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Monday, August 14, 2023

बड़ी चुनौती, स्वस्थ और शिक्षित नागरिक



आज़ादी के सपने-04

भारत और चीन की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया. बावजूद इसके कि पहले दो दशक की आर्थिक-संवृद्धि में हमारी गति बेहतर थी. जवाहर लाल नेहरू ने भारत में मध्यवर्ग को तैयार किया, दूसरी तरफ चीन ने बुनियादी विकास पर ध्यान दिया. समय के साथ सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य में चीन ने हमें पीछे छोड़ दिया. हमें इन दोनों के बारे में सोचना चाहिए.

कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी कम से कम तीन क्षेत्रों में नागरिकों को सबल बनाने की है. वे सबल होंगे, तो उनकी भागीदारी से देश और समाज ताकतवर होता जाएगा. ये तीन क्षेत्र हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय.

सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा, समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत भारत आज अदा कर रहा है. नेहरू ने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा.

शायद यही वजह है कि उच्च और तकनीकी शिक्षा में हमारा प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर है. सत्तर के दशक में दो ग़रीब देश, आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग सामान थे. इनमें से एक खेलों में ही नहीं जीवन के हरेक क्षेत्र में आगे निकल गया और दूसरा काफ़ी पीछे रह गया.

इस सच को ध्यान में रखना होगा कि चीन 'रेजीमेंटेड' देश है, वहाँ आदेश मानना पड़ता है. भारत खुला देश है, यहाँ ऐसा मुश्किल है. हमारे यहाँ जो भी होगा, उसे एक लोकतांत्रिक-प्रक्रिया से गुजरना होगा. देश के अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों से विमर्श के बाद ही फैसलों को लागू किया जा सकता है.

स्वास्थ्य-चेतना

महामारी के कारण पिछले तीन साल वैश्विक स्वास्थ्य-चेतना के वर्ष थे. इस दौरान वैश्विक स्वास्थ्य-नीतियों का पर्दाफाश हुआ. भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार हमारे यहाँ बाल पोषण के संकेतक उत्साहवर्धक नहीं हैं. बच्चों की शारीरिक विकास अवरुद्धता में बड़ा सुधार नहीं है और 13 राज्यों मे आधे से ज्यादा बच्चे और महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित हैं.

2020 मे सुप्रीम कोर्ट के एक पीठ ने स्वास्थ्य को नागरिक का मौलिक अधिकार मानते हुए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश सरकार को दिए थे. अदालत ने कहा, राज्य का कर्तव्य है कि वह सस्ती चिकित्सा की व्यवस्था करे. अदालत की टिप्पणी में दो बातें महत्वपूर्ण थीं. स्वास्थ्य नागरिक का मौलिक अधिकार है. दूसरे, इस अधिकार में सस्ती या ऐसी चिकित्सा शामिल है, जिसे व्यक्ति वहन कर सके.

महंगा इलाज

अदालत ने यह भी कहा कि इलाज महंगा और महंगा होता गया है और यह आम लोगों के लिए वहन करने योग्य नहीं रहा है. भले ही कोई कोविड-19 से बच गया हो, लेकिन वह आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका है. इसलिए सरकारी अस्पतालों मे पूरे इंतजाम हों या निजी अस्पतालों की अधिकतम फीस तय हो. यह काम आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत शक्तियों को प्रयोग करके किया जा सकता है.

देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर 1983, 2002 और 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियाँ बनाई गई हैं. 2017 की नीति से जुड़ा कार्यक्रम है आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना. इसके अलावा ग्रामीण भारत से जुड़ी कई सामाजिक परियोजनाओं को शुरू किया गया है, जो खासतौर से वृद्धों, महिलाओं और निराश्रितों पर केंद्रित हैं.

गरीबों की अनदेखी

सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में तेजी से शुरू हुआ. 1978 में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अल्मा-अता घोषणा की थी-सन 2000 में सबके लिए स्वास्थ्य! संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1974 में अपने विशेष अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की घोषणा और कार्यक्रम का मसौदा पास किया.

अल्मा-अता घोषणा में स्वास्थ्य को मानवाधिकार मानते हुए इस बात का वायदा किया गया था कि दुनिया की नई सामाजिक-आर्थिक संरचना में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सरकारें लेंगी. इतनी बड़ी घोषणा के बाद अगले दो वर्षों में इस विमर्श पर कॉरपोरेट रणनीतिकारों ने विजय प्राप्त कर ली.

Monday, May 16, 2022

कृपया ध्यान दें, महामारी अभी गई नहीं है!


एक अरसे से मीडिया की सुर्खियों से कोविड-19 गायब था, पर अब दो वजहों से उसने फिर से सिर उठाया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि कोरोना के कारण दुनिया में क़रीब डेढ़ करोड़ लोगों की मौत हुई है, जबकि सरकारी आँकड़ों के अनुसार करीब 62 लाख लोगों की मृत्यु हुई है। हालांकि ज्यादातर देशों को लेकर यह बात कही गई है, पर खासतौर से भारत की संख्या को लेकर विवाद है। डब्लूएचओ का कहना है कि भारत में कोरोना से 47 लाख लोगों की मौत हुई है, जबकि सरकारी आँकड़ों के अनुसार यह संख्या करीब सवा पाँच लाख है।

डब्ल्यूएचओ के अनुसार मौतों की संख्या को लेकर जहाँ संशय है, उनमें भारत के साथ रूस, इंडोनेशिया, अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको और पेरू जैसे देश शामिल है। बहरहाल अब बहस जन्म और मृत्यु के आँकड़ों को दर्ज करने की व्यवस्था को लेकर है। साथ ही इस बात को रेखांकित भी करते हैं कि भविष्य में किसी भी महामारी का सामना करने के लिए किस तरह की तैयारी होनी चाहिए।

खतरा आगे है

इस बीच माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के संस्थापक बिल गेट्स की एक पुस्तिका ने भी दुनिया का ध्यान खींचा है, जिसमें कहा गया है कि दुनिया ने अभी कोरोना महामारी के सबसे बुरे दौर का सामना नहीं किया है। डेल्टा और ओमिक्रॉन से भी ज्यादा संक्रामक और जानलेवा कोरोना वेरिएंट के आने का खतरा बना हुआ है। स्थिति से पहले से निपटने के लिए उन्होंने वैश्विक निगरानी बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया है। उन्होंने यह चेतावनी अपनी एक नई किताब में दी है, जिसका शीर्षक है, हाउ टू प्रिवेंट द नेक्स्ट पैंडेमिक। यह किताब कोविड महामारी से सीखे गए सबक के आधार पर अगली महामारी को रोकने के तरीकों की बात करती है।

बिल गेट्स का उद्देश्य डराना नहीं, बल्कि इस दिशा में विचार करने की शुरुआत करने का है। काफी लोगों को लग रहा है कि हालात सामान्य हो गए हैं, पर ऐसा सोचना गलत है। हमें अब सोचना यह चाहिए कि अगले हमले या हमलों को किस तरह से रोका जाए। अभी तक हमने कोविड के सबसे बुरे दौर का सामना नहीं किया है। अभी जो हुआ है, वह औसत से 5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं था।

उनका सुझाव है कि एक अरब डॉलर के निवेश के साथ ग्लोबल एपिडेमिक रेस्पांस एंड मोबिलाइज़ेशन (जर्म) टीम बनाई जानी चाहिए। इस एजेंसी का संचालन विश्व स्वास्थ्य संगठन करे। उनकी इस सलाह पर विशेषज्ञों ने कहा है कि ब्यूरोक्रेसी की एक नई परत तैयार करने के बजाय डब्लूएचओ को ही पुष्ट करने की जरूरत है। वस्तुतः वैश्विक स्वास्थ्य-रक्षा का कार्यक्रम ताकतवर देशों का अखाड़ा बना हुआ है। सन 2020 में अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुदान में कटौती कर दी। उसके बाद 2021 में चीन ने कोविड-19 के स्रोत की गहराई से जाँच में अड़ंगा लगा दिया।

वैक्सीन-सफलता

बावजूद इन नकारात्मक बातों के इस महामारी का एक अनुभव है कि दुनिया पहले के मुकाबले ज्यादा तेजी से वैक्सीन तैयार कर सकती है। महामारी शुरू होने के एक साल के भीतर वैक्सीन बन गईं और करीब-करीब पूरी दुनिया तक पहुँच गईं। हालांकि गरीब और अमीर देशों में उनके वितरण की समस्या भी उजागर हुई, पर इसमें दो राय नहीं कि खासतौर से मैसेंजर आरएनए (एमआरएनए) के कारण अब छह महीने में वैक्सीन बन सकती है।

