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Wednesday, December 28, 2022

चीन के करीब क्यों जाना चाहता है नेपाल


भारत-नेपाल रिश्ते-3

ताकतवर पड़ोसी देश होने के कारण नेपाल का चीन के साथ अच्छे रिश्ते बनाना स्वाभाविक बात है, पर इन रिश्तों के पीछे केवल पारंपरिक-व्यवस्था नहीं है, बल्कि आधुनिक जरूरतें हैं. दोनों के बीच 1 अगस्त 1955 को राजनयिक रिश्ते की बुनियाद रखी गई. दोनों देशों के बीच 1,414 किलोमीटर लंबी सीमा है. यह सीमा ऊँचे और बर्फ़ीले पहाड़ों से घिरी हुई है. हिमालय की इस लाइन में नेपाल के 16.39 फ़ीसदी इलाक़े आते हैं. शुरुआती समझ जो भी रही हो, पर नेपाल ने हाल के वर्षों में चीन को खुश करने वाले काम ही किए हैं.

21 जनवरी 2005 को नेपाल की सरकार ने दलाई लामा के प्रतिनिधि ऑफिस, जिसे तिब्बती शरणार्थी कल्याण कार्यालय के नाम से जाना जाता था, उसे बंद कर दिया. काठमांडू स्थित अमेरिकी दूतावास ने इसपर आपत्ति जताई, लेकिन नेपाल फ़ैसले पर अडिग रहा. ज़हिर है कि चीन ने नेपाल के इस फ़ैसले का स्वागत किया.

युद्ध में तटस्थ

भारत के साथ रक्षा-समझौता होने के बावजूद 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय नेपाल तटस्थ रहा. उसने किसी का पक्ष लेने से इनकार कर दिया, जबकि भारत चाहता था कि भारत के साथ नेपाल खुलकर आए. नेपाल की इस तटस्थता का एक परिचय 1969 में देखने को मिला, जब नेपाली प्रधानमंत्री कीर्ति निधि बिष्ट ने धमकी दी कि यदि भारत ने नेपाल की उत्तरी सीमा पर तैनात अपने सैनिकों को नहीं हटाया, तो मैं अनशन करूँगा.

इसके बाद भारत ने अपनी सेना हटाई, जबकि 1962 के युद्ध के समय भारतीय सेना वहाँ तैनात थी. भारत-नेपाल के बीच 1950 की संधि के अंतर्गत इसकी व्यवस्था है. नेपाल ऐसा करके अपनी तटस्थता को साबित करना चाहता था और शायद चीन को भरोसा दिलाना चाहता था कि हम आपके खिलाफ भारत के साथ नहीं हैं. 2017 में जब डोकलाम-विवाद खड़ा हुआ, तब सवाल था कि क्या नेपाल अपनी तटस्थता को लंबे समय तक बनाए रख सकेगा.  

2015 में नेपाल जब संविधान लागू कर रहा था, तब भारत के तत्कालीन विदेश सचिव एस जयशंकर नेपाल गए और संविधान की निर्माण-प्रक्रिया में भारत के पक्ष पर विचार करने का आग्रह उन्होंने किया. ये चिंताएं तराई में रहने वाले मधेसियों को लेकर थीं. नेपाल के संविधान में देश को धर्मनिरपेक्ष बनाने की घोषणा की गई है. इसके निहितार्थ को लेकर भी कुछ संदेह थे. 26 मई 2006 को बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था, ''नेपाल की मौलिक पहचान एक हिंदू राष्ट्र की है और इस पहचान को मिटने नहीं देना चाहिए. बीजेपी इस बात से ख़ुश नहीं होगी कि नेपाल अपनी मौलिक पहचान माओवादियों के दबाव में खो दे.''

नेपाल के राजनेताओं को इस बात पर आपत्ति है कि भारत उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है. बहरहाल संविधान बन गया और वहाँ सरकार भी बन गई. दूसरी तरफ उन्हीं दिनों यानी 2015 में भारत ने अघोषित नाकेबंदी शुरू कर दी. नेपाल में पेट्रोल और डीजल का संकट पैदा हो गया. इसपर नेपाल ने चीन के ट्रांज़िट रूट को खोलने की घोषणाएं कीं. पर वह मुश्किल काम है. नेपाल में चीन की राजदूत के व्यवहार से यह भी स्पष्ट था कि इन राजनेताओं को चीनी हस्तक्षेप पर आपत्ति नहीं थी. नेपाल को यह भी लगता है कि भारत उसकी निर्भरता का फ़ायदा उठाता है, इसलिए चीन के साथ ट्रांज़िट रूट को और मज़बूत करने की ज़रूरत है.

