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Tuesday, September 3, 2024

बुलडोजर-न्याय और राजनीति के पेचोख़म…

बुलडोजर-न्याय को लेकर सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी से पहली नज़र में लगता है कि इससे तुरत-न्याय की राजनीति को धक्का लगेगा। पर इस बात के सभी पहलुओं पर विचार करने का समय भी अब आ गया है। कानूनी प्रक्रिया में कोई झोल है, तो उसे ठीक भी होना चाहिए। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बेंच ने विभिन्न राज्यों में 'बुलडोजर एक्शन' को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कहा कि कोई व्यक्ति दोषी है, तब भी उसके घर को गिराया नहीं जा सकता। सुप्रीमकोर्ट के इस हस्तक्षेप से उन लोगों की आस बढ़ी है, जिनके घर गिराए गए हैं। अदालत ने भविष्य में इस किस्म की तोड़फोड़ को लेकर गाइडलाइन बनाने का वायदा भी किया है।

क्या वास्तव में सरकारें किसी कानूनी-प्रक्रिया को अपनाए बगैर तोड़फोड़ कर रही हैं? या तथ्य कुछ और हैं? ऐसे ही सवाल हिंसा के दौरान नष्ट हुई सार्वजनिक संपत्ति को लेकर भी हैं। अदालत को देखना होगा कि उसकी भरपाई कौन करेगा? अब जब फोटोग्राफी एक-एक चेहरे की पहचान बताने लगी है, तब अपराधियों को सजा कैसे मिलेगी? उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से देश के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, जो हुआ, वह नियमानुसार है। याचिकाकर्ता मामले को अदालत के सामने गलत ढंग से रख रहे है। नोटिस बहुत पहले जारी किए गए थे, ये लोग पेश नहीं हुए।

Wednesday, August 21, 2024

लेटरल एंट्री: यानी दूध के जले…


भारत सरकार ने मिड-लेवल पर सरकार में विशेषज्ञों को शामिल करने की पार्श्व-प्रवेश योजना (लेटरल एंट्री) से फौरन पल्ला झाड़ लिया है, पर यह बात अनुत्तरित छोड़ दी है कि क्यों तो इस भर्ती का विज्ञापन दिया गया और उतनी ही तेजी से क्यों उसे वापस ले लिया गया? केंद्रीय लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) ने मिड-लेवल पर 45 विशेषज्ञों की सीधी भर्ती के लिए 17 अगस्त को विज्ञापन निकाला था, जिसे तीसरे ही दिन वापस ले लिया गया। विज्ञापन के अनुसार 24 केंद्रीय मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, डायरेक्टर और उप सचिव के पदों पर 45 नियुक्तियाँ होनी थीं।

इन 45 पदों में संयुक्त सचिवों के दस पद वित्त मंत्रालय के अधीन डिजिटल अर्थव्यवस्था, फिनटेक, साइबर सुरक्षा और निवेश और गृह मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) जैसे मामलों से जुड़े थे, जिनमें तकनीकी विशेषज्ञता की जरूरत होती है। इन पदों को सिंगल काडर पद कहा गया था, जिनमें आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी।

सरकार का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा सामाजिक न्याय के पक्षधर रहे हैं, पर व्यावहारिक सच यह है कि जैसे दूध का जला, छाछ भी फूँककर पीता है वैसे ही लोकसभा चुनाव में धोखा खाने के बाद भारतीय जनता पार्टी कोई राजनीतिक जोखिम मोल नहीं लेगी। पर विज्ञापन जारी करते वक्त सरकार ने इस खतरे पर विचार नहीं किया होगा। लेटरल एंट्री का विरोध केवल कांग्रेस ने ही नहीं किया है, एलजेपी जैसे एनडीए के सहयोगी दल ने भी किया। अभी तो यह तीसरा दिन ही था। देखते ही देखते विरोधी-स्वरों के ऊँचे होते जाने का अंदेशा था।

Wednesday, February 12, 2020

केजरीवाल की गुगली से भ्रमित भाजपा

केजरीवाल की चतुर रणनीति, लोकसभा चुनाव परिणामों से आत्म मुग्ध भारतीय जनता पार्टी की अंतिम क्षणों में हड़बड़ी और सदा की भांति कांग्रेस की आत्मघाती राजनीति, जिसे इस बात पर संतोष होगा कि बीजेपी भी तो हारी। इस चुनाव ने आम आदमी पार्टी को फिर से सत्तानशीन कर दिया है, साथ ही भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को आत्ममंथन का मौका दिया है।

इन परिणामों का एक बड़ा संदेश है कि अब आप शहरी गरीब वोटर पर भी ध्यान दें। बीजेपी की लोकसभा चुनाव में भारी विजय के पीछे पुलवामा वगैरह के अलावा ग्रामीण गरीबों के कल्याण की गई उसकी योजनाएं भी थीं। पर वे योजनाएं ग्राम केंद्रित थीं। अब शहरों पर भी ध्यान देना होगा। अगले एक दशक में ग्रामीण आबादी का भारी पलायन शहरों की ओर होगा या बड़े गाँव शहरों की शक्ल लेंगे। दिल्ली में मुफ्त बिजली-पानी का जादू सबने देख लिया है।

