Tuesday, September 29, 2020

प्रेरक पत्रकार हैरल्ड इवांस

मैंने अपना पत्रकारिता का जीवन जब शुरू किया, तब लाइब्रेरी में सबसे पहले एडिटिंग एंड डिजाइन शीर्षक से हैरल्ड इवांस की पाँच किताबों का एक सेट देखा था, जिसमें अखबारों के रूपांकन, ले-आउट, डिजाइन के आकर्षक ब्यौरे थे। इसके बाद उनकी कई किताबें देखने को मिलीं, जो या तो सम्पादन, लेखन या डिजाइन से जुड़ी थीं। फिर 1984 में फ्रंट पेज हिस्ट्री देखी। यह अपने आप में एक रोचक प्रयोग था। अखबारों में घटनाओं की रिपोर्टिंग और तस्वीरों के माध्यम से ऐतिहासिक विवरण दिया गया था। उन दिनों हैरल्ड इवांस की ज्यादातर रचनाएं पत्रकारिता के कौशल से जुड़ी हुई थीं। उसी दौरान रूपर्ट मर्डोक के साथ उनकी कहासुनी की खबरें आईं और अंततः लंदन टाइम्स से उनकी विदाई हो गई।

हैरल्ड इवांस ने मेरे जैसे न जाने कितने पत्रकारों को प्रेरित प्रभावित किया। मुझे खुशी तब हुई, जब सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में एमजे अकबर के नेतृत्व में आनंद बाजार पत्रिका समूह ने नई धज का अखबार टेलीग्राफ शुरू किया, तो उसमें इनसाइट नाम से एक पेज भी था, जो शायद संडे टाइम्स के इनसाइट से प्रेरित था। मैं उन दिनों स्वतंत्र भारत में काम करता था। संडे टाइम्स की एक कॉपी पायनियर के दफ्तर में आती थी, जो डॉ सुरेंद्र नाथ घोष के कमरे में रहती थी। हमें पढ़ने को नहीं मिलती थी। इधर-उधर से या ब्रिटिश लाइब्रेरी जाकर पढ़ लेते थे। अक्तूबर 1983 में मैं नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में आया, तो वहाँ संडे टाइम्स पढ़ने को मिलता था। राजेंद्र माथुर दिल्ली से एक कॉपी भिजवाते थे। पर तबतक हैरल्ड इवांस संडे टाइम्स से हट चुके थे।

हाल में जब उनके निधन की खबर आई, तब लगा कि युग वास्तव में बदल गया है। पत्रकारिता की परिभाषा बदल गई है और उसे संरक्षण देने वालों का नजरिया भी। हैरल्ड इवांस उस परिवर्तन की मध्य-रेखा थे, जिनके 70 वर्षीय करियर में करीब आधा समय खोजी पत्रकारिता को उच्चतम स्तर तक पहुँचाने में लगा। और फिर सत्ता-प्रतिष्ठान की ताकत से लड़ते हुए वह सम्पादक, एक प्रखर लेखक और प्रकाशक बन गया। 92 साल की वय में उन्होंने संसार को अलविदा कहा। इसके पहले उन्होंने न जाने कितने किस्म के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घोटालों का पर्दाफाश किया, मानवाधिकार की लड़ाइयाँ लड़ीं और मानवीय गरिमा को रेखांकित करने वाली कहानियों को दुनिया के सामने रखा।

Monday, September 28, 2020

अफ़ग़ान-वार्ता से कुछ न कुछ हासिल जरूर होगा


अफग़ानिस्तान में शांति स्थापना के लिए सरकार और तालिबान के बीच बातचीत दोहा में चल रह है। पहली बार दोनों पक्ष दोहा में आमने-सामने हैं। इस वार्ता के दौरान यह बात भी स्पष्ट होगी कि देश की जनता का जुड़ाव किस पक्ष के साथ कितना है। पिछले चार दशकों में यह देश लगातार एक के बाद अलग-अलग ढंग की राज-व्यवस्थाओं को देखता रहा है। कोई भी पूरी तरह सफल नहीं हुई है। इन व्यवस्थाओं में राजतंत्र से लेकर कम्युनिस्ट तंत्र और कठोर इस्लामिक शासन से लेकर वर्तमान अमेरिका-परस्त व्यवस्था शामिल है, जो अपेक्षाकृत आधुनिक है, पर उसका भी जनता के साथ पूरा जुड़ाव नहीं है। इसमें भी तमाम झोल हैं।

पिछले साल हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव के बाद अशरफ गनी के जीतने की घोषणा हुई, पर अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया। अंततः उनके साथ समझौता करना पड़ा और अब्दुल्ला अब्दुल्ला अब राष्ट्रीय सुलह-समझौता परिषद के अध्यक्ष हैं और इस वार्ता में सरकारी पक्ष का नेतृत्व कर रहे हैं। इस सरकार का देश के ग्रामीण इलाकों पर नियंत्रण नहीं है। तालिबान का असर बेहतर है। उनके बीच भी कई प्रकार के कबायली ग्रुप हैं।