हिरण्य लाल श्रेष्ठ ने अपनी किताब '60 ईयर्स ऑफ़ डायनैमिक पार्टनरशिप' में लिखा है, ''नेपाल ने चीन के साथ 15 अक्तूबर 1961 को दोनों देशों के बीच रोड लिंक बनाने के लिए एक समझौता किया. इसके तहत काठमांडू से खासा तक अरनिको राजमार्ग बनाने की बात हुई. इस समझौते का भारत समेत कई पश्चिमी देशों ने भी विरोध किया. समझौते के हिसाब से चीन ने अरनिको हाइवे बनाया और इसे 1967 में खोला गया. कहा जाता है कि इस सड़क का निर्माण चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने किया. यह भारत से निर्भरता कम करने की शुरुआत थी.''

इस हाइवे को दुनिया की सबसे ख़तरनाक रोड कहा जाता है. भूस्खलन यहाँ लगातार होता है और अक्सर यह सड़क बंद रहती है. नेपाल इसी रूट के ज़रिए चीन से कारोबार करता है, लेकिन यह बहुत ही मुश्किल है. यहाँ भारी बारिश होती है जिससे, भूस्खलन यहाँ आम बात है. 112.83 किलोमीटर लंबी इस सड़क के दोनों तरफ खड़े ढाल हैं और कहा जाता है कि इस पर गाड़ी चलाना जान जोखिम में डालने जैसा है. यह पुराने ज़माने में याकों के आवागमन का मार्ग था. चीन-नेपाल मैत्री सेतु पर यह सड़क चीन के राजमार्ग 318 से मिलती है, जो ल्हासा तक ले जाती है. उसके बाद शंघाई तक जाने वाली सड़क है.

भारत के बाद नेपाल का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर चीन है. हालाँकि इसके बावजूद कारोबार का आकार बहुत छोटा है. नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2017-18 में नेपाल ने चीन से कुल 2.3 करोड़ डॉलर का निर्यात किया. इसी अवधि में नेपाल ने चीन से डेढ़ अरब डॉलर का आयात किया. नेपाल का चीन से कारोबार घाटा लगातार बढ़ रहा है.

Monday, December 26, 2022

सवालों के घेरे के बीच प्रचंड फिर बने नेपाल के प्रधानमंत्री

 

शपथ लेते प्रचंड

नेपाल-भारत रिश्ते-1

नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी केंद्र) के नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व में अंततः नेपाल में सरकार बन गई. इसे नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) का समर्थन प्राप्त है. सरकार बनाने के समझौते के अनुसार पहले ढाई साल प्रचंड प्रधानमंत्री बनेंगे और आखिरी ढाई साल एमाले के नेता केपी शर्मा ओली. नई सरकार में प्रधानमंत्री के साथ तीन उप प्रधानमंत्री हैं. प्रचंड  ने नेपाल में राजशाही के ख़िलाफ़ एक दशक लंबा हिंसक विद्रोह का नेतृत्व किया था.

रविवार को ओली की पार्टी एमाले, प्रचंड की माओवादी सेंटर, राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, जनमत पार्टी, जनता समाजवादी पार्टी और नागरिक उन्मुक्ति पार्टी की बैठक हुई थी. इसी बैठक में फ़ैसला हुआ था कि पाँच साल के कार्यकाल में पहले ढाई साल प्रचंड प्रधानमंत्री रहेंगे और बाद के ढाई साल ओली पीएम बनेंगे. अभी तक प्रचंड की छवि जुझारू और गैर-परंपरावादी नेता की रही है, पर अब वह छवि बदली है. इस बार शपथ लेते समय उन्होंने नेपाल का परंपरागत दरबारी परिधान दौरा सुरुवाल पहना हुआ था, जो उनके बदले मिजाज को बता रहा है. 

प्रचंड के समर्थन में 169 सांसद बताए गए हैं. इनमें 78 ओली की पार्टी के हैं, 32 प्रचंड की पार्टी के, 20 राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी के,  12 जनता समाजवादी पार्टी से, छह जनमत पार्टी और चार नागरिक उन्मुक्ति पार्टी से हैं. 14 राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी से हैं. हालांकि यह पार्टी फौरन सरकार में शामिल नहीं हो रही है, पर समर्थन देगी. निर्दलीय प्रभु शाह, किरण कुमार शाह और अमरेश कुमार सिंह का भी सरकार को समर्थन मिलेगा.