Saturday, August 31, 2019

मंदी रोकने के लिए बड़े फैसले करने होंगे


शुक्रवार की दोपहर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने राष्ट्रीयकृत बैंकों के पुनर्गठन के बाबत महत्वपूर्ण फैसलों से जुड़ी प्रेस कांफ्रेंस जैसे ही समाप्त की, खबरिया चैनलों के स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज दिखाई पड़ी कि पहली तिमाही में जीडीपी की दर घटकर 5 फीसदी हो गई है। यह दर अनुमान से भी कम है। मंदी की खबरें इस बात के लिए प्रेरित कर रही हैं कि आर्थिक सुधारों की गति में तेजी लाई जाए। बैंकिग पुनर्गठन और एफडीआई से जुड़े फैसलों के साथ इसकी शुरुआत हो गई है। उम्मीद है कि कुछ बड़े फैसले और होंगे। फिलहाल सबसे बड़ी जरूरत है कि ग्रामीण और शहरी बाजारों में माँग और अर्थव्यवस्था में विश्वास का माहौल पैदा हो।   
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) ने इस तिमाही की दर 5.7 फीसदी रहने का अनुमान लगाया था। हाल में समाचार एजेंसी रायटर्स ने अर्थशास्त्रियों का एक सर्वे किया था, उसमें भी 5.7 फीसदी का अनुमान था। पर वास्तविक आँकड़ों का इन अनुमानों से भी कम रहना चिंतित कर रहा है। मोदी सरकार के पिछले छह साल में यह सबसे धीमी तिमाही संवृद्धि है। इस तिमाही के ठीक पहले यानी 2019-19 की चौथी तिमाही में संवृद्धि दर 5.8 फीसदी थी। जबकि पिछले वित्तवर्ष की पहली तिमाही में यह दर 8 फीसदी थी। ज़ाहिर है कि मंदी का असर अर्थव्यवस्था पर दिखाई पड़ने लगा है।

Sunday, August 25, 2019

आर्थिक सुधारों के सूत्रधार जेटली


इस बात को निःसंकोच कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी को केवल आर्थिक मामलों में ही नहीं, हर तरह के विषयों में अरुण जेटली का काफी सहारा था। एनडीए सरकार के पहले दौर में अनेक मौकों पर सरकार का पक्ष सामने रखने के लिए उन्हें खड़ा किया गया। राज्यसभा में अल्पमत होने के कारण सरकार के सामने जीएसटी और दिवालिया कानून को पास कराने की चुनौती थी, जिसपर पार पाने में जेटली को सफलता हासिल हुई। ये दो कानून आने वाले समय में मोदी सरकार की सफलता के सूत्रधार बनेंगे। खासतौर से जीएसटी को लेकर जेटली ने विभिन्न राज्य सरकारों को जितने धैर्य और भरोसे के साथ आश्वस्त किया वह साधारण बात नहीं है।
इस साल मई में जब नई सरकार का गठन हो रहा था, अरुण जेटली ने जब कुछ समय के लिए कोई सरकारी पद लेने में असमर्थता व्यक्त की थी, तभी समझ में आ गया था कि समस्या गंभीर है। जून, 2013 में जब बीजेपी के भीतर प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी को लेकर विवाद चल रहा था, जेटली ने खुलकर मोदी का साथ दिया। बीजेपी और कांग्रेस के बीच जब भी महत्वपूर्ण मसलों पर बहस चली, जेटली ने पार्टी का वैचारिक पक्ष बहुत अच्छे तरीके से रखा। मोदी सरकार बनने के बाद उन्होंने न केवल वित्तमंत्री का पद संभाला, बल्कि जरूरत पड़ने पर रक्षा और सूचना और प्रसारण मंत्रालय की बागडोर भी थामी। वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी मंत्री रहे। उन्होंने वाणिज्य और उद्योग, विधि, कम्पनी कार्य तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय संभाले। वे सन 2009 से 2014 तक राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे।

Tuesday, July 23, 2019

प्रकृति को मत कोसो, प्रबंधकों से पूछो


असम और बिहार के काफी बड़े हिस्से में बाढ़ आई हुई है। बिहार के 12 जिलों के 102 प्रखंडों में बाढ़ का पानी फैला हुआ है, जिससे 66 लाख से ज्यादा की जनसंख्या प्रभावित है। इस साल बारिश देर से हुई है, जिसकी वजह से बाढ़ की खबरें कुछ देर से मिल रही हैं, वर्ना ये खबरें हर साल की हैं। कुछ दिन पहले सूखे की खबरें थीं, बल्कि आज भी हैं। कुछ दिन पहले मुम्बई शहर के लोग गर्मी से परेशान थे। मना रहे थे कि बारिश जल्द से जल्द हो। और जब हुई, तो शहर पानी में डूब गया।
एक टीवी चैनल दिल्ली की खबर दिखा रहा था, जिसमें एक ट्रैक्टर वाला 10-10 रुपये सवारी के रेट से पानी से भरी सड़क पार करा रहा था। देश की राजधानी और कोसी की बाढ़ के दर्द अलग-अलग हैं, पर दर्द है जो खत्म होकर नहीं दे रहा। इस साल समुद्र के किनारे बसे चेन्नई शहर में पीने का पानी खत्म हो गया। स्पेशल ट्रेन से वहाँ पानी भेजा गया। 2015 में वहाँ भारी वर्ष के कारण पूरा शहर पानी में डूब गया था। इस साल गर्मी वहाँ की सवा करोड़ आबादी को पानी का महत्व समझा गई।