अमेरिकी पलायन

पिछले दो दशक से अमेरिका और यूरोप के देश काबुल सरकार का सहारा बने हुए थे, पर वे अब खुद भागने की जुगत में हैं। कहना मुश्किल है कि विदेशी सेना की वापसी के बाद की व्यवस्था कैसी होगी, पर अच्छी बात यह है कि सभी पक्षों के पास पिछले चार दशक की खूंरेज़ी के दुष्प्रभाव का अनुभव है। सभी पक्ष ज्यादा समझदार और व्यावहारिक हैं।

Sunday, September 27, 2020

संजीदगी पर हावी राजनीतिक शोर

हाल में सम्पन्न हुआ संसद का मॉनसून सत्र पिछले दो दशकों का सबसे छोटा सत्र था। महामारी के प्रसार को देखते हुए यह स्वाभाविक भी था, पर इस जितने कम समय के लिए इसका कार्यक्रम बनाया गया था, उससे भी आठ दिन पहले इसका समापन करना पड़ा। बावजूद इसके संसदीय कर्म के हिसाब से यह सत्र काफी समय तक याद रखा जाएगा। इस दौरान लोकसभा ने निर्धारित समय की तुलना में 160 फीसदी और राज्यसभा ने 99 फीसदी काम किया। इन दस दिनों के लिए दोनों सदनों के पास 40-40 घंटे का समय था, जबकि लोकसभा ने करीब 58 घंटे और राज्यसभा ने करीब 39 घंटे काम किया। यह पहली बार हुआ जब सत्र के दौरान कोई अवकाश नहीं था। दोनों सदनों ने अपने दस दिन के सत्र में 27 विधेयक पास किए और पाँच विधेयकों को वापस लेने की प्रक्रिया पूरी की गई। इन विधेयकों में 11 ऐसे थे, जिन्होंने जून में जारी किए गए अध्यादेशों का स्थान लिया। 

इस सत्र की जरूरत इसलिए भी थी, क्योंकि तमाम संसदीय कर्म अधूरे पड़े थे। इस सत्र के शुरू होने के पहले संसद के पास पहले से 46 विधेयक लंबित थे। इनके अलावा नए 22 विधेयक इस सत्र में लाए जाने थे। कुछ अध्यादेशों के स्थान पर विधेयकों को लाना था और कुछ विधेयकों को वापस लेना था। हमारी प्रशासनिक-व्यवस्था सफलता के साथ तभी चल सकती है, जब संसदीय कर्म कुशलता के साथ सम्पन्न होता रहे। संसदीय बहस, प्रश्नोत्तर और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव सुनने में मामूली बातें लगती हैं, पर ये बातें ही लोकतंत्र को सफल बनाती हैं।

Thursday, September 24, 2020

पत्रकारिता और राजनीति का द्वंद्व

यह आलेख मैंने अगस्त 2018 में लिखा था, जो गंभीर समाचार के पत्रकारिता से जुड़े विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। मैं इसे अपने ब्लॉग में लगा नहीं पाया था। इन दिनों राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के संदर्भ में कुछ बातें उठीं, तो इस आलेख का एक अंश मैंने फेसबुक में लगाया। संभव है, कोई पाठक इसे पूरा पढ़ने चाहें, तो मैं इसे यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। इसके संदर्भ 2018 के ही रहेंगे। 

हाल में एबीपी न्यूज चैनल के तीन वरिष्ठ सदस्यों को इस्तीफे देने पड़े। इन तीन में से पुण्य प्रसून वाजपेयी ने बाद में एक वैबसाइट में लेख लिखा, जिसमें उस घटनाक्रम का विस्तार से विवरण दिया, जिसमें उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस विवरण में एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर के साथ, जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके एक संवाद के कुछ अंश भी थे। संवाद का निष्कर्ष था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत आलोचना से उन्हें बचना चाहिए।

इस सिलसिले में ज्यादातर बातें पुण्य प्रसून की ओर से या उनके पक्षधरों की ओर से सामने आई हैं। चैनल के मालिकों और प्रबंधकों ने कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं किया। एक और खबर ने हाल में ध्यान खींचा है। जेडीयू के उम्मीदवार हरिवंश नारायण सिंह कांग्रेसी उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को हराकर राज्यसभा के उप-सभापति चुन लिए गए।

हरिवंश मूलतः पत्रकार हैं और लम्बे समय तक उन्होंने रांची के अखबार प्रभात खबर का सम्पादन किया। वे जेडीयू प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर राज्यसभा आए थे। संसद के उच्च सदन की परिकल्पना लेखकों, वैज्ञानिकों, पत्रकारों और ललित कलाओं से जुड़े व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने की भी है, पर उसके लिए मनोनयन की व्यवस्था है।

Monday, September 21, 2020

साइबर-सूराखों के रास्ते ‘हाइब्रिड वॉरफेयर’