ओली की जीत

पर्यवेक्षक मानते हैं कि यह केपी शर्मा ओली की जीत और नेपाल कांग्रेस के नेता देउबा की हार है. ओली ने प्रचंड को नेपाल कांग्रेस के पाले से बाहर निकाल लिया है. चूंकि उनके पास ज्यादा सांसद हैं, इसलिए उनके ज्यादा समर्थक सरकार में होंगे. राष्ट्रपति और स्पीकर के पद पर भी उनका दावा होगा.

बाक़ी जो राजनीतिक नियुक्तियां होंगी, उन पर भी उनकी चलेगी. राजदूतों की नियुक्ति में भी ओली की चलेगी. ढाई साल बाद प्रचंड आनाकानी करेंगे, तो ओली सरकार गिराकर किसी दूसरे का समर्थन कर देंगे. चूंकि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ फिर से एकसाथ आ गई हैं, इसलिए चीन की भी चलेगी.

अस्थिरता को निमंत्रण

प्रचंड भले प्रधानमंत्री बन गए हैं लेकिन कहा जा रहा है कि वह स्थिर सरकार देने में कामयाब नहीं रहेंगे. 2021 में नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में प्रचंड और अन्य तीन पार्टियों का एक गठबंधन बना था. नेपाल के अंग्रेज़ी अख़बार काठमांडू पोस्ट ने लिखा है कि यह ओली की जीत से ज्यादा नेपाली कांग्रेस की हार है.

पहले माना जा रहा था कि नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ही प्रधानमंत्री रहेंगे लेकिन प्रचंड ने ऐन मौक़े पर पाला बदल लिया. प्रचंड चाहते थे कि नेपाली कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री बनाए लेकिन उनकी मांग नहीं मानी गई थी. जून 2021 में प्रचंड के समर्थन से ही देउबा प्रधानमंत्री बने थे.

Monday, January 11, 2021

नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी विभाजन की ओर


नेपाल की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर पिछले कुछ महीनों से चला आ रहा टकराव अब खुलकर सामने आ गया है। संसद भंग करके नए चुनावों की तारीखों की घोषणा होने के बाद दो तरह की गतिविधियाँ तेज हो गई हैं। पहली पहल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से हुई है, जिसके तहत एक टीम ने नेपाल जाकर सम्बद्ध पक्षों से मुलाकात की है। दूसरी तरफ पार्टी के दोनों धड़ों ने अपनी भावी रणनीति को लेकर विचार-विमर्श शुरू कर दिया है। नेपाल की राजनीति में इस समय तीन प्रमुख दल हैं। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी, नेपाली कांग्रेस और जनता समाजवादी पार्टी।

नेपाली संसद में कुल 275 सदस्य होते हैं। राष्ट्रपति कार्यालय की तरफ से दी गई जानकारी के मुताबिक 30 अप्रैल को पहले चरण के मतदान होंगे और दूसरे चरण का मतदान 10 मई को होगा। भारत और नेपाल के बीच पिछले कुछ वक्त से तनाव जारी था। पिछले कुछ महीनों से पार्टी दो खेमों में बंटी हुई है। एक खेमे की कमान 68 वर्षीय केपीएस ओली के हाथ में है तो दूसरे खेमे का नेतृत्व पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष व पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प दहल कमल 'प्रचंड' कर रहे हैं।

Thursday, December 31, 2020

नेपाल का संकट क्या चीन के सीधे हस्तक्षेप से सुलझ पाएगा?

 


नेपाल में गत 20 दिसंबर को संसद हो जाने के बाद से असमंजस की स्थिति है। पिछले हफ्ते ऐसा लगा था कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी किसी प्रकार का हस्तक्षेप कर रही है। वहाँ से पार्टी की एक उच्च स्तरीय टीम नेपाल का दौरा करके वापस चली गई है, पर स्थितियाँ जस की तस हैं। चीनी प्रतिनिधिमंडल ने जानने का प्रयास किया कि क्या संसद की पुनर्स्थापना संभव है। यदि संभव नहीं है, तो क्या चुनाव उन तारीखों में हो सकेंगे, जिनकी घोषणा की गई है। बुधवार 30 दिसंबर को यह टीम वापस लौट गई।