Saturday, July 6, 2019

भविष्य के स्वप्नों की तस्वीर

मोदी सरकार के दूसरे दौर के पहले बजट में कुछ बातें अपने नएपन की वजह से ध्यान खींचती हैं। मसलन पहली बार वित्तमंत्री के हाथ में पश्चिमी परम्पराओं का प्रतीक चमड़े का काला बैग नहीं थी, बल्कि लाल रंग के मखमली कपड़े में लिपटा दस्तावेज था। दूसरे ऐसा पहली बार हुआ है कि वित्तमंत्री ने अपने भाषण में आँकड़ों को बहुत ज्यादा बताने से परहेज रखा। उन्होंने बड़े कार्यक्रमों की घोषणा भी नहीं की। नल से जल जैसी योजना को छोड़ दें, तो लोकलुभावन बातें भी नहीं थीं। इसके बावजूद बजट न केवल आकर्षक है, बल्कि भरोसा जगाता है।

इस बजट में भारतवर्ष के भविष्य की न केवल तस्वीर खींची गई है, उसे साकार बनाने के तरीकों की घोषणा की गई है। निर्मला सीतारमण का बजट भाषण सामान्य व्यक्ति को भी उतना ही समझ में आया, जितना कि विशेषज्ञों को। चूंकि बजट के ज्यादातर प्रावधान वही हैं, जो फरवरी में पेश किए गए बजट में थे। बल्कि फरवरी में ही यह भी कहा गया था कि हम भारत को पाँच साल में पाँच ट्रिलियन और आठ साल में दस ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था बनाएंगे। अलबत्ता निर्मला सीतारमण ने वहाँ तक जाने के रास्ते को स्पष्ट किया। इस साल की आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि यह काम तभी होगा, जब हमारी सालाना संवृद्धि कम से कम आठ फीसदी की दर से हो। इस बजट में उस दर को हासिल करने की दिशा नजर आती है।

वित्तमंत्री को भरोसा है कि हम इस साल तीन ट्रिलियन की सीमारेखा पार कर जाएंगे। वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में है। हमारी उम्मीदों के तीन बड़े कारण हैं। पेट्रोलियम की कीमतों में गिरावट है, मुद्रास्फीति काबू में है और राजकोषीय घाटा 3.4 से घटकर 3.3 फीसदी पर आ गया है। यानी कि सरकार ने वित्तीय अनुशासन बनाए रखा। राजस्व के मामले में वित्तमंत्री ने आयकर में हो रही रिकॉर्ड वृद्धि का जिक्र किया है। जीएसटी पर अभी अंदेशे हैं। यों इस बजट का मुख्य जोर पूँजी निवेश और तरलता बढ़ाने पर है।

Friday, July 5, 2019

आर्थिक सूझबूझ और राजनीतिक चतुराई की परीक्षा


बजट पेश होने के ठीक पहले मोटर वाहनों की बिक्री में आ रही लगातार गिरावट की खबरों से सरकार परेशान थी कि यह खबर आई कि जून के महीने में सर्विस सेक्टर में भी गिरावट नजर आई है। निक्की पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआई) के मुताबिक बिक्री कमजोर रहने और टैक्स की ऊँची दरों की वजह से ऐसा हुआ है। जून महीने में पीएमआई गिरकर 49.6 अंक पर पहुंच गया, जो मई में 50.2 था। सूचकांक का 50 से ऊपर रहना विस्तार के संकेत देता है और 50 से नीचे जाने का मतलब होता है कि अर्थव्यवस्था में गिरावट है।
हालांकि हाल में रोजगार की स्थिति बेहतर हुई है, पर लगता है कि उसका असर अभी नजर नहीं आया है। विनिर्माण के लिए पीएमआई में भी गिरावट आई है। मई में यह 52.7 था, जो जून में 52.1 रह गया है। विनिर्माण और सेवा का कंपोजिट पीएमआई आउटपुट इंडेक्स मई के 51.7 की तुलना में 50.8 रह गया है, जो इस साल का न्यूनतम स्तर है। 

