रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों के लेखन का उद्देश्य वेद के गूढ़ ज्ञान को सरल करना था. कोशिश यह थी कि आम लोगों को ये बातें कहानियों के रूप में सरल भाषा में समझाई जाएँ, ताकि उन्हें उनके कर्तव्यों की शिक्षा दी जा सके.
भारतीय संस्कृति के प्राचीन सूत्रधारों ने ज्ञान
को कहानियों, अलंकारों और प्रतीकों की भाषा में लिखा. ऐसी घटनाएँ
और ऐसे पात्र हर युग में होते हैं. उनके नाम और रूप बदल जाते हैं, इसलिए इनके
गूढ़ार्थ को आधुनिक संदर्भों में भी देखने की ज़रूरत है.
तुलसी के रामचरित मानस और वाल्मीकि की रामायण
में रावण को दुष्ट व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है, जिसका वध राम ने किया. यह
कहानी प्रतीक रूप में है, जिसके पीछे व्यक्ति और समाज के दोषों से लड़ने का आह्वान
है.
हमारे पौराणिक ग्रंथों में वर्णित रावण के दस
सिरों की अनेक व्याख्याएँ हैं. मोटे तौर पर वे दस नकारात्मक प्रवृत्तियों के
प्रतीक हैं. ये प्रवृत्तियाँ हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष एवं भय. इन प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति रावण है.
रावण के पुतले का दहन इन बुराइयों को दूर करने
और अच्छाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है. एक परिभाषा से ‘नौ प्रकार के रावण’ नौ प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें रावण के दस
सिरों से समझा जा सकता है. ऐसा भी माना जाता है कि रावण का एक सिर सकारात्मक ज्ञान
का प्रतीक है, और शेष नौ नकारात्मक प्रवृत्तियों के
प्रतिनिधि.
सैकड़ों साल से रावण के पुतलों का हम दहन करते
आए हैं, क्या उसी रावण को हम आज भी मारना चाहते हैं? क्या उन्हीं प्रवृत्तियों से हम लड़ते रहेंगे? क्या
हमें उन नई प्रवृत्तियों के विरुद्ध लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए, जो आज के संदर्भ में
प्रासंगिक हैं.
रामायण बताती है कि रावण विद्वान व्यक्ति था और नीति का विशेषज्ञ, पर उसके अवगुण उसे दुष्ट व्यक्ति बनाते थे. उसके दस सिरों में केवल एक सकारात्मक ज्ञान का प्रतीक था, शेष नौ अवगुणों के. प्रश्न है आज की परिस्थितियों में हम कौन से अवगुणों से युक्त नौ रावणों को मारना चाहेंगे? ऐसे नौ रावण, जिनका मरना देश और मानवता के हित में जरूरी है?