सवाल है कि क्या इस राजनीतिक संकट का समाधान चीन कर पाएगा? इस बीच खबर है कि नेपाली विदेशमंत्री प्रदीप ग्यावली भारत और नेपाल के बीच बने संयुक्त आयोग की बैठक में भाग लेने के लिए जनवरी में भारत आएंगे। अभी इसकी तारीख तय नहीं है। यह यात्रा औपचारिक है, पर संभव है कि इस दौरान कुछ महत्वपूर्ण बातें हों।

Monday, November 30, 2020

नेपाल में भारतीय पहल से घबराया चीन

प्रधानमंत्री ओली के साथ चीन के रक्षामंत्री

लगता है कि भारत ने नेपाल के साथ रिश्तों को सुधारने की जो कोशिश की है उसे लेकर चीन में किसी किस्म की चिंता जन्म ले रही है। रविवार 29 नवंबर को चीन के रक्षामंत्री वेई फेंगही नेपाल के एक दिन के दौरे पर आए। यह दौरा
अचानक ही बना। पर इसके पीछे भारत के थल सेनाध्यक्ष और विदेश सचिव के दौरे हैं, जो इसी महीने हुए हैं। उनके आगमन के कुछ दिन पहले 24 नवंबर को चीन के तीन अधिकारियों की एक टीम काठमांडू आई थी, पर इस तैयारी को अचानक हुई गतिविधि ही माना जाएगा। उन्होंने इस दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली, जो रक्षामंत्री भी हैं और राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी तथा नेपाली सेना के प्रमुख पूर्ण चंद्र थापा से मुलाकात की और शाम को यहाँ से पाकिस्तान रवाना हो गए।

इस दौरान चीन-नेपाल रिश्तों को लेकर बातें हुईं और कोरोना के कारण रुके हुए कार्यक्रमों को फिर से शुरू करने पर सहमति बनी। इनमें ट्रेनिंग और छात्रों के आदान-प्रदान का कार्यक्रम तथा कुछ शस्त्रास्त्र की आपूर्ति शामिल है। पर जिस तरह से यह यात्रा हुई, उससे लगता है कि कोई और महत्वपूर्ण बात इसके पीछे थी।

Friday, October 23, 2020

रॉ चीफ की काठमांडू यात्रा को लेकर नेपाल में चिमगोइयाँ

भारत के थल सेनाध्यक्ष एमएम नरवणे की अगले महीने होने वाली नेपाल यात्रा के पहले रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के प्रमुख सामंत गोयल की काठमांडू यात्रा को लेकर नेपाली मीडिया में कई तरह की चर्चाएं हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली से भी मुलाकात की है, जिसे लेकर तीन पूर्व प्रधानमंत्रियों और उनकी अपनी पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने आलोचना की है। आलोचना इस बात को लेकर नहीं है कि उन्होंने रॉ चीफ से मुलाकात की, बल्कि इसलिए है कि इस मुलाकात की जानकारी उन्हें नहीं दी गई।

रॉ चीफ की इस यात्रा के बारे में न तो नेपाल सरकार ने कोई विवरण दिया है और न भारत सरकार ने। पिछले दिनों जब खबर आई थी कि भारत के सेनाध्यक्ष नेपाल जाएंगे, तब ऐसा लगा था कि दोनों देशों के रिश्तों में जो ठहराव आ गया है, उसे दूर करने के प्रयास हो रहे हैं। रॉ के चीफ की यात्रा उसकी तैयारी के सिलसिले में ही है। पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री ओली ने अपनी कैबिनेट में जब एक छोटा सा बदलाव किया, तब इस बात का संकेत मिला था कि भारत के साथ रिश्तों में भी बदलाव आ रहा है। देश के रक्षामंत्री ईश्वर पोखरेल को उनके पद से हटाकर नेपाल ने रिश्तों की कड़वाहट को दूर करने का इशारा किया था। पिछले कुछ महीनों में भारत को लेकर पोखरेल ने बहुत कड़वी बातें कही थीं।

Monday, July 13, 2020

संकट में ओली और असमंजस में नेपाल


नेपाल का राजनीतिक संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले तीन महीने का असमंजस निर्णायक मोड़ पर आता दिखाई पड़ रहा है, पर यह मोड़ क्या होगा, यह साफ नहीं है। तीन-चार संभावित रास्ते दिखाई पड़ रहे हैं। एक, ओली अध्यक्ष पद छोड़ दें और प्रधानमंत्री बने रहें। दूसरे वे अध्यक्ष बने रहें और प्रधानमंत्री पद छोड़ें। तीसरा रास्ता है, पार्टी का विभाजन। पार्टी में विभाजन हुआ, तब देश फिर से बहुदलीय असमंजस का शिकार हो जाएगा और नेपाली कांग्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। इन सब बातों की पृष्ठभूमि में नेपाल पर भारत और चीन के राजनीतिक प्रभाव की भी परीक्षा है। फिलहाल तो यही लगता है कि नेपाल पर चीन का प्रभाव है। इस हफ्ते भारत के निजी समाचार चैनलों पर रोक लगना भी इस बात की गवाही दे रहा है।