Sunday, May 26, 2019

बीजेपी के फुटप्रिंट का विस्तार हुआ


सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों को देश के नक्शे में देखें तो पाएंगे कि अब देश के हरेक इलाके में बीजेपी की उपस्थिति है। दक्षिण के आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल ऐसे राज्य हैं ,जहाँ से बीजेपी का कोई प्रत्याशी नहीं जीता, पर कर्नाटक की 28 में से 25 सीटें जीतकर पार्टी ने उसकी भरपाई कर दी है। बीजेपी का फुटप्रिंट पूरे देश के नक्शे पर हैं। केवल उपस्थिति की बात ही नहीं है, वोट प्रतिशत भी पार्टी के विस्तार की कहानी कह रहा है। भारतीय जनता पार्टी का वोट प्रतिशत 31 से बढ़कर 37.5 हो गया है। वहीं एनडीए का वोट प्रतिशत 38.70 से बढ़कर 45.51 प्रतिशत हो गया है। इसके मुकाबले यूपीए का वोट प्रतिशत 27.09 प्रतिशत है। यदि एनडीए और यूपीए दो बड़े राष्ट्रीय मोर्चों के रूप में उभरें, तो सम्भव है कि क्षेत्रीय क्षत्रपों की भूमिका कम हो।
चुनाव परिणाम आने के पहले कहा जा रहा था कि इसबार सरकार के गठन में क्षेत्रीय क्षत्रप महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। फिलहाल ऐसा नहीं होने वाला। चूंकि क्षेत्रीय दलों की ताकत घटी है, इसलिए एक अनुमान लगाया जा सकता है कि भविष्य में देश में द्विदलीय राजनीति का उभार हो सकता है। सीट की संख्याओं को देखते हुए यह बात सही नहीं लगती। फिलहाल जो परिस्थिति है वह एकदलीय कांग्रेसी व्यवस्था की याद दिला रही है, जो 1967 के पूर्व देश में थी। क्षेत्रीय मुद्दे इसबार ज्यादा प्रभावी नहीं थे। तमिलनाडु में डीएमके का उभार दो कारणों से हुआ। एक तो जयललिता के निधन के बाद से अद्रमुक अनाथ पार्टी है, दूसरे तमिलनाडु में बैटिंग रोटेट करने का चलन भी है। इसबार बारी डीएमके की थी। 
बारह राज्यों में बीजेपी को 50 फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिले हैं। इनमें महाराष्ट्र और बिहार को तेरहवें और चौदहवें राज्य के रूप में जोड़ा जा सकता है जहाँ एनडीए के गठबंधन को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं। गुजरात (62.2), हिमाचल प्रदेश (69.1) और उत्तराखंड (61) में 60 फीसदी से भी ज्यादा। हरियाणा (58), मध्य प्रदेश (58) और राजस्थान (58.5) और दिल्ली (56.6) में 60 से कुछ कम। ये परिणाम सन 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की याद दिला रहे हैं। 
बीजेपी की सीटें तो बढ़ी ही हैं, सामाजिक आधार भी बढ़ा है। इसमें बड़ी भूमिका बंगाल और ओडिशा के वोटर की भी है। बंगाल में बीजेपी ने पिछली बार के 17 फीसदी के वोटों को बढ़ाकर करीब 40.3 फीसदी कर लिया है। यह तृणमूल के 43.3 फीसदी के एकदम करीब है। वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वोटों में 20 फीसदी की गिरावट आई है। तृणमूल कांग्रेस के वोट बढ़े हैं, पर सीटें घटी हैं। इसकी वजह है वाममोर्चे और कांग्रेस का पराभव। बंगाल में मुकाबले सीधे हो गए हैं। यह बात वहाँ की भावी राजनीति में महत्वपूर्ण होगी। राष्ट्रीय स्तर पर वाममोर्चा को सीटों और वोट प्रतिशत के लिहाज से सबसे बड़ा धक्का लगा है। वाम मोर्चे के वोट पिछले चुनाव में 4.55 फीसदी थे, जिनमें इसबार सीधे-सीधे दो फीसदी की गिरावट आई है। इसबार उसे केवल 2.55 फीसदी वोट ही मिले हैं। यूपीए का वोट प्रतिशत जो पिछले चुनाव में 26.3 फीसदी था, इसबार बढ़कर 27.09 हो गया है। डीएमके और टीआरएस जैसे दलों की बात छोड़ दें, तो क्षेत्रीय दलों के वोट में कमी आई है।

Tuesday, May 21, 2019

एक्ज़िट पोल में छिपी कुछ पहेलियाँ

ममता बनर्जी और चंद्रबाबू जैसे नेताओं ने एक्ज़िट पोल को सरासर गप्प बताया है, वहीं कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि 23 का इंतजार करें। वे जल्दी हार मानने को तैयार नहीं हैं। उन्हें लगता है कि 23 को उलट-फेर होंगे। हालांकि एक्ज़िट पोल काफी हद तक चुनाव परिणामों की तरफ इशारा करते हैं, फिर भी उनकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान हैं। सन 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में उनकी काफी फज़ीहत हुई थी और अभी हाल में ऑस्ट्रेलिया के चुनावों में वे हँसी के पात्र बने। सन 205 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के एक्ज़िट पोल इस लिहाज से तो सही थे कि उन्होंने आम आदमी पार्टी की जीत का एलान किया था, पर ऐसी जीत से वे भी बेखबर थे।

दूसरी तरफ यह भी सही है कि अब पोल-संचालक ज्यादा सतर्क हैं। उनके पास अब बेहतर तकनीक और अनुभव है। वे आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का सहारा ले रहे हैं। विश्लेषण करते वक्त वे राजनीति-शास्त्रियों, मानव-विज्ञानियों और दूसरे विशेषज्ञों की राय को भी शामिल करते हैं। उनसे चूक कहाँ हो सकती है, इसकी समझ भी उन्होंने विकसित की है। विश्लेषकों को लगता है कि इसबार के पोल सच के ज्यादा करीब होंगे। बावजूद इसके इन पोल पर गहरी निगाह डालें, तो कुछ पहेलियाँ अनसुलझी नजर आती हैं।

यों सभी पोल इसपर एकमत हैं कि एनडीए सबसे बड़े समूह के रूप में उभर रहा है। फिर भी सीटों की संख्या के उनके अनुमान 240 और 340 के बीच हैं। इतना बड़ा फासला नई पहेली को जन्म देता है। बिग पिक्चर एक जैसी है, पर विस्मय फैलाने वाला डेविल डिटेल में है। टोटल में एक जैसे हैं, फिर भी अलग-अलग राज्यों के अनुमानों में भारी फर्क है। बीजेपी की सफलता या विफलता के लिए जिम्मेदार तीन राज्यों को महत्वपूर्ण माना जा रहा है, उनकी संख्याओं पर गौर करें, तो संदेह पैदा होते हैं। पार्टी के भीतर के लोग भी मान रहे हैं कि यूपी में महागठबंधन का अंकगणित बीजेपी पर भारी पड़ सकता है। पर वे मानते हैं कि इसकी भरपाई बंगाल, ओडिशा और पूर्वोत्तर के राज्य करेंगे।

Saturday, March 9, 2019

मंदिर-मस्जिद विवाद के समाधान की दिशा में पहला बड़ा कदम

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की जो पहल की है, उससे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं बाँधनी चाहिए, पर इसे समाधान की दिशा में पहला बड़ा कदम माना जा सकता है। इसकी कुछ बड़ी वजहें हैं। एक, अदालत ने तीनों मध्यस्थों को तय करते समय इस बात का ख्याल रखा है कि वे पूर्वग्रह से मुक्त हों। तीनों दक्षिण भारतीय हैं और उत्तर भारत के क्षेत्रीय विवादों से दूर हैं। कहा जा सकता है कि समाधान के प्रयासों से श्रीश्री रविशंकर पहले से जुड़े हैं। वे कई बार समाधान के प्रयास कर चुके हैं, इसलिए इससे जुड़े मुद्दों के बेहतर समझते हैं। दोनों पक्षों के साथ उनके सम्बन्ध मधुर हैं। पर उनकी तटस्थता को लेकर आपत्तियाँ हो सकती हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके पहले हुई मध्यस्थताओं और इसबार में अंतर है। यह कोर्ट की निगरानी में चलने वाली मध्यस्थता है, इसमें एक अनुभवी न्यायाधीश शामिल हैं और मध्यस्थों को एक समय सीमा दी गई है। फिर वे मध्यस्थ हैं, समझौता पक्षकारों के बीच होगा, मध्यस्थों की भूमिका उसमें मदद करने की होगी। वे जज नहीं हैं। तीसरे, मध्यस्थता से हासिल हुए समझौते में कटुता नहीं होगी, किसी पक्ष की हार या किसी की जीत की भावना नहीं होगी। चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मामले पर अब जो भी होगा, वह लोकसभा चुनाव के बाद होगा। मध्यस्थ किसी समझौते पर पहुँचे भी तो इसमें दो महीने लगेंगे। यानी कि मई के दूसरे हफ्ते से पहले कुछ होगा नहीं और उसी वक्त चुनाव परिणाम आ रहे होंगे। उसके बाद अदालती कार्यवाही चलेगी।

Saturday, February 2, 2019

बजट में सपने हैं, जुमले और जोश भी!


नरेन्द्र मोदी को सपनों का सौदागर कहा जा सकता है और उनके विरोधियों की भाषा में जुमलेबाज़ भी। उनका अंतरिम बजट पूरे बजट पर भी भारी है। वैसा ही लुभावना और उम्मीदों से भरा, जैसा सन 2014 में उनका पहला बजट था। इसमें गाँवों और किसानों के लिए तोहफों की भरमार है और साथ ही तीन करोड़ आय करदाताओं के लिए खुशखबरी है। कामगारों के लिए पेंशन है। उन सभी वर्गों का इसमें ध्यान रखा गया है, जो जनमत तैयार करते हैं। यानी की कुल मिलाकर पूरा राजनीतिक मसाला है। इसे आप राजनीतिक और चुनावोन्मुखी बजट कहें, तो आपको ऐसा कहने का पूरा हक है, पर आज की राजनीति में क्या यह बात अजूबा है? वोट के लिए ही तो सारा खेल चल रहा है। ऐसा भी नहीं कि इन घोषणाओं से खजाना खाली हो जाएगा, बल्कि अर्थ-व्यवस्था बेहतरी का इशारा कर रही है। इस अंतरिम बजट में सरकार ने सन 2030 तक की तस्वीर भी खींची है। यह वैसा ही बजट है, जैसा चुनाव के पहले होना चाहिए।

इस तस्वीर का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है पाँच साल में पाँच ट्रिलियन और आठ साल में दस ट्रिलियन की अर्थ-व्यवस्था बनना। इस वक्त हमारी अर्थ-व्यवस्था करीब ढाई ट्रिलियन डॉलर की है। अगले 11 साल में भारत के रूपांतरण का जो सपना यह सरकार दिखा रही है, वह भले ही बहुत सुहाना न हो, पर असम्भव भी नहीं है। 

Friday, January 11, 2019

क्या आरक्षण बीजेपी की नैया पार लगाएगा?

http://epaper.navodayatimes.in/1976127/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/10/1
मोदी सरकार ने चुनाव के ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव पास करके राजनीतिक धमाका किया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि सवर्ण हिन्दू जातियों के बीच पार्टी का जनाधार हाल में कमजोर हो रहा था। पिछले दिनों अजा-जजा एक्ट में संशोधन के कारण यह वर्ग पार्टी से नाराज था। मध्य प्रदेश में इसका असर खासतौर से देखने को मिला। एक नया दल सपाक्स खड़ा हो गया। वोट फॉर नोटा का नारा दिया गया। आंदोलन की गूँज उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में भी सुनी गई। सवाल है कि क्या सरकार का यह फैसला इसी रोष को कम करने लिए है या कुछ और है? सरकार इस बहाने क्या आरक्षण पर बहस को शुरू करना चाहती है? लाख टके का सवाल यह है कि क्या इससे भाजपा के पक्ष में लहरें पैदा होंगी?

