Showing posts with label समाचार. Show all posts
Showing posts with label समाचार. Show all posts

Monday, May 31, 2010

कृपया तेज़ी के इस दौर में सावधानी भी बरतें

30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस था। 184 साल के अनुभव के साथ हिन्दी पत्रकारिता एक ढलान पर आ गई है। इस ढलान ने उसकी गति तेज़ कर दी है। चढ़ाई चढ़ते वक्त गति धीमी होती है और दम ज़्यादा लगता है। ढलान में गति ज़्यादा होती है। ताकत कम लगती है, लम्बी दूरी कम समय में पार होती है। रास्ते चढ़ाई वाले होते हैं, सपाट भी और ढालदार भी। चलने वाले को उन्हें पार करना होता है। तीनों रास्तों में बरती जाने वाली सावधानियाँ ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। ढलान में खतरा बाहन के भटकने या रास्ते से उछलकर टकराने का होता है। हिन्दी मीडिया को कुछ सावधानियों की ज़रूरत है।

हिन्दी मीडिया की प्रगति प्रशंसनीय है। इलाके में साक्षरता बढ़ रही है और गतिशीलता भी। यानी लोग एक जगह छोड़कर दूसरी जगह जा रहे हैं। मैं नहीं जानता कि ऐसे समाजशास्त्रीय अध्ययन हुए हैं या नहीं जिनसे पता लगे कि हिन्दी के अखबारों ने जीवन पर क्या प्रभाव डाला, पर ऐसे अध्ययनों की ज़रूरत है। मोटे तौर पर कमज़ोर तबकों को ताकत देने में कोई न कोई भूमिका अखबार की भी है। शायद यह बदलाव की एक प्रक्रिया है, जिसमें अखबार भी भागीदार हैं। अखबार, टीवी, रेडियो, मोबाइल फोन और सिनेमा हमारा सहज मासमीडिया है। इंटरनेट अभी नहीं है, शायद आने वाले समय में हो।

हिन्दी के अखबारों के सामने अपनी सामग्री को परिभाषित करने, टेक्नॉलजी और अपने संगठन को सुसंगत करने और पाठक की माँग को समझने की ज़रूरत है। करीब-करीब ऐसी ही ज़रूरत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की है। दोनों में एक फर्क है। हिन्दी के ज्यादातर अखबार स्थानीय या किसी एक इलाके के थे। वे दूसरे इलाकों में गए। इसके विपरीत टेलीविज़न ने राष्ट्रीय कवरेज से शुरूआत की। वह अब लोकल बाज़ार खोज रहा है। दोनो स्थितियों में महत्वपूर्ण है हमारा दूर-दराज़ का इलाका। पिछले साल सितम्बर में आंध्र के मुख्यमंत्री वाईएसआर के हेलिकॉप्टर की दुर्घटना की कवरेज करने सबसे आगे कोई तेलुगु चैनल आया। हाल में दंतेवाड़ा में सीआरपी के दस्तों पर नक्सली हमले के दौरान साधना चैनल और किसी लोकल चैनल ने कमान सम्हाली। मंगलूर में विमान दुर्घटना की कवरेज के लिए कोई कन्नड़ चैनल मौज़ूद था। राष्ट्रीय चैनलों ने इन लोकल चैनलों की फुटेज का इस्तेमाल किया। इस फुटेज को लोकल चैनलों ने वॉटरमार्क करके पब्लिसिटी हासिल की।

हमारे पास सूचना संकलन का आधार ढाँचा बन रहा है। टेकनॉलजी सस्ती हो रही है। पूँजी भी आ रही है। नए पत्रकार, कैमरामैन, टेक्नीशियन बन रहे हैं। पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। तेज विस्तार के कारण हम कंटेंट के बारे में ज्यादा सोच नहीं पाए हैं। सोचा भी है तो उसे लागू करने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा गया है।
हाल में एक खबर थी किसी लड़की ने दहेज लोभी लड़के वालों का स्टिंग ऑपरेशन करके शादी तय होने के पहले ही उन्हें पकड़वा दिया। स्टिंग ऑपरेशन ने टीवी की ताकत बढ़ा दी। पर इसने कवरेज के विद्रूपण की राह भी खोल दी। दिल्ली में उमा खुराना मामले में यह नज़र आया। अचानक स्टिंग जर्नलिज्म की ट्रेनिंग देने वाले संस्थान खुलने लगे। इसका इस्तेमाल ब्लैक मेलिंग के लिए भी होने लगा। यह जल्दबाज़ी की वजह से हुआ। मोबाइल फोन के कैमरा ने क्रांति कर दी। पर अचानक एमएमएस की भरमार हो गई।