विदेश-नीति के मोर्चे पर प्रधानमंत्री केपीएस ओली की सरपट चाल के उलट परिणाम अब सामने आ रहे हैं। पुष्प दहल के साथ समझौता करके क्या वे अपनी सरकार बचा लेंगे? हालांकि यह बात मुश्किल लगती है, पर ऐसा हुआ भी तो यह स्थायी हल नहीं है। ओली साहब के सामने विसंगतियाँ कतार लगाए खड़ी हैं। संकट को टालने में चीनी राजदूत होऊ यांछी के हड़बड़ प्रयास भी चर्चा का विषय बने हैं। उन्होंने दोनों खेमों के नेताओं से मुलाकात करके समाधान की जो कोशिशें कीं, उससे इतना साफ हुआ कि चीन खुलकर नेपाली राजनीति में हस्तक्षेप कर रहा है। उन्होंने 3 जुलाई को राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से भी मुलाकात की, जो खुद इस टकराव में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं।

चीन-मुखी नीति को लेकर सवाल

औपचारिक शिष्टाचार के अनुसार ऐसी मुलाकातों के समय विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को भी उपस्थित रहना चाहिए, पर ऐसा हुआ नहीं। पता नहीं उन्हें जानकारी थी भी या नहीं। इसके पहले होऊ ने अप्रेल और मई में भी हस्तक्षेप करके पार्टी को विभाजन के रास्ते पर जाने से बचाया था। चीन ने भारत के विरुद्ध नेपाली राष्ट्रवाद के उभार का भी लाभ उठाया। नक्शा प्रकरण इसका उदाहरण है। ओली की चीन-मुखी विदेश नीति को लेकर भी अब सवाल उठने लगे हैं। मंगलवार को नेपाली कांग्रेस और जसपा की बैठक शेर बहादुर देउबा के निवास पर हुई, जिसमें विदेश नीति के झुकाव और लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण पर नाराजगी व्यक्त की गई।

Thursday, July 9, 2020

अपने ही बुने जाल में फँसे नेपाली प्रधानमंत्री ओली

China's Desperate Efforts To Save Nepal PM Oli May Bear Fruit, But ...

पिछले साल नवम्बर में जब सीमा के नक्शे को लेकर नेपाल में आक्रोश पैदा हुआ था, तब काफी लोगों को आश्चर्य हुआ। नेपाल तो हमारा मित्र देश है, वहाँ से ऐसी प्रतिक्रिया का आना विस्मयजनक था। वह बात आई-गई हो पाती, उसके पहले ही लद्दाख में चीनी घुसपैठ की खबरें आने लगीं। उन खबरों के साथ ही नेपाल सरकार ने फिर से सीमा विवाद को उठाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते वहाँ की संसद ने संविधान संशोधन पास करके नया नेपाली नक्शा जारी कर दिया। इस घटनाक्रम से यह जरूर स्पष्ट हुआ कि नेपाल की पीठ पर चीन का हाथ है। यह भी कि किसी योजना के तहत नेपाल सरकार ऐसी हरकतें कर रही है। प्रकारांतर से देश के सेनाध्यक्ष मनोज मुकुंद नरवणे ने इशारों-इशारों में यह बात कही भी कि नेपाल किसी के इशारे पर यह सब कर रहा है।

नक्शा प्रकरण ठंडा पड़ भी नहीं पाया था कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के विरुद्ध उनकी ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर से आवाजें उठने लगीं। उनके प्रतिस्पर्धी पुष्प दहल कमल इस अभियान में सबसे आगे हैं, जो ओली के साथ पार्टी अध्यक्ष भी हैं। यानी ओली के पास दो पद हैं। एक प्रधानमंत्री का और दूसरे पार्टी अध्यक्ष का। उनके व्यवहार को लेकर पिछले कुछ महीनों से पार्टी के भीतर हस्ताक्षर अभियान चल रहा था। संभवतः इस अभियान से जनता का ध्यान हटाने के लिए ओली ने भारत के साथ सीमा का विवाद उठाया था।