Saturday, December 29, 2018

गठबंधन का महा-गणित


http://epaper.navodayatimes.in/1957596/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/8/1
देश में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केन्द्र में उसका पहला तजुरबा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अबतक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा। सबसे ज्यादा रोचक होंगे, चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात इसमें आने वाले बदलाव। तीसरे मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्र पिछले चार दशक से बार-बार हो रहा है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि यह पूरी तरह बन गया हो और ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि इसे बनाने की प्रक्रिया में रुकावट आई हो। फर्क केवल एक आया है। पहले इसमें एक भागीदार जनसंघ (और बाद में भाजपा) हुआ करता था। अब उसकी जगह कांग्रेस ने ले ली है। यानी तब मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ होता था, अब बीजेपी के खिलाफ है। फिलहाल सवाल यह है कि गठबंधन होगा या नहीं? और हुआ तो एक होगा या दो?  

पिछले तीन दशक से इस फ्रंट के बीच से एक नारा और सुनाई पड़ता है। वह है गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन का। इस वक्त गैर-भाजपा महागठबंधन और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चे दोनों की बातें सुनाई पड़ रहीं हैं। अभी बना कुछ भी नहीं है और हो सकता है राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बने ही नहीं। अलबत्ता क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गठबंधनों की सम्भावनाएं इस वक्त तलाशी जा रहीं हैं। साथ ही एनडीए और यूपीए के घटक दलों की गतिविधियाँ भी बढ़ रहीं हैं। सीट वितरण का जोड़-घटाना लगने लगा है और उसके कारण पैदा हो रही विसंगतियाँ सामने आने लगी हैं। कुछ दलों को लगता है कि हमारी हैसियत अब बेहतर हुई है, इसलिए यही मौका है दबाव बना लो, जैसाकि हाल में लोजपा ने किया।  

Sunday, December 2, 2018

दिल्ली के द्वार पर किसानों की गुहार


पिछले साल मध्य प्रदेश के मंदसौर किसानों के आंदोलन में गोली चलने से छह व्यक्तियों की मौत के बाद देशभर में खेती-किसानी को लेकर शुरू हुई बहस  दिल्ली में कल और आज हो रही किसान रैली के साथ राष्ट्रीय-पटल पर आ गई है। तीस साल पहले अक्तूबर 1988 में भारतीय किसान यूनियन के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने बोट क्लब पर जो विरोध प्रदर्शन किया था, वह ऐतिहासिक था। दिल्ली वालों को अबतक उसकी याद है। दिल्ली में लम्बे अरसे के बाद इतनी बड़ी तादाद में किसान अपनी परेशानी बयान करने के लिए जमा हुए हैं। दो महीने पहले 2 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के रास्ते से हजारों किसानों ने दिल्ली में प्रवेश का प्रयास किया था, पर दिल्ली पुलिस ने उन्हें रोक दिया। दोनों पक्षों में टकराव हुआ, जिसमें बीस के आसपास लोग घायल हुए थे।

यह रैली कुछ विडंबनाओं की तरफ ध्यान खींचती है। हाल के वर्षों में मध्य प्रदेश में कृषि की विकास दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा रही है, फिर भी वहाँ आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद बढ़ी है। पिछले साल रिकॉर्ड फसल के बावजूद किसानों का संकट बढ़ा, क्योंकि दाम गिर गए। खेती अच्छी हो तब भी किसान रोता है, क्योंकि दाम नहीं मिलता। खराब हो तो रोना ही है। कई बार नौबत आती है, जब किसान अपने टमाटर, प्याज, मूली, गोभी से लेकर अनार तक नष्ट करने को मजबूर होते हैं।

Wednesday, November 7, 2018

बीजेपी के लिए खतरे का संकेत है बेल्लारी की हार

कर्नाटक में विधानसभा के दो और लोकसभा के तीन क्षेत्रों में हुए उपचुनावों का राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति पर कोई खास प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। बेल्लारी को छोड़ दें, तो ये परिणाम अप्रत्याशित नहीं हैं। बेल्लारी की हार बीजेपी के लिए खतरे का संकेत है। इन चुनावों में दो बातों की परीक्षा होनी थी। एक, कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन कितना मजबूत है और मतदाता के मन में उसकी छवि कैसी है। दूसरे राज्य विधानसभा में बीएस येदियुरप्पा का प्रभाव कितना बाकी है। विधानसभा में गठबंधन-सदस्यों की संख्या बढ़कर 120 हो गई है। राज्य में गठबंधन सरकार फिलहाल आरामदेह स्थिति में है, पर 2019 के चुनाव के बाद स्थिति बदल भी सकती है। बहुत कुछ दिल्ली में सरकार बनने पर निर्भर करेगा।
इस उपचुनाव में काफी प्रत्याशी नेताओं के रिश्तेदार थे, जो अपने परिवार की विरासत संभालने के लिए मैदान में उतरे थे। इस हार-जीत में ज्यादातर रिश्तेदारों की भूमिका रही। लोकसभा की तीनों सीटों पर चुनाव औपचारिकता भर है। ज्यादा से ज्यादा 6-7 महीनों की सदस्यता के लिए चुनाव कराने का कोई बड़ा मतलब नहीं। अलबत्ता ये चुनाव 2019 के कर्टेन रेज़र साबित होंगे। कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों की 2019 में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