बिल गेट्स ही नहीं दूसरे विशेषज्ञ भी मानते हैं कि सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहनने और हाथ धोने जैसे एहतियात कदम उपयोगी हैं, पर स्कूलों को बंद करना सही रणनीति नहीं है। बच्चों पर बीमारी का असर कम होता है। सस्ते मास्क बनाएं और सब मास्क पहनें इस पर जोर होना चाहिए। सब मास्क पहनेंगे, तो बीमारी फौरन रुकेगी। बीमारी के विस्तार को देखते हुए कांटैक्ट ट्रेसिंग जैसी कोशिशें फेल होती हैं। गेट्स पिछले कुछ वर्षों से महामारी को लेकर चेतावनी जारी करते रहे हैं। 2015 में उन्होंने पहली बार सार्वजनिक रूप से आगाह किया था कि दुनिया अगली महामारी के लिए तैयार नहीं है।

Sunday, December 12, 2021

कोरोना और वैश्विक-जागरूकता


संयोग है कि आज अंतर्राष्ट्रीय सार्वभौमिक-स्वास्थ्य कवरेज दिवसहै और हम  ओमिक्रॉन पर चर्चा कर रहे हैं, जो सार्वभौमिक-स्वास्थ्य के लिए नए खतरे के रूप में सामने आ रहा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दिन हर साल 12 दिसंबर को मनाया जाता है। सार्वभौमिक-स्वास्थ्य वैसा ही एक अधिकार है, जैसे जीवित रहना, शिक्षा प्राप्त करना, रोजगार पाना और विचरण करना जैसे मानवाधिकार हैं। उद्देश्य सार्वभौमिक-स्वास्थ्य कवरेज के बारे में जागरूकता को बढ़ाना है। इस साल की थीम हैकिसी के स्वास्थ्य की उपेक्षा न हो, सबके स्वास्थ्य पर निवेश हो। आइए दुनिया के स्वास्थ्य और उससे जुड़ी जागरूकता पर एक नजर डालें।

गरीबों को मयस्सर नहीं

दूसरे से तीसरे साल में प्रवेश कर रही महामारी और वैश्विक स्वास्थ्य-कवरेज पर विचार के लिए यह उचित समय है। टीकाकरण ठीक से हुआ, तो सार्वभौमिक इम्यूनिटी पैदा हो सकती है। पर इसमें भारी असमानता वैश्विक गैर-बराबरी को रेखांकित कर रही है। टीके कारगर हैं, पर उस स्तर को नहीं छू पा रहे हैं, जिससे हर्ड इम्युनिटी पैदा हो। अमीर देशों में टीके इफरात से हैं और लगवाने वाले उनका विरोध कर रहे हैं। दूसरी तरफ गरीब देशों में लोग टीकों का इंतजार कर रहे हैं, और उन्हें टीके मयस्सर नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आगाह किया है कि अमीर देश, वैक्सीन वितरण के लिए यूएन समर्थित ‘कोवैक्स’ पहल में मदद करने के बजाय, टीकों को अपने कब्जे में रखेंगे, तो महामारी का जोखिम बढ़ेगा।

अनैतिक-अत्याचार

तमाम नकारात्मक खबरों के बावजूद विशेषज्ञों को भरोसा है कि आने वाले साल में महामारी पर नियंत्रण पाना संभव है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य विशेषज्ञ मारिया वान करखोव ने हाल में पत्रकारों से कहा था, महामारी को रोकने के औजार हमारे हाथों में है। जरूरत ऐसे पड़ाव पर पहुँचने की है जहाँ से कह सकें कि संक्रमण पर नियंत्रण पा लिया गया है। अब तक हम ऐसा कर भी सकते थे, पर कर नहीं पाए। अमीर देशों में करीब 65 प्रतिशत लोग टीके लगवा चुके हैं और गरीब देशों में सात प्रतिशत को टीके की कम से कम एक खुराक मिली है। यह असंतुलन अनैतिक और अत्याचार है। रायटर्स की रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गुरुवार को अमीर देशों को चेतावनी दी कि वे अपने यहाँ बूस्टर शॉट्स की व्यवस्था के बारे में फिलहाल न सोचें, बल्कि गरीब देशों के लिए टीके भेजें, क्योंकि वहाँ टीकाकरण बहुत धीमा है।