Tuesday, December 3, 2013

नेपाल में कट्टरपंथ की पराजय

नेपाल की संविधान सभा की 601 सीटों के लिए हुए चुनाव में किसी भी पार्टी को साफ बहुमत न मिल पाने के कारण संशय के बादल अब भी कायम हैं, पर इस बार सन 2008 के मुकाबले कुछ बदली हुई परिस्थितियाँ भी हैं। माओवादियों के दोनों धड़े किसी न किसी रूप में पराजित हुए हैं। पुष्प दहल कमल यानी प्रचंड की एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) तीसरे नम्बर पर रही है। वहीं उनके प्रतिस्पर्धी मोहन वैद्य किरण की भारत-विरोधी नेकपा-माओवादी और 33 अन्य दलों की चुनाव बहिष्कार घोषणा भी बेअसर रही। इसका मतलब है कि नेपाली जनमत शांतिपूर्ण तरीके से अपने लोकतंत्र को परिभाषित होते हुए देखना चाहता है। हालांकि नेपाल कांग्रेस और एमाले चाहें तो मिलकर सरकार बना सकते हैं। और अपनी मर्जी का संविधान भी तैयार कर सकते हैं। पर कोशिश होनी चाहिए कि बहु दलीय राष्ट्रीय सरकार बनाई जाए, क्योंकि देश को इस समय आम सहमति की ज़रूरत है। व्यवहारिक अर्थ में यह संसद भी है, पर वास्तव में यह संविधान सभा है। अभी इस मंच पर मतभेदों को राजनीतिक शक्ल नहीं देनी चाहिए। कोशिश होनी चाहिए कि फैसले आम राय से हों। इस बार पार्टियों ने विश्वास दिलाया है कि वे एक साल के भीतर देश को संविधान दे देंगी। यह तभी संभव है, जब वे अतिवादी रुख अख्तियार न करें।

Monday, June 4, 2012

नेपाल के आकाश पर असमंजस के मेघ

नेपाल के गणतांत्रिक लोकतंत्र का सपना अचानक टूटता नज़र आ रहा है। सारे रास्ते बन्द नहीं हुए हैं, पर मई के पहले हफ्ते में जो उम्मीदें बनी थीं, वे बिखर गई हैं। देश के पाँचवें गणतंत्र दिवस यानी 27 मई को समारोहों की झड़ी लगने के बजाय, असमंजस और अनिश्चय के बादल छाए रहे। उम्मीद थी कि उस रोज नया संविधान लागू हो जाएगा और एक नई अंतरिम सरकार चुनाव की घोषणा करेगी। ऐसा नहीं हुआ, बल्कि संविधान सभा का कार्यकाल खत्म हो गया। और एक अंतरिम प्रधानमंत्री ने नई संविधान सभा के लिए चुनाव की घोषणा कर दी। पिछले चार साल की जद्दो-जेहद और तकरीबन नौ अरब रुपए के खर्च के बाद नतीज़ा सिफर रहा। चार साल के विचार-विमर्श के बावजूद तमाम राजनीतिक शक्तियाँ सर्व-स्वीकृत संविधान बनाने में कामयाब नहीं हो पाईं हैं। यह संविधान दो साल पहले ही बन जाना चाहिए था। दो साल में काम पूरा न हो पाने पर संविधान सभा का कार्यकाल दो साल के लिए और बढ़ाया गया। इन दो साल यानी 730 दिन में संविधान सभा सिर्फ 101 दिन ही बैठक कर पाई। विडंबना यह है कि मसला बेहद मामूली जगह पर जाकर अटका। मसला यह है कि कितने प्रदेश हों और उनके नाम क्या हों, इसे लेकर आम राय नहीं बन पाई।

Monday, May 7, 2012

एक और झंझावात से गुजरता नेपाल


दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान और पाकिस्तान से लेकर बर्मा तक और मालदीव से नेपाल तक तकरीबन हर देश में राजनीतिक हलचल है। हालांकि बर्मा को भू-राजनीतिक भाषा में दक्षिण पूर्व एशिया का देश माना जाता है, पर वह अनेक कारणों से हमेशा हमारे करीब रहेगा। भारत इन सभी देशों के बीच में पड़ता है और इस इलाके का सबसे बड़ा देश है। पर हमारा महत्व केवल बड़ा देश होने तक सीमित नहीं है। इन सभी देशों की समस्याएं एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं।