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Thursday, July 8, 2021

असाधारण मंत्रिमंडल विस्तार


एक तरीके से यह समुद्र-मंथन जैसी गतिविधि है। प्रधानमंत्री ने झाड़-पोंछकर एकदम नई सरकार देश के सामने रख दी है।  इसे विस्तार के बजाय नवीनीकरण कहना चाहिए। अतीत में किसी मंत्रिमंडल का विस्तार इतना विस्मयकारी नहीं हुआ होगा। संख्या के लिहाज से देखें, तो करीब 45 फीसदी नए मंत्री सरकार में शामिल हुए हैं। इस मेगा-कैबिनेट विस्तार का मतलब है कि या तो सरकार अपनी छवि को लेकर चिंतित है या फिर यह इमेज-बिल्डिंग का कोई नया प्रयोग है। नए मंत्रियों के आगमन से ज्यादा विस्मयकारी है कुछ दिग्गजों का सरकार से पलायन। नरेन्द्र मोदी छोटी सरकार के हामी हैं, पर यह सरकार भारी-भरकम हो गई है। यह उनके विचार के साथ विसंगति है, पर जो भी हुआ है वह राजनीतिक कारणों से है। 

इस मंत्रिमंडल विस्तार को जातीय, भौगोलिक और क्षेत्रीय राजनीति के लिहाज से परखने और समझने में समय लगेगा, पर इतना स्पष्ट है कि इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश की आंतरिक राजनीति को संबोधित किया गया है। जिस तरीके से उत्तर प्रदेश का जातीय-रसायन इस मंत्रिपरिषद में मिलाया गया है, उससे साफ है कि न केवल विधान सभा के अगले साल होने वाले चुनाव, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए सरकार ने अभी से कमर कस ली है। दूसरी तरफ सरकार अपनी छवि को सुधारने के लिए भी कृतसंकल्प लगती है। इसलिए इसमें राजनीतिक-मसालों के अलावा विशेषज्ञता को भी शामिल किया गया है।

सरकार ने महसूस किया है कि छवि को लेकर उसे कुछ करना चाहिए। प्रशासनिक अनुभव और छवि के अलावा सामाजिक-संतुलन बल्कि देश के अलग-अलग इलाकों के माइक्रो-मैनेजमेंट की भूमिका भी इसमें दिखाई पड़ती है। कई प्रकार के फॉर्मूलों को इस विस्तार में पढ़ा जा सकता है। स्वाभाविक रूप से मंत्रिमंडल का गठन राजनीतिक गतिविधि है। इसका रिश्ता चुनाव जीतने से ही है। नए मंत्रियों में उत्तर प्रदेश से सात, महाराष्ट्र से पाँच और गुजरात और कर्नाटक से चार-चार शामिल हुए हैं। उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव हैं, जहाँ सोशल-इंजीनियरी की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने न केवल जातीय संरचना को बल्कि राज्य की भौगोलिक संरचना को भी ध्यान में रखा है। गुजरात में भी अगले साल चुनाव हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्थापित किया है कि मैं बड़े से बड़ा फैसला करने को तैयार हूँ। इस परिवर्तन से यह बात भी स्थापित हुई है कि पार्टी और सरकार के भीतर अपनी छवि को लेकर गहरा मंथन है। कुछेक महत्वपूर्ण नेताओं को छोड़ दें, तो इस बदलाव के छींटे पुरानेमंत्रियों पर पड़े हैं। उनमें रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावडेकर, हर्षवर्धन, संतोष गंगवार, रमेश पोखरियाल निशंक जैसे सीनियर नेता भी शामिल हैं। डॉ हर्षवर्धन को महामारी और खासतौर से दूसरी लहर का सामना करने में विफलता की सजा मिली है, पर अर्थव्यवस्था भी मुश्किल में है, फिर भी निर्मला सीतारमन अपनी जगह कायम हैं। 

प्रधानमंत्री ने निर्मला सीतारमन पर भरोसा जताया है। दूसरी तरफ रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावडेकर को लेकर अभी समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्यों हटे हैं। रविशंकर प्रसाद के कंधों पर इलेक्ट्रॉनिक्स-क्रांति की जिम्मेदारी थी। ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया कम्पनियों के खिलाफ मोर्चा भी उन्होंने खोला था। क्या उन्हें विफल माना गया? या उन्हें कोई दूसरी भूमिका देने की योजना है? यही बात प्रकाश जावडेकर पर लागू होती है। इस समय वे सरकार के सबसे महत्वपूर्ण प्रवक्ता माने जाते थे। जितना जबर्दस्त मंत्रिमंडल का विस्तार है, उससे ज्यादा जबर्दस्त है सरकार का संकुचन।

Sunday, October 22, 2017

क्या कहती है बाजार की चमक

दीपावली के मौके पर बाजारों में लगी भीड़ और खरीदारी को लेकर कई किस्म की बातें एक साथ सुनाई पड़ रहीं हैं। बाजार में निकलें तो लगता नहीं कि लोग अस्वाभाविक रूप से परेशान हैं। आमतौर पर जैसा मिज़ाज गुजरे वर्षों में रहा है, वैसा ही इस बार भी है। अलबत्ता टीवी चैनलों पर व्यापारियों की प्रतिक्रिया से  लगता है कि वे परेशान हैं। इस प्रतिक्रिया के राजनीतिक और प्रशासनिक निहितार्थ भी हैं। यह भी सच है कि जीडीपी ग्रोथ को इस वक्त धक्का लगा है और अर्थ-व्यवस्था बेरोजगारी के कारण दबाव में है।

अमेरिका के अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट में दिल्ली के चाँदनी चौक की एक मिठाई की दुकान के मालिक के हवाले से बड़ी सी खबर छपी है मेरे लिए इससे पहले कोई साल इतना खराब नहीं रहा। इस व्यापारी का कहना है कि जो लोग पिछले वर्षों तक एक हजार रुपया खर्च करते थे, इस साल उन्होंने 600-700 ही खर्च किए। अख़बार की रिपोर्ट का रुख उसके बाद मोदी सरकार के वायदों और जनता के मोहभंग की ओर घूम गया।

असमंजस के चौराहे पर देश

हम असमंजस के दौर में खड़े हैं। एक तरफ हम आधुनिकीकरण और विकास के हाईवे और बुलेट ट्रेनों का नेटवर्क तैयार करने की बातें कर रहे हैं और दूसरी तरफ खबरें आ रहीं हैं कि हमारा देश भुखमरी के मामले में दुनिया के 119 देशों में 100वें नम्बर पर आ गया है। जब हम देश में दीवाली मना रहे थे, तब यह खबर भी सरगर्म थी कि झारखंड में एक लड़की भात-भात कहते हुए मर गई। कोई दिन नहीं जाता जब हमें सोशल मीडिया पर सामाजिक-सांस्कृतिक क्रूरता की खबरें न मिलती हों।

हम किधर जा रहे हैं? आर्थिक विकास की राह पर या कहीं और? इसे लेकर अर्थशास्त्रियों में भी मतभेद हैं। कुछ मानते हैं कि हम सही राह पर हैं और कुछ का कहना है कि तबाही की ओर बढ़ रहे हैं। दोनों बातें सही नहीं हो सकतीं। जाहिर है कि दोनों राजनीतिक भाषा बोल रहे हैं। कुछ लोग इसे मोदी सरकार की देन बता रहे हैं और कुछ लोगों का कहना है कि हताश और पराजित राजनीति इन हथकंडों को अपनाकर वापस आने की कोशिश कर रही है। पर सच भी कहीं होगा। सच क्या है?

पब्लिक कुछ नहीं जानती

सवाल है कि पब्लिक पर्सेप्शन क्या है? जनता कैसा महसूस कर रही है? पर उससे बड़ा सवाल यह है कि इस बात का पता कैसे लगता है कि वह क्या महसूस कर रही है? पिछले साल नवम्बर में हुई नोटबंदी को लेकर काफी उत्तेजना रही। सरकार के विरोधियों ने कहा कि अर्थ-व्यवस्था तबाही की ओर जा रही है। कम से कम उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जनता की नाराजगी दिखाई नहीं पड़ी। अब जीएसटी की पेचीदगियों को लेकर व्यापारियों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वह काफी उग्र है। व्यापारी अपेक्षाकृत संगठित हैं और इसीलिए सरकार ने उनके विरोध पर ध्यान दिया है और अपनी व्यवस्था को सुधारा है। टैक्स में रियायतें भी दी हैं।

Monday, August 21, 2017

2022 के सपने क्यों?

नज़रिया: कार्यकाल 2019 में खत्म तो 2022 की बात क्यों कर रही है मोदी सरकार?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंहइमेज कॉपीरइट AFP
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी जब जीतकर आई थी, तब उसने 'अच्छे दिन' लाने के लिए पाँच साल माँगे थे. तीन साल गुजर गए हैं और सरकार के पास ऐसी कोई 'चमत्कारिक उपलब्धि' नहीं है, जिसे वह पेश कर सके. पर बड़ी 'एंटी इनकंबैंसी' भी नहीं है. इसी वजह से सरकार भविष्य की ग़ुलाबी तस्वीर खींचने की कोशिश कर रही है.
यह साल बारहवीं पंचवर्षीय योजना का आख़िरी साल था. पिछली सरकार ने इस साल 10 फ़ीसदी आर्थिक विकास दर हासिल करने का लक्ष्य रखा था. वह लक्ष्य तो दूर, पंचवर्षीय योजनाओं की कहानी का समापन भी इस साल हो गया.
अब भारतीय जनता पार्टी ने 'संकल्प से सिद्धि' कार्यक्रम बनाया है, जिससे एक नए किस्म की सांस्कृतिक पंचवर्षीय योजना का आग़ाज़ हुआ है.
नज़रिया: बीजेपी को क्यों लगता है कि जीत जाएगी 2019?
मोदी और शाह: ज़बानें दो, मक़सद एक
'संकल्प से सिद्धि' का रूपक है- 1942 की अगस्त क्रांति से लेकर 15 अगस्त 1947 तक स्वतंत्रता प्राप्ति के पाँच साल की अवधि का. रोचक बात यह है कि बीजेपी ने कांग्रेस से यह रूपक छीनकर उसे अपने सपने के रूप में जनता के सामने पेश कर दिया है. सन 2022 में भारतीय स्वतंत्रता के 75 साल पूरे हो रहे हैं और बीजेपी उसे भुनाना चाहती है.

पाँच साल लंबा सपना

मोदी सरकार ने ख़ूबसूरती के साथ देश की जनता को पाँच साल लंबा एक नया स्वप्न दिया है. पिछले साल के बजट में वित्तमंत्री ने 2022 तक भारत के किसानों की आय दोगुनी करने का संकल्प किया था. उस संकल्प से जुड़े कार्यक्रमों की घोषणा भी की गई है.
बीजपी की रैलीइमेज कॉपीरइट Getty Images
सवाल है कि क्या 2022 का स्वप्न 2019 की बाधा पार करने के लिए है या 'अच्छे दिन' नहीं ला पाने के कारण पैदा हुए असमंजस से बचने की कोशिश है? सवाल यह भी है कि क्या जनता उनके सपनों को देखकर मग्न होती रहेगी, उनसे कुछ पूछेगी नहीं?
मोदी सरकार देश के मध्य वर्ग और ख़ासतौर से नौजवानों के सपनों के सहारे जीतकर आई थी. उनमें आईटी क्रांति के नए 'टेकी' थे, अमेरिका में काम करने वाले एनआरआई और दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद और मुम्बई के नए प्रोफ़ेशनल, काम-काजी लड़कियाँ और गृहणियाँ भी.
पिछले तीन साल में बीजेपी का हिंदू राष्ट्रवाद भी उभर कर सामने आया है. देखना होगा कि गाँवों और कस्बों के अपवार्ड मूविंग नौजवान को अब भी उनपर भरोसा है या नहीं.

बीबीसी हिंदी डॉट कॉम पर पढ़ें पूरा आलेख

Saturday, May 9, 2015

‘दस’ बनाम ‘एक’ साल

 मई 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का एक साल पूरा होने पर 'चार्जशीट' जारी की थी। एनडीए का कहना था कि एक साल के शासन में यूपीए सरकार ने जितना नुक़सान लोकतांत्रिक संस्थाओं को पहुँचाया है, उतना नुक़सान इमरजेंसी को छोड़कर किसी शासन काल में नहीं हुआ। एनडीए ने उसे 'अकर्मण्यता और कुशासन का एक वर्ष' क़रार दिया था। सरकार ने अपनी तारीफ के पुल बाँधे और समारोह भी किया, जिसमें उसके मुख्य सहयोगी वाम दलों ने हिस्सा नहीं लिया।

पिछले दस साल में केंद्र सरकार को लेकर तारीफ के सालाना पुलों और आरोप पत्रों की एक नई राजनीति चालू हुई है। मोदी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है। एक साल में मंत्रालयों ने कितना काम किया, इसे लेकर प्रजेंटेशन तैयार हो रहे हैं। काफी स्टेशनरी और मीडिया फुटेज इस पर लगेगी। इसके समांतर आरोप पत्रों को भी पर्याप्त फुटेज मिलेगी। सरकारों की फज़ीहत में मीडिया को मज़ा आता है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह फिर से सुनाई पड़ेंगे। दूसरी ओर काला धन, महंगाई, रोज़गार और किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित कांग्रेस साहित्य तैयार हो रहा है। सरकारी उम्मीदों के हिंडोले हल्के पड़ रहे हैं। मोदी सरकर के लिए मुश्किल वक्त है, पर संकट का नहीं। उसके हाथ में चार साल हैं। यूपीए के दस साल की निराशा के मुकाबले एक साल की हताशा ऐसी बुरी भी नहीं।

Monday, February 23, 2015

अब होगी मोदी सरकार की अग्निपरीक्षा

बजट सत्र में मोदी सरकार की अग्निपरीक्षा

  • 56 मिनट पहले
पिछले कुछ महीनों से लगातार सफलता के शिखर पर पैर जमाकर खड़ी नरेंद्र मोदी सरकार के सामने सोमवार से शुरू हो रहा संसद का बजट सत्र बड़ी चुनौती साबित होगा.
संसद से सड़क तक की राजनीति, देश के आर्थिक स्वास्थ्य और प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर अनेक गंभीर सवालों के जवाब सरकार को देने हैं.
पिछले साल जुलाई में पेश किए गए रेल और आम बजट पिछली सरकार के बजटों की निरंतरता से जुड़े थे.
देखना होगा कि वित्त मंत्री का जोर राजकोषीय घाटे को कम करने पर है या वो सरकारी खर्च बढ़ाकर सामाजिक विकास को बढ़ावा देंगे.

पढ़ें, रिपोर्ट विस्तार से

यह मोदी सरकार के हनीमून की समाप्ति का सत्र होगा.
सत्र के ठीक पहले सरकारी दफ्तरों से महत्वपूर्ण दस्तावेजों की चोरी के मामले ने देश की प्रशासनिक-आर्थिक व्यवस्था को लेकर गम्भीर सवाल खड़े किए हैं. इसकी गूँज इस सत्र में सुनाई पड़ेगी.
संसदीय कर्म के लिहाज से भी यह महत्वपूर्ण और लम्बा सत्र है. दो चरणों में यह 8 मई तक चलेगा.
तब तक संसद के बाहर सम्भवतः कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व परिवर्तन और मोदी सरकार के कामकाज का पहले साल का अंतिम सप्ताह शुरू होगा.