Tuesday, October 30, 2018

ऐसे तो नहीं रुकेगा मंदिर का राजनीतिकरण


अयोध्या मामले का राजनीतिकरण इस हद तक हो चुका है कि अब मंदिर बने तब और न बने तब भी उसका फायदा बीजेपी को मिलेगा। यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आ रही थी, जो अदालत में इसकी सुनवाई में विलंब कराने की कोशिश कर रहे थे। अब इस मामले के राजनीतिक निहितार्थों को देखें और इंतजार करें कि क्या होने वाला है। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस मसले पर अगली सुनवाई जनवरी 2019 में एक उचित पीठ के समक्ष होगी। यह सुनवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं के समूह पर होगी। हाईकोर्ट ने विवादित स्थल को तीन भागों रामलला, निर्मोही अखाड़ा व मुस्लिम वादियों में बांटा था।

गौर करें, तो पाएंगे कि मंदिर मसले पर बीजेपी को अपनी पहलकदमी के मुकाबले मंदिर-विरोधी राजनीति का लाभ ज्यादा मिला है। मंदिर समर्थकों को कानूनी तरीके से जल्द मंदिर बनने की उम्मीद थी, जो फिलहाल पूरी होती नजर नहीं आ रही है। यानी कि अब वे एक नया आंदोलन शुरू करेंगे। इस आंदोलन का असर पाँच राज्यों के और लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। बेशक बीजेपी के नेताओं पर भी दबाव है, पर इससे उन्हें नुकसान क्या होगा? वे कहेंगे हमारे हाथ मजबूत करो। बीजेपी मंदिर मसले को चुनाव का मुद्दा नहीं बना रही थी, तो अब बनाएगी।

क्या अध्यादेश आएगा?

बीजेपी के भीतर से आवाजें आ रहीं हैं कि सरकार अध्यादेश या बिल लाकर मंदिर बनाए। सरसंघ चालक  मोहन भागवत कह चुके हैं कि सरकार को कानून बनाना चाहिए। सुब्रमण्यम स्वामी ने इस माँग का स्वागत किया है। संघ के अलावा विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना की भी यही राय है। अध्यादेश या विधेयक से क्या मंदिर बन जाएगा? राज्यसभा में क्या पर्याप्त समर्थन मिलेगा? नहीं मिला तब भी पार्टी यह कह सकती है कि हमने कोशिश तो की बिल पास भी हो जाए, तो सुप्रीम कोर्ट से भी रुक सकता है। यह सब इतना आसान नहीं है, जितना समझाया जा रहा है। इसका हल सभी पक्षों के बीच समझौते से ही निकल सकता है। 

Saturday, October 6, 2018

बाएं बाजू रूस, दाएं अमेरिका

कुछ दिन पहले तक लगता था कि भारत की विदेश नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग होती जा रही है। अब लगता है कि हम स्थिरता के धरातल पर वापस लौट रहे हैं। सितम्बर के पहले हफ्ते में भारत और अमेरिका के बीच हुई ‘टू प्लस टू’ वार्ता के ठीक एक महीने बाद रूस के साथ एस-400 मिसाइल प्रणाली को लेकर समझौता हो गया है। यह मिसाइल प्रणाली हवाई हमलों के खिलाफ दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली मानी जाती है। इसे अमेरिकी ‘टर्मिनल हाई अल्टीट्यूड एरिया डिफेंस सिस्टमट (ठाड) या पैट्रियट मिसाइल प्रणाली के मुकाबले किफायती और ज्यादा मारक समझा जा रहा है। सच यह है कि रूसी मिसाइलों, फ्रांसीसी लड़ाकू विमानों, अमेरिकी ड्रोनों और इसरायली रेडारों के सहारे चलने वाली भारतीय रक्षा-नीति अपने आप में अनोखी साबित हो रही है। रक्षा बहरहाल हमें अभी इस समझौते के बाबत अमेरिका की औपचारिक प्रतिक्रिया का इंतजार करना चाहिए। इतना जरूर लगता है कि भारत ने काफी सोच-समझ कर यह फैसला किया है। 
भारत और रूस के बीच 19 वें वार्षिक शिखर सम्मेलन के दौरान आठ समझौते हुए हैं। ये समझौते रक्षा, नाभिकीय ऊर्जा, स्पेस और अर्थ-व्यवस्था से जुड़े हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये समझौते अमेरिका की धमकी के बाद हुए हैं। अमेरिका ने धमकी दी है कि वह उन देशों पर पाबंदी लगाएगा, जो रूसी हथियार खरीदते हैं। पिछले महीने भारत और अमेरिका के बीच पहली बार जब टू प्लस टू वार्ता हुई थी, तब यह सवाल सबसे ऊपर था कि भारत इस मिसाइल प्रणाली को खरीद भी पाएगा या नहीं? 