जबर्दस्त असंतुलन

जनसंख्या के आधार पर देखें, तो अमीर देशों में गरीब देशों की तुलना में 17 गुना टीकाकरण हुआ है। पीपुल्स वैक्सीन अलायंस संगठन के अनुसार अकेले ब्रिटेन में तीसरे बूस्टर शॉट्स की संख्या निर्धनतम देशों के कुल वैक्सीनेशन से ज्यादा है। युनिसेफ के अनुसार 10 दिसंबर तक दुनिया के 144 देशों को कोवैक्स के माध्यम से केवल 65 करोड़ से कुछ ऊपर डोज़ मिल पाई हैं। अफ्रीका की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी को पहली डोज़ भी नहीं मिल पाई है। ये गरीब देश पूरी तरह से कोवैक्स-व्यवस्था पर ही निर्भर हैं। उदाहरण के लिए हेती में 1.00, कांगो में 0.02 और बुरुंडी में 0.01 फीसदी लोगों को कम से कम एक डोज़ लगी है।

Sunday, May 16, 2021

दूसरी लहर से आगे का परिदृश्य


पिछले एक-डेढ़ महीने के हौलनाक-मंज़र के बाद लगता है कि कोरोना की दूसरी लहर जितनी तेजी से उठी थी, उतनी तेजी से इसके खत्म होने की उम्मीदें हैं। इस लहर का सबसे बड़ा सबक क्या है? क्या हम ईमानदारी से अपनी खामियों को पढ़ पाएंगे? ऐसा क्यों हुआ कि भारी संख्या में लोग अस्पतालों के दरवाजों पर सिर पटक-पटक कर मर गए? उन्हें ऑक्सीजन नहीं मिली, दवाएं नहीं मिलीं, इलाज नहीं मिला। ऐसे तमाम सवाल हैं।

क्या सरकार (जिसमें केंद्र ही नहीं, राज्य भी शामिल हैं) की निष्क्रियता से ऐसा हुआ? क्या सरकारें भविष्य को लेकर चिंतित और कृत-संकल्प है? क्या यह संकल्प ‘राजनीति-मुक्त’ है? भविष्य का कार्यक्रम क्या है? जिस चिकित्सा-तंत्र की हमें जरूरत है, वह कैसे बनेगा और कौन उसे बनाएगा? हमारी सार्वजनिक-स्वास्थ्य नीति क्या है? वैक्सीनेशन-योजना क्या है? लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था क्या सदमे को बर्दाश्त कर पाएगी? सवाल यह भी है कि साल में दूसरी बार संकट से घिरे प्रवासी कामगारों की रक्षा हम कैसे करेंगे?

प्रवासी कामगार

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को केंद्र, दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रवासी श्रमिकों को सूखा राशन प्रदान करने का निर्देश दिया। अधिकारियों को प्रवासी मजदूरों के पहचान पत्रों पर जोर नहीं देना है। मजदूरों पर यकीन करते हुए उन्हें राशन दिया जाए। इन मजदूरों के लिए एनसीआर में सामुदायिक रसोइयाँ स्थापित करने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है कि उन्हें दिन में दो बार भोजन मिले। उन्हें परिवहन मिले, जो अपने घरों में वापस जाना चाहते हैं। ये वही समस्याएं हैं, जो पिछले साल के लॉकडाउन के वक्त इन कामगारों ने झेली थीं।

Thursday, April 29, 2021

पहली लहर से धोखा खा गए


मोदी सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार के विजय राघवन मानते हैं कि कोविड-19 की पहली लहर के बाद देश में स्वास्थ्य से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने की कोशिशों में ढील आ गई। इंडियन एक्सप्रेस के साथ विशेष बातचीत में उन्होंने यह भी कहा कि बड़े से बड़े कदमों के बावजूद इंफ्रास्ट्रक्चर उस स्तर पर नहीं आ सकता था, जो दूसरी लहर से पैदा हुई असाधारण परिस्थितियों का सामना कर पाता। पहली लहर के समय केंद्र और राज्य सरकारों ने अस्पतालों को सुदृढ़ करने और सुविधाएं बेहतर करने का प्रयास किया था। पर जैसे ही वह लहर हल्की पड़ी, तो तात्कालिकता की वह लहर भी हल्की पड़ गई। 