नए भारत की कहानी

मध्यवर्ग की दिलचस्पी आयकर छूट को लेकर होती है. क्या बजट में ऐसी नीतिगत घोषणाएं होंगी, जिनसे इस साल आर्थिक संवृद्धि की गति तेज होगी?

Monday, December 22, 2014

कट्टरता का जवाब है वैचारिक समझदारी


आज के इंडियन एक्सप्रेस के दो आइटम ध्यान खींचने वाले हैं। अखबार के एक्सप्रेस अड्डा कार्यक्रम में अमर्त्य सेन ने नरेंद्र मोदी के साथ अपने मतभेदों का जिक्र करते हुए यह भी कहा कि मोदी ने इस उम्मीद को कायम किया कि बहुत कुछ हो भी सकता है। उन्होंने मोदी के शौचालय कार्यक्रम की प्रशंसा की और यह भी माना कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने दूसरे कार्यकाल में काम करके दिखा नहीं पाए। आज के एक्सप्रेस ने गोवा के एक कार्यक्रम से सुषमा स्वराज के एक वक्तव्य को उधृत किया है, जिसमें स्वराज ने उदारता और सहिष्णुता के रास्ते को उचित बताया है। हार्डकोर हिन्दुत्व से जुड़े बयानों के बीच सुषमा स्वराज का यह बयान आश्वस्तिकारक है। आज के एक्सप्रेस में पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर का लेख भी कुछ बुनियादी सवाल उठाता है। एक्सप्रेस में पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री खुरशीद महमूद कसूरी का इंटरव्यू भी पढ़ने लायक है, जिसमें उन्होंने ट्रैक टू की बातचीत को उपयोगी बताया है। 


Saturday, December 13, 2014

‘आदर्श’ राजनीति के इंतज़ार में गाँव

बदलाव लाने का एक तरीका होता है चेंज लीडर्स तैयार करो। ऐसे व्यक्तियों और संस्थाओं को बनाओ, जो दूसरों को प्रेरित करें। इस सिद्धांत पर हमारे देश में आदर्शों के ढेर लग गए हैं। आदर्श विद्यालय, आदर्श चिकित्सालय, आदर्श रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन से लेकर आदर्श ग्राम तक। सैद्धांतिक रूप से यह उपयोगी धारणा है, बशर्ते इसे लागू करने का कोई आदर्श सिद्धांत हो। विकास की वास्तविक समस्या अच्छी नीतियों को खोजने की नहीं, राजनीतिक प्रक्रिया को खोजने की है। राजनीति सही है, तो सही नीतियाँ अपने आप बनेंगी। खराब संस्थाओं के दुष्चक्र को तोड़ने का एक रास्ता है आदर्श संस्थाओं को तैयार करना। कुछ दशक पहले अमेरिकी अर्थशास्त्री पॉल रोमर ने व्यवस्थाओं को ठीक करने का एक समाधान सुझाया यदि आप अपना देश नहीं चला सकते तो उसे किसी दूसरे को सब कॉण्ट्रैक्ट कर दीजिए। उन्होंने अपनी अवधारणा को नाम दिया चार्टर सिटीज़। देश अपने यहाँ खाली ज़मीन विदेशी ताकत को सौंप दें, जो नया शहर बसाए और अच्छी संस्थाएं बनाए। एकदम बुनियाद से शुरू करने पर अच्छे ग्राउंड रूल भी बनेंगे।