Saturday, September 8, 2018

भारत-अमेरिका रिश्तों का अगला कदम

विदेशी मामलों को लेकर भारत में जब बात होती है, तो ज्यादातर पाँच देशों के इर्द-गिर्द बातें होती हैं। एक, पाकिस्तान,दूसरा चीन। फिर अमेरिका, रूस और ब्रिटेन। इन देशों के आपसी रिश्ते हमें प्रभावित करते हैं। देश की आंतरिक राजनीति भी इन रिश्तों के करीब घूमने लगती है। पिछले कुछ हफ्तों की गतिविधियाँ इस बात की गवाही दे रहीं हैं। कश्मीर में घटनाक्रम तेजी से बदला है। उधर पाकिस्तान में इमरान खान की नई सरकार समझ नहीं पा रही है कि करना क्या है। इस बीच न्यूयॉर्क टाइम्स ने खबर दी है कि पाकिस्तानी सेना ने भारत के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। आर्थिक मसलों को लेकर अमेरिका और चीन के रिश्ते बिगड़ते जा रहे हैं। भारत और अमेरिका के रिश्तों में भी कुछ समय से कड़वाहट है। दोनों देशों के बीच लगातार टल रही टू प्लस टू वार्ता अंततः इस हफ्ते हो जाने के बाद असमंजस के बादल हटे हैं।

जून के तीसरे हफ्ते मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के इस्तीफा देने के बाद से कश्मीर में घटनाक्रम तेजी से बदला है। इसके फौरन बाद कश्मीर में एक दशक से जमे जमाए राज्यपाल रहे एनएन वोहरा का कार्यकाल समाप्त हो गया। उनकी जगह अगस्त के तीसरे हफ्ते में सतपाल मलिक ने राज्य के राज्यपाल का पदभार ग्रहण किया। सतपाल मलिक इसके पहले बिहार के राज्यपाल थे। राज्य के पुलिस प्रमुख भी बदल दिए गए हैं। नए राज्यपाल के आने के पहले ही राज्य के शहरी और ग्रामीण निकाय चुनाव इस अक्तूबर और नवम्बर में कराने की घोषणा हो गई थी। उस घोषणा की प्रतिक्रिया में राजनीतिक लहरें बनने लगी हैं।
सवाल है कश्मीर को लेकर सरकार क्या कोई बड़ा फैसला करने वाली है? उधर लोकसभा चुनाव करीब हैं। चुनाव के पहले क्या कोई बड़ा फैसला करना सम्भव है?पर मन यह भी कहता है कि चुनाव के पहले बड़े नाटकीय फैसले सम्भव भी हैं। इस सिलसिले में दिल्ली में गुरुवार को भारत और अमेरिका के रक्षा और विदेश मंत्रियों की बहुप्रतीक्षित टू प्लस टू वार्ताके निहितार्थों को समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण तथा अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने इस वार्ता में हिस्सा लिया।

Tuesday, August 14, 2018

विरोधी-एकता के दुर्ग में दरार

राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में पड़े वोटों के आधार पर राजनीति शास्त्र के शोधछात्र राहुल वर्मा का 2019 के चुनाव में बनने वाले सम्भावित गठबंधनों का अनुमान
राज्यसभा के उप-सभापति पद के चुनाव ने एकबारगी विरोधी दलों के अंतर्विरोधों को उजागर किया है। एनडीए प्रत्याशी हरिवंश की जीत इतनी आसानी से हो जाएगी, इसका अनुमान पहले से नहीं था। पिछले चार साल से विरोधी दल बीजेपी को केवल राज्यसभा में ही परेशान करने में सफल थे। पिछले कुछ समय से बीजेपी की स्थिति राज्यसभा में बेहतर हुई है, पर इतनी बेहतर वह फिर भी नहीं थी कि उसका प्रत्याशी आसानी से चुनाव जीत जाता। पिछले महीने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर एनडीए की जीत के बाद यह दूसरी जीत उसका आत्मविश्वास बढ़ाएगी।

कांग्रेस समेत विरोधी दलों की रणनीति अलग-अलग राज्यों में संयुक्त प्रत्याशी खड़े करने की है, ताकि बीजेपी-विरोधी वोट बँटने न पाएं। यह रणनीति उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और एक हद तक महाराष्ट्र में अब भी कारगर है, पर उसके जिरह-बख्तरों की दरारें भी नजर आने लगी हैं। साफ है सत्तारूढ़ दल ने इस चुनाव को कुछ समय के लिए टालकर बीजू जनता दल और टीआरएस के साथ विचार-विमर्श पूरा कर लिया। यह विमर्श केवल राज्यसभा के उप-सभापति चुनाव तक सीमित नहीं है। अब यह 2019 के चुनाव तक जाएगा। कांग्रेस ने इस चुनाव को या तो महत्व नहीं दिया या उसे भरोसा था कि यह चुनाव इस सत्र में नहीं होगा। कांग्रेस के दो सांसदों का वोट न देना भी उसके असमंजस को बढ़ाने वाला है।