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इंडियन एक्सप्रेस में पढ़ें समाचार

यहाँ पूरा इंटरव्यू विस्तार से

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दूसरी लहर के वेग से सभी को हैरत हुई है। चूंकि पहली लहर हल्की पड़ गई थी और वैक्सीन बनकर तैयार हो गई थी, इसलिए वर्तमान लहर का अनुमान लगा पाने में गलती हुई। हालांकि हमें दूसरे देशों में चल रही दूसरी लहर की जानकारी थी, पर हमारे पास वैक्सीन थीं और मॉडलिंग एक्सरसाइज़ नहीं बता रही थीं कि दूसरी लहर इतनी घातक होगी। इसलिए वैक्सीनेशन के काम को तेजी से चलाने की जरूरत महसूस की गई। साथ में कोविड से जुड़े आचरण का पालन करने की जरूरत भी थी। पहला काम तो हुआ, पर दूसरे (उपयुक्त आचरण) में हम ढीले पड़ गए।  

जल्द काबू पा लेंगे

उनका कहना है कि दिल्ली में आ रहे दैनिक संक्रमणों की संख्या में हम जल्द ही गिरावट देखेंगे और दूसरी लहर अगले महीने अपने उच्चतम स्तर पर होगी। पर बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि हमारा आचरण कैसा रहता है। उत्तर प्रदेश की स्थिति चिंताजनक है। तमिलनाडु और कर्नाटक की दशा भी खराब है। पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड पर भी नजर रखनी होगी। इन्हीं राज्यों से स्थिति में सुधार होगा। कठोर कदमों हालात को सुधारने में मदद मिलेगी। स्थिति इससे ज्यादा खराब होने वाली नहीं है।

विजय राघवन प्रतिष्ठित बायोलॉजिस्ट हैं और वे बायोटेक्नोलॉजी विभाग के सचिव भी रह चुके हैं। वे नहीं मानते कि हमने वैक्सीन की माँग का अनुमान गलत लगाया। हमने और वैक्सीन मँगाने का इंतजाम किया है और अगले कुछ महीनों में हमारे पास वे आ जाएंगी। सीरम इंस्टीट्यूट का नोवावैक्स के साथ गठबंधन है। यह वैक्सीन जुलाई तक आ जाएगी। जॉनसन एंड जॉनसन का बायलॉजिकल ई के साथ समझौता है। यह भी जल्द आएगी। ज़ायडस की वैक्सीन भी बहुत जल्द आ जाएगी। स्पूतनिक आ चुकी है। चूंकि इन सबकी व्यवस्था पिछले साल महामारी के दौरान कर ली गई थी, इसलिए वे इतनी जल्दी उपलब्ध होने वाली हैं। चूंकि दूसरी लहर जबर्दस्त है, इसलिए लग रहा है कि स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है।


 

Sunday, December 20, 2020

सेहत किसकी जिम्मेदारी?

महामारी के कारण यह साल अपने आप वैश्विक स्वास्थ्य-चेतना वर्ष बन गया है। पर वैश्विक स्वास्थ्य-नीतियों का इस दौरान पर्दाफाश हुआ है। पिछले एक हफ्ते में स्वास्थ्य से जुड़ी तीन बड़ी खबरें हैं। गत 12 दिसंबर को स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) जारी किया, जिसके अनुसार बाल पोषण के संकेतक उत्साहवर्धक नहीं हैं। बच्चों की शारीरिक विकास अवरुद्धता में बड़ा सुधार नहीं है और 13 राज्यों मे आधे से ज्यादा बच्चे और महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित हैं।

इस रिपोर्ट पर बात हो ही रही थी कि शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के एक पीठ ने स्वास्थ्य को नागरिक का मौलिक अधिकार मानते हुए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश सरकार को दिए हैं। तीसरी खबर यह है कि भारत में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या एक करोड़ पार कर गई है। अमेरिका के बाद भारत दूसरा ऐसा देश है, जहाँ एक करोड़ से ज्यादा कोरोना-पीड़ित हैं। 

