीतना ही मुश्किल हुआ जा रहा है। पर रावत सरकार जीत भी गई तो नेतृत्व
का बने रहना मुश्किल होगा।
वर्तमान संकट का
हल निकल भी जाए, पर यह राज्य के अनिश्चय का हल नहीं होगा। यानी रावत हार भी गए तो
इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना गलत होगा कि बीजेपी की राह आसान हो जाएगी। येन-केन
प्रकारेण भाजपा सरकार बन भी गई वह कमजोर होगी। प्रदेश की जनता को राजनीति से
शिकायत है। यह प्रदेश भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अकुशलता का शिकार रहा है और कहीं से
आशा की किरण दिखाई नहीं पड़ती है। सोमवार को उत्तराखंड हाईकोर्ट का फैसला आने के
बाद दिनभर टीवी चैनल ‘हरीश रावत की जीत’ और ‘भाजपा को धक्का’ लगाते रहे। पर वस्तुतः
उत्तराखंड की राजनीति जनता के सामने पराजित-मुख खड़ी है।
आज के शक्ति
परीक्षण के बाद सुप्रीम कोर्ट को 9 विधायकों के मामले पर भी विचार करना पड़ेगा। नैनीताल
हाईकोर्ट के फैसले को बागियों ने आधे घंटे के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे
दी, जहाँ से उन्हें राहत नहीं मिली। अदालत को राष्ट्रपति शासन को लेकर भी फैसला करना है। आज दो घंटे के लिए हटने के बाद
राष्ट्रपति शासन फिर लागू हो जाएगा। राज्य का बजट विधान सभा से पास हुआ था या
नहीं, यह भी तय होगा। साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा संसद में रखे गए बजट का भविष्य
भी तय होगा। यानी इस मामले की सांविधानिक जटिलताएं जल्द नहीं सुलझेंगी। पर ज्यादा
जटिल है राज्य की राजनीति जो क्रमशः अनीति के दलदल में डूबती जा रही है। इसके कारण
भविष्य को लेकर कई तरह के अंदेशे पैदा हो रहे हैं।
यह राज्य जिस
उम्मीद से बनाया गया थी, उसपर पूरी तरह पानी फिर चुका है। यह राज्य एक आंदोलन की
देन है। पर जिस आंदोलन ने इसे बनाया, उसकी यहाँ की राजनीति में कोई भूमिका नहीं
है। यहाँ बीजेपी और कांग्रेस ही मुख्यधारा की राजनीति को चलाती हैं। पर इनका
विभाजन भी विचारधारात्मक नहीं है। पूरी राजनीति व्यक्तिगत स्वार्थों पर केंद्रित है।
इसीलिए कांग्रेस में इतनी बड़ी बगावत हुई और अचानक बड़ी संख्या में विधायक बीजेपी
के साथ खड़े हो गए। इसीलिए यह पक्की तौर पर नहीं कहा जा सकता कि कौन, कब किस पाले
में खड़ा होगा। यह बात दोनों पार्टियों के बारे में कही जा सकती है।
राज्य में पिछले
15 साल में तीन विधानसभाएं गठित हुईं हैं। राजनीतिक अस्थिरता का प्रमाण है कि यहाँ
आठ मुख्यमंत्री आ चुके हैं। हरीश रावत को आसानी से यह पद नहीं मिला था। कांग्रेस
के सबसे काबिल नेताओं में होने के बावजूद उन्हें इस पद तक आने में समय लगा था। अब
वे जीत भी गए तब भी उनका पहला मुकाबला अपनी ही पार्टी के आंतरिक विरोधियों से
होगा। बीजेपी के भीतर भी एकता नहीं है। सन 2012 के चुनाव में बीसी खंडूरी की पराजय
के पीछे पार्टी के ही एक तबके का हाथ बताया जाता था।
जन-प्रतिनिधियों का
इधर या उधर जाना पूरी तरह खेल हो गया है। कौन विधायक किसका साथ दे सकता है इसके
बारे में मीडिया आसानी से खुली चर्चा कर
पा रहा है, क्योंकि जिसके बारे में जो अनुमान हैं वे सच साबित हो रहे हैं। राज्य जिन
समीकरणों पर चर्चा चल रही है वे अब इस प्रकार हैं। 1.पीडीएफ में टूट हो सकती है। बसपा
के विधायक पाला बदल सकते हैं। 2.शायद कांग्रेस के दो या तीन विधायक और टूटें। अभी
तक सतपाल महाराज उन्हें तैयार नहीं कर पाए हैं, पर सम्भव है अंतिम क्षणों में वे
मान जाएं। यानी कांग्रेस सरकार के हारने की सम्भावनाएं अब भी बनी है। पर वह फिर भी
जीत गई तो वह कब तक गाड़ी खींचेगी पता नहीं।
मनोनीत
एंग्लो-इंडियन सदस्य आरवी गार्डनर भी वोटिंग में हिस्सा लेंगे। विधानसभा अध्यक्ष को
भी वोट देना पड़ सकता है। फिर भी मुकाबला ‘टाई’ हो सकता है। तब क्या होगा? दरअसल यह राजनीति सदन के फ्लोर से ज्यादा सदन
के बाहर है। पिछले डेढ़ महीने में दो टीवी स्टिंग सामने आ चुके हैं। पहला स्टिंग 23
मार्च को देहरादून के जॉली ग्रांट एयरपोर्ट पर किया गया था। 22 मिनट के इस स्टिंग
में मुख्यमंत्री हरीश रावत विधायकों को खरीदने आरोप लगाया गया था। इस वीडियो को
बागी कांग्रेस नेता हरक सिंह रावत ने जारी किया था। इसके आधार पर ही राज्यपाल केके
पॉल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी।
उस स्टिंग की आँच
में राज्य की राजनीति तप रही थी कि मंगलवार के फ्लोर टेस्ट के ठीक पहले एक और
स्टिंग का वीडियो सामने आ गया। इसमें भी विधायकों को ख़र्चे-पानी के नाम पर रुपए
बांटने का आरोप लगाया गया है। कहना मुश्किल है कि कितने स्टिंग राजनेताओं की जेब
में रखे हैं और मौके का इंतजार कर रहे हैं। प्राकृतिक सम्पदा का धनी यह राज्य अपने
नागरिकों को विकास के मौके दे पाने में अब तक विफल है। आबादी का बड़ा पलायन यहाँ से
होता है। प्रदेश के रोजगार दफ्तरों में करीब आठ लाख नाम दर्ज हैं, पर स्थितियाँ
सुधरती दिखाई नहीं देती हैं।
अलग राज्य बनाने
का जब आंदोलन चल रहा था, तब कहा जाता था
कि भौगोलिक परिस्थिति एवं संस्कृति मैदानी इलाकों से अलग होने की वजह से यहां का
विकास अलग प्रकार से होना चाहिए। राज्य बनने के 15 साल बाद अब शायद यह बात राज्य
के लोग भूल चुके हैं। विधानसभा के आज के फैसले से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि
राज्य की जनता अगले साल के विधानसभा चुनाव में क्या फैसला करेगी? वोटर इस घटनाक्रम को किस तरह से
देख रहा है?
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