हमें आदर्श गाँव और आदर्श विद्यालय क्यों चाहिए? क्योंकि सामान्य तरीके से गाँवों का विकास नहीं होता। वे डराने लगे हैं। पहले यह देखना होगा कि क्या गाँव डराते हैं? नरेंद्र मोदी की सरकार ने पहले 100 स्मार्ट सिटीज़ की अवधारणा दी और अब आदर्श ग्राम योजना दी है। बदलाव लाने का आइडिया अच्छा है बशर्ते वह लागू हो। इस साल जुलाई में आंध्र प्रदेश से खबर मिली थी कि शामीरपेट पुलिस ने एक मुर्गी फार्म पर छापा मारकर रेव पार्टी का भंडाफोड किया है। मुर्गी फार्म पर मुर्गियाँ नहीं थीं। अलबत्ता कुछ  नौजवानों के सामने औरतें उरियाँ (नग्न) रक़्स कर रही थीं। इस रेव पार्टी से पुलिस ने 14 नौजवानों को गिरफ्तार किया। शामीरपेट हैदराबाद और सिकंदराबाद के जुड़वाँ शहरों से 25 किमी दूर बसा शहर है। यह शहर कभी गाँव होता था। समाजशास्त्री और साहित्यकार श्यामाचरण दुबे ने इस गाँव में पचास के दशक में उस्मानिया विवि के तत्वावधान में एक सामाजिक अध्ययन किया था। उसके आधार पर उन्होंने अपनी मशहूर पुस्तक इंडियन विलेज लिखी थी। उस किताब के अंतिम वाक्यों में उन्होंने लिखा, कहा नहीं जा सकता कि शताब्दी के अंत तक शामीरपेट की नियति क्या होगी। संभव है वह विकराल गति से बढ़ते महानगर का अर्ध-ग्रामीण अंतः क्षेत्र बन जाए...। सन 2014 में उनकी बात सच लगती है।

गाँव को लेकर हमारी धारणाओं पर अक्सर भावुकता का पानी चढ़ा रहता है। अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है जैसी बातें कवि सम्मेलनों में अच्छी लगती हैं। किसी गाँव में जाकर देखें तो कहानी दूसरी मिलेगी। गाँव माने असुविधा। महात्मा गांधी का कहना था, भारत का भविष्य गाँवों में छिपा है। क्या बदहाली और बेचारगी को भारत का भविष्य मान लें? गाँव केवल छोटी सी भौगोलिक इकाई नहीं है। हजारों साल की परम्परा से वह हमारे लोक-मत, लोक-जीवन और लोक-संस्कृति की बुनियाद है। सामाजिक विचार का सबसे प्रभावशाली मंच। पर ग्राम समुदाय स्थिर और परिवर्तन-शून्य नहीं है। वह उसमें हमारे सामाजिक अंतर्विरोध भी झलकते हैं। हमारा लोकतंत्र पश्चिम से आयातित है। अलबत्ता 73 वे संविधान संशोधन के बाद जिस पंचायत राज व्यवस्था को अपने ऊपर लागू करने का फैसला किया, उसमें परम्परागत सामाजिक परिकल्पना भी शामिल थी, जो व्यवहारतः लागू हो नहीं पाई है।

Friday, December 5, 2014

सहमे विपक्ष को साध्वी का सहारा

डूबते विपक्ष के लिए साध्वी बनी तिनका

  • 2 घंटे पहले
साध्वी निरंजन ज्योति
भारतीय जनता पार्टी सरकार के छह महीने बीत जाने के बाद भी सहमे-सहमे विपक्ष को केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति के बयान से तिनके जैसा सहारा मिला है.
सोलहवीं लोकसभा के शीतकालीन सत्र में पहली बार एकताबद्ध विपक्षी राजनीति गरमाती नज़र आ रही है. ऐसे में साध्वी का बयान पार्टी के लिए बेहद नाज़ुक मोड़ पर सेल्फ़ गोल जैसा घातक साबित हुआ है.
पिछले छह महीने से नरेंद्र मोदी अपने समर्थकों को आश्वस्त और विरोधियों को परास्त करने में सफल रहे हैं. उनके बड़े से बड़े आलोचक भी मान रहे थे कि येन-केन प्रकारेण नरेंद्र मोदी हवा को अपने पक्ष में बहाने में कामयाब हैं.