मीडिया दुधारी तलवार है। इसे ज्ञान और सूचना का वाहक और अभिव्यक्ति का जिम्मेदार माध्यम बनाए रखने के लिए अपने भीतर के मिकेनिज्म को भी समझना चाहिए। यह काम दो स्तर पर होगा। एक ओर पत्रकार संगठन आपस में मिलकर इसपर विचार करें और दूसरी ओर प्रत्येक संगठन भीतरी जाँच चौकियां बनाए। संविधान स्वीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें असीमित अधिकार नहीं देती। ज़रूरत इस बात की है कि हम सामान्य पत्रकार को उन मर्यादाओं की जानकारी दें, जिनका पालन उसे करना है। उसे पता होना चाहिए कि वह सार्वजनिक हित मे काम करता है, व्यक्तिगत हित में नहीं। पत्रकारों को सामान्य नागरिक की प्राइवेसी के बारे में भी जागरूक होना चाहे। इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने वालों को यह बात खासकर समझनी होगी।

हिन्दी अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों में से ज्यादातर अब पत्रकारिता संस्थानों से ट्रेनिंग लेकर आ रहे हैं। पत्रकारिता संस्थानों में सभी का स्तर समान नहीं है। काफी बड़ी संख्या में ये संस्थान निम्नस्तरीय और सिर्फ कमाई के अड्डे हैं। जो भी हैं उन्हें अखबारों की ज़रूरतों के अनुसार व्यावहारिक प्रशिक्षण देना चाहिए। उनका ज्यादातर प्रशिक्षण सैद्धांतिक है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि नए पत्रकार भाषा को लेकर संज़ीदा नहीं हैं। उन्हें इमला बोला जाए तो एक पैरा मे दस-दस गलतियाँ निकलतीं हैं। वे लोग अखबार में जाकर इन्हीं गलतियों को दोहराते हैं। एक ओर शाम को खबरों का दबाव ऊपर से ज्यादातर खबरों में भ्रष्ट भाषा। तीसरे ठीक से चेक करने की व्यवस्था की अनुपस्थिति। परिणाम आप किसी भी हिन्दी अखबार में छप रही गम्भीर गलतियों के रूप मे देख सकते हैं।

एक और जगह है जहाँ ध्यान देने की ज़रूरत है। वह है खबरों का चयन। ज्यादातर अखबार अब अपनी खबरों का सिलेक्शन या तो नेट से करते हैं या चैनलों से। चूंकि यहाँ रेडीमेड माल मिलता है इसलिए यह आसान लगता है। पर यह गलत है। एक तो यह नैतिक रूप से गलत है। किसी नेट साइट की पूरी खबर को उड़ाना चोरी है। दूसरे वह आपकी खबर नहीं है, इसलिए उसका वेरिफकेशन नहीं होता। पिछले दिनों एक हिन्दी अखबार ने दूसरों को पकड़ने के लिए अपने यहाँ फर्जी खबरें लगा दीं। नकलचियों ने उन्हें भी उठा लिया और अपनी थू-थू कराई। अखबार के सीनियर लोग खुद अपनी खबरें चुनें तो उनके प्रेजेंटेशन मे अपनापन हो। नकल करने पर सबका प्रेजेंटेशन एक सा होता है। वैसे भी बड़े-बड़े अखबारों को शोभा नहीं देता कि वे चोरी की खबरें छापें। आपके पास पैसा है। अपने स्रोत तैयार करें।

चैनलों से खबर उड़ाने या प्रेजेंटेशन का तरीका चुराने का असर अखबारों के लगातार सनसनीखेज़ होने के रूप में दिखाई पड़ रहा है। चैनल मामूली सी खबर को भी जबतक अच्छी तरह मसालों से टॉपअप नहीं करते उन्हें मज़ा नहीं आता। वे आपसी प्रतियोगिता में ऐसे घिरे हैं कि सनसनी छोड़ सादगी से खबरें दिखाने की सलाह देना वहाँ सबसे बड़ा पाप है। उसी सनसनी को अखबार पकड़ना चाहते हैं। यह शॉर्टकट उन्हें कहीं नहीं ले जाएगा। उनके पास इतनी अच्छी खबरें हैं कि वे प्रभावशाली अखबार निकाल सकते हैं, पर अच्छी भली जानकारी का मलीदा बना देते हैं।

अखबार शायद रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात हम सबको समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह है कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाएं, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया है। हिन्दी इलाके के सामाजिक–सांस्कृतिक जीवन में इतनी रंगीन खबरें हैं कि उन्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। जो बिकेगा वही देंगे का तर्क कमज़ोर लोगों का है। बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। इसलिए हम चटनी का रास्ता पकड़ते हैं। हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है। उसे नकल के नहीं अकल के रास्ते पर चलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि इस ढलान के बाद एक सपाट रास्ता आएगा और शायद फिर चढ़ाई आए। उसके पहले अपनी कुशलता और रचनात्मकता को ऊँचाई तक पहुँचाना चाहिए।