Monday, December 14, 2020

वैश्विक स्वास्थ्य-नीतियों पर भी विचार होना चाहिए

कोविड-19 ने इनसान के सामने मुश्किल चुनौती खड़ी की है, जिसका जवाब खोजने में समय लगेगा। कोई नहीं कह सकता कि इस वायरस का जीवन-चक्र अब किस जगह पर और किस तरह से खत्म होगा। बेशक कई तरह की वैक्सीन सामने आ रहीं हैं, पर वैक्सीन इसका निर्णायक इलाज नहीं हैं। इस बात की गारंटी भी नहीं कि वैक्सीन के बाद संक्रमण नहीं होगा। यह भी पता नहीं कि उसका असर कितने समय तक रहेगा।

महामारी से सबसे बड़ा धक्का करोड़ों गरीबों को लगा है, जो प्रकोपों का पहला निशाना बनते हैं। अफसोस कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की ओर देख रही दुनिया अपने भीतर की गैर-बराबरी और अन्याय को नहीं देख पा रही है। इस महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति दुनिया के पाखंड का पर्दाफाश किया है।

नए दौर की नई कहानी

सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में शुरू हुआ था। फिर नब्बे के दशक में दुनिया ने पूँजी के वैश्वीकरण और वैश्विक व्यापार के नियमों को बनाना शुरू किया। इस प्रक्रिया के केंद्र में पूँजी और कारोबारी धारणाएं ही थीं। ऐसे में गरीबों की अनदेखी होती चली गई। हालांकि उस दौर में वैश्विक गरीबी समाप्त करने और उनकी खाद्य समस्या का समाधान करने के वायदे भी हुए थे, पर पिछले चार दशकों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है।

Saturday, December 12, 2020

कोरोना महामारी ने खोल कर रख दी वैश्विक स्वास्थ्य नीतियों की पोल, गारंटी नहीं कि वैक्सीन के बाद नहीं होगा संक्रमण


सन 2020 में जब दुनिया को महामारी ने घेरा तो पता चला कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं अस्त-व्यस्त हैं। निजी क्षेत्र ने मौके का फायदा उठाना शुरू कर दिया। यह केवल भारत या दूसरे विकासशील देशों की कहानी नहीं है। ब्रिटेन और अमेरिका जैसे धनवान देशों का अनुभव है।

प्रमोद जोशी

कोविड-19 ने इनसान के सामने मुश्किल चुनौती खड़ी की है, जिसका जवाब खोजने में समय लगेगा। कोई नहीं कह सकता कि इस वायरस का जीवन-चक्र अब किस जगह पर और किस तरह से खत्म होगा। बेशक कई तरह की वैक्सीन सामने आ रहीं हैं, पर वैक्सीन इसका निर्णायक इलाज नहीं हैं। इस बात की गारंटी भी नहीं कि वैक्सीन के बाद संक्रमण नहीं होगा। यह भी पता नहीं कि उसका असर कितने समय तक रहेगा।

महामारी से सबसे बड़ा धक्का करोड़ों गरीबों को लगा है, जो प्रकोपों का पहला निशाना बनते हैं। अफसोस कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की ओर देख रही दुनिया अपने भीतर की गैर-बराबरी और अन्याय को नहीं देख पा रही है। इस महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति दुनिया के पाखंड का पर्दाफाश किया है।

नए दौर की नई कहानी

सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में शुरू हुआ था। फिर नब्बे के दशक में दुनिया ने पूंजी के वैश्वीकरण और वैश्विक व्यापार के नियमों को बनाना शुरू किया। इस प्रक्रिया के केंद्र में पूंजी और कारोबारी धारणाएं ही थीं। ऐसे में गरीबों की अनदेखी होती चली गई। हालांकि उस दौर में वैश्विक गरीबी समाप्त करने और उनकी खाद्य समस्या का समाधान करने के वायदे भी हुए थे, पर पिछले चार दशकों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है।

Monday, December 11, 2017

अस्पताल बंद करने से क्या हो जाएगा?