हनीमून की समाप्ति

मोदी मंत्रमंडल
मोदी के आलोचक मानते हैं कि यह हनीमून है जो लम्बा खिंच गया है. साध्वी प्रकरण की वजह से यह हनीमून ख़त्म नहीं हो जाएगा और न ही मोदी की हवा निकल जाएगी.
अलबत्ता इससे भाजपा के वैचारिक अंतर्विरोध खुलेंगे. इसके अलावा संसद में हंगामों का श्रीगणेश हुआ. दोनों सदनों में तीन दिन से गहमागहमी है.
गुरुवार को राज्यसभा को पूरे दिन के लिए स्थगित करना पड़ा. यानी विपक्ष को एक होने और वार करने का मौका मिला है.

Thursday, December 4, 2014

छह महीने में उम्मीदें बढ़ीं

नरेंद्र मोदी सामान्य तरीके से सत्ता हासिल करके नहीं आए हैं। उन्होंने दिल्ली में प्रधानमंत्री बनने के पहले अपनी पार्टी के भीतर एक प्रकार की लड़ाई लड़ी थी। उनकी तुलना उस योद्धा से की जा सकती है जिसका अस्तित्व लगातार लड़ते रहने पर आश्रित हो। इस हफ्ते जब 26 मई को उनकी सरकार के छह महीने पूरे हुए तो उसके तीन दिन पहले राहुल गांधी ने झारखंड उपचुनावों में प्रचार के दौरान मोदी पर हमला बोलते हुए पूछा, क्या आपके अच्छे दिन आ गए? कहां है अच्छे दिन? छह महीने नहीं सौ दिन नहीं 26 मई को ही लोग पूछ रहे थे कि क्या आ गए अच्छे दिन? मोदी ने उम्मीदें जगाईं, अपेक्षाएं तैयार कीं और जीत हासिल करने के लिए अपने विरोधियों पर करारे वार किए, इसलिए उनपर वार होना अस्वाभाविक नहीं। नई सरकार की उपलब्धियों पर पाँच साल बाद ही बात होनी चाहिए, पर कम से कम समय की बात करें तो अगले बजट को एक आधार रेखा माना जाना चाहिए। वह भी पर्याप्त इसलिए नहीं है, क्योंकि सरकार के पूरे एक वित्तीय वर्ष का लेखा-जोखा तबतक भी तैयार नहीं हो पाएगा। फिर भी मोटे तौर पर मोदी के छह महीनों की पड़ताल की जाए तो कुछ बातें सामने आती हैं वे इस प्रकार हैः-

काम करने की संस्कृति
नेताओं और मंत्रियों के वक्तव्यों पर रोक
कुछ बड़े फैसले
वैश्विक मंच पर ऊर्जावान भारत का उदय

Monday, June 30, 2014

मुँह में ‘कड़वी गोली’, मन में सुंदर सपने

गेहूँ या चावल के एक या दो दाने देखकर पहचान हो सकती है, पर क्या सरकार के काम की पहचान एक महीने में हो सकती है? सन 2004 के मई में जब यूपीए-1 की सरकार बनी तो पहला महीना विचार-विमर्श में निकल गया. तब भी सरकार के सामने पहली चुनौती थी महंगाई को रोकना और रोजगार को बढ़ावा देना. इस सरकार के सामने भी वही चुनौती है. मनमोहन सिंह सरकार के सामने भी पेट्रोलियम की कीमतों को बढ़ाने की चुनौती थी. उसके पहले वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम की कीमतों से बाजार के उतार-चढ़ाव से सीधा जोड़ दिया था, पर चुनाव के ठीक पहले कीमतों को बढ़ने से रोक लिया. वैसे ही जैसे इस बार यूपीए सरकार ने रेल किराया बढ़ाने से रोका. इसे राजनीति कहते हैं.

Sunday, June 29, 2014

पहला महीना और उम्मीदों के पहाड़

मोदी सरकार का पहला महीना उस गर्द-गुबार से मुक्त रहा, जिसका अंदेशा सरकार बनने के पहले देश-विदेश के मीडिया में व्यक्त किया गया था। कहा जा रहा था कि मोदी आए तो अल्पसंख्यकों का जीना हराम हो जाएगा वगैरह। मोदी के आलोचक आज भी असंतुष्ट हैं। वे मानते हैं कि मोदी ने व्यावहारिक कारणों से अपने चोले को बदला है, खुद बदले नहीं हैं। बहरहाल सरकार के सामने पाँच साल हैं और एक महीने के काम को देखकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

मोदी सरकार के पहले महीने के बारे में विचार करने के पहले ही हनीमून पीरियड, कड़वी गोली और अच्छे दिनके जुम्ले हवा में थे और अभी हैं। मोदी के समर्थकों से ज्यादा विरोधियों को उनसे अपेक्षाएं ज्यादा हैं। पर वे आलोचना के किसी भी मौके पर चूकेंगे नहीं। खाद्य सामग्री की मुद्रास्फीति के आंकड़े जैसे ही जारी हुए, आलोचना की झड़ी लग गई। इसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि ये आँकड़े मई के महीने के हैं, जब यूपीए सरकार थी। महंगाई अभी बढ़ेगी। सरकारी प्रयासों से सुधार भी हुआ तो उसमें समय लगेगा। हो सकता है कि सरकार विफल हो, पर उसे विफल होने के लिए भी समय चाहिए। पिछली सरकार के मुकाबले एक अंतर साफ दिखाई पड़ रहा है। वह है फैसले करना।

Tuesday, June 10, 2014

भारत के भव्य विकास का मोदी-स्वप्न

 सोमवार, 9 जून, 2014 को 21:11 IST तक के समाचार
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
संसद के दोनों सदनों के सामने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण में केंद्र की नई सरकार का आत्मविश्वास बोलता है. पिछली सरकार के भाषणों के मुकाबले इस सरकार के भाषण में वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण एक सच्चाई के रूप में सामने आती है, मजबूरी के रूप में नहीं. उसमें बुनियादी तौर पर बदलते भारत का नक्शा है.
‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम सुशासन’ के मंत्र जैसी शब्दावली से भरे इस भाषण पर नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत मुहर साफ़ दिखाई पड़ती है. ट्रेडीशन, टैलेंट, टूरिज्म, ट्रेड और टेक्नोलॉजी के 5-टी के सहारे ब्रांड-इंडिया को कायम करने की मनोकामना इसके पहले नरेंद्र मोदी किसी न किसी रूप में व्यक्त करते रहे हैं.
भाषण में कई जगह महात्मा गांधी का उल्लेख है- 1915 में भारत के महानतम प्रवासी भारतीय महात्मा गांधी भारत लौटे थे और उन्होंने भारत की नियति को ही बदल डाला. अगले वर्ष हम गांधी के भारत लौटने की शतवार्षिकी मनाएंगे और साथ ही ऐसे कदम भी उठाएंगे जिनसे प्रत्येक प्रवासी भारतीय का भारत के साथ संबंध प्रगाढ़ हो और वे भारत के विकास में भागीदार बने.

सुनने में अच्छे लगते हैं

नरेंद्र मोदी का नारा है, 'पहले शौचालय, फिर देवालय'. राष्ट्रपति ने इसी तर्ज पर कहा, देश भर मे ‘स्वच्छ भारत मिशन’ चलाया जाएगा और ऐसा करना महात्मा गांधी को उनकी 150वीं जयंती पर हमारी श्रद्धांजलि होगी जो वर्ष 2019 में मनाई जाएगी.
भविष्य में सॉफ़्टवेयर के अलावा भारत को रक्षा विनिर्माण के क्षेत्र में एक विश्वव्यापी प्लेटफॉर्म के रूप में उभारने की सम्भावना को भी इस भाषण में रेखांकित किया है. भारत अभी तक रक्षा सामग्री के निर्यात से बचता रहा है.