अस्पताल का लाइसेंस रद्द करने से क्या अस्पताल सुधर जाएगा? ऐसा होता तो देश के तमाम सरकारी अस्पताल अबतक बंद हो चुके होते। जनता नाराज है और उसकी नाराजगी का दोहन करने में ऐसे फैसलों से कुछ देर के लिए मदद मिल सकती है, पर यह बीमारी का इलाज नहीं है, बल्कि उससे दूर भागना है। सरकारी हों या निजी अस्पतालों के मानकों को मजबूती से लागू कराइए, पर उन्हें बंद मत कीजिए, बल्कि नए अस्पताल खोलिए। जनता को इस बात की जानकारी भी होनी कि देश में अस्पताल और स्कूल खोलने और उन्हें चलाने के लिए कितने लोगों की जेब भरनी पड़ती है। 

शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय तीन ऐसी सुविधाएं हैं, जो खरीदने वाली वस्तुएं बन गईं हैं, जबकि इन्हें हासिल करने का समान अवसर नागरिकों के पास होना चाहिए। हमारी व्यवस्थाएं चुस्त होतीं, तो अस्पताल खुली लूट नहीं मचा पाते। मेरा इरादा अस्पतालों के मैनेजमेंट की मदद करना नहीं है। वास्तव में यह धंधा है, जिसपर बड़ी पूँजी लगी है। पर यह धंधा क्यों बन गया, इसपर हमें विचार करना चाहिए? हमारा देश सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में दुनिया के सबसे खराब देशों में शामिल किया जाता है। बावजूद इसके हमारे यहाँ तमाम दूसरे देशों से लोग इलाज कराने आ रहे हैं। हमारे तौर-तरीकों में अंतर्विरोध हैं। ऐसा भी नहीं है कि डॉक्टरों ने हत्या करने का काम शुरू कर दिया है। कोई डॉक्टर सायास किसी की हत्या नहीं करेगा। वह उपेक्षा कर सकता है, लापरवाही बरत सकता है और वह अकुशल भी हो सकता है, पर यदि हम उसके इरादे पर शक करेंगे तो चिकित्सा व्यवस्था को चलाना मुश्किल हो जाएगा। 
नवजात शिशु को मृत बताने वाले मैक्स शालीमार बाग अस्पताल का दिल्ली सरकार ने लाइसेंस रद्द कर दिया है। सरकार का कहना है कि इस किस्म की लापरवाही स्वीकार नहीं की जा सकती। एक महिला ने दो बच्चों को जन्म दिया था। अस्पताल ने दोनों को मृत बताकर उन्हें पॉलिथीन में लपेटकर परिजनों को सौंप दिया था। अंतिम संस्कार के लिए ले जाते वक्त परिजनों ने एक बच्चे में हरकत देखी, जिसके बाद नवजात को एक दूसरे हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। कुछ दिन बाद उस शिशु की भी मौत हो गई। यह खबर प्राइवेट अस्पताल से आई है, पर कुछ महीने ऐसी ही घटना दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में भी हुई थी। क्या उसे बंद करना चाहिए?

Sunday, October 5, 2014

सामूहिक इच्छा होगी तो सब साफ हो जाएगा

महात्मा गांधी के चरखा यज्ञ की सामाजिक भूमिका पर कम लोगों ने ध्यान दिया होगा। देशभर के लाखों लोग जब चरखा चलाते थे, तब कपड़ा बनाने के लिए सूत तैयार होता था साथ ही करोड़ों लोगों की ऊर्जा एकाकार होकर राष्ट्रीय ऊर्जा में तबदील होती थी। प्रतीकात्मक कार्यक्रमों का कुशलता से इस्तेमाल व्यावहारिक रूप से बड़े परिणाम भी देता है। जैसे लाल बहादुर शास्त्री के जय जवान, जय किसान के नारे ने संकट के मौके पर देश को एक कर दिया। यह एकता केवल संकटों का सामना करने के लिए ही नहीं चाहिए, बल्कि राष्ट्रीय निर्माण के लिए भी इसकी जरूरत है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना-आंदोलन या निर्भया मामले में जनता के रोष के पीछे भी यह राष्ट्रीय एकता खड़ी थी। इस एकता या सर्वानुमति की अक्सर जरूरत होगी, क्योंकि हमारी व्यवस्था इतनी प्रभावशाली नहीं है कि सारे काम हल करके दे दे। उसे प्रभावशाली बनाने के लिए भी जनांदोलनों की जरूरत है।