इस हफ्ते ‘हाइब्रिड वॉरफेयर’ से जुड़ी दो सनसनीखेज खबरें हैं। सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी एक चीनी कंपनी ‘विदेशी निशाने’ नाम से डेटाबेस तैयार कर रही है, जिसमें बड़ी संख्या में दुनियाभर के लोगों पर नजरें रखी जा रहीं हैं। जिन पर निगाहें हैं उनमें भारत के दस हजार से ज्यादा व्यक्ति शामिल हैं। ज्यादातर महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उनके बारे में चीन क्या जानना चाहता है, क्यों जानना चाहता है ऐसे सवालों के जवाब बाद में मिलेंगे, पर जब इस सिलसिले में पूछताछ की गई तो पूरी वैबसाइट डाउन कर दी गई। इससे लगता है कि इसके पीछे कोई रहस्य जरूर है। कम से कम दुनिया में साइबर शक्ति के बढ़ते इस्तेमाल का पता इससे जरूर लगता है।

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ज़ेंज़ुआ डेटा इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी कंपनी की ओर से जिन भारतीयों पर नज़र रखी जा रही है, उनमें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, गांधी परिवार, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, नवीन पटनायक जैसे बड़े नेता, राजनाथ सिंह-पीयूष गोयल जैसे केंद्रीय मंत्री, सीडीएस विपिन रावत समेत कई बड़े सेना के अफसर शामिल हैं। समाज के हरेक वर्ग के लोगों पर चीन की निगाहें हैं।

Sunday, September 20, 2020

क्यों नाराज हैं किसान?


पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत देश के कुछ हिस्सों में खेती से जुड़े तीन नए विधेयकों को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। किसान इनका विरोध कर रहे हैं, विरोधी दल सरकार पर निशाना साध रहे हैंसरकार कह रही है कि ये विधेयक किसानों के हित में हैं और विरोधी दल किसानों को बजाय उनका हित समझाने के गलत बातें समझा रहे हैं। किसानों की आशंकाओं से जुड़े सवालों के जवाब भी दिए जाने चाहिए। उनकी सबसे बड़ी चिंता है कि सरकारी खरीद बंद हुई, तो वे व्यापारियों के रहमो-करम पर होंगे।

इन कानूनों में कहीं भी सरकारी खरीद बंद करने या न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने की बात नहीं है। केवल अंदेशा है कि सरकार उसे खत्म करेगी। इस अंदेशे के पीछे भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन की योजना है। शांता कुमार समिति का सुझाव है कि केंद्र सरकार अनाज खरीद का जिम्मा राज्य सरकारों पर छोड़े। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 घंटे के भीतर दूसरी बार किसानों को भरोसा दिलाने की कोशिश की है कि एमएसपी की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होने जा रहा है।

Wednesday, September 16, 2020

‘उदार हिंदू-विचार’ संभव या असंभव?

अब जब अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो गया है, तब तीन तरह की प्रतिक्रियाएं दिखाई और सुनाई पड़ रही हैं। सबसे आगे है मंदिर समर्थकों का विजय-रथ, उसके पीछे है कथित लिबरल-सेक्युलरवादियों की निराश सेना। उन्हें लगता है कि हार्डकोर हिन्दुत्व के पहियों के नीचे देश की बहुलवादी, उदार संस्कृति ने दम तोड़ दिया है। इन दोनों शिखरों के बीच मौन-बहुमत खड़ा है, जो कभी खुद को कट्टरवाद का विरोधी मानता है, और राम मंदिर को कट्टरता का प्रतीक भी नहीं मानता।

बीच वाले इस समूह में हिंदू तो हैं ही, कुछ मुसलमान भी शामिल हैं। भारत राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की भूमिका को लेकर विमर्श की क्षीण-धारा भी इन दिनों दिखाई पड़ रही है। आने वाले दौर की राजनीति और सामाजिक व्यवस्था व्यापक सामाजिक विमर्श के दरवाजे खोलेगी और जरूर खोलेगी। यह विमर्श एकतरफा नहीं हो सकता। भारतीय समाज में तमाम अंतर्विरोध हैं, टकराहटें हैं, पर एक धरातल पर अनेक विविधता को जोड़कर चलने की सामर्थ्य भी है। फिलहाल सवाल यह है कि क्या हमारी यह विशेषता खत्म होने जा रही है?  

Monday, September 14, 2020

वैश्विक पूँजी क्या चीनी घर बदलेगी, भारत आएगी?

जापान सरकार अपने देश की कंपनियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर रही है कि वे चीन से अपने कारोबार को समेट कर भारत, बांग्लादेश या किसी आसियान देश में ले जाएं, तो उन्हें विशेष सब्सिडी दी जा सकती है। इसके पीछे देश के सप्लाई चेन का विस्तार करने के अलावा किसी एक क्षेत्र पर आधारित न रहने की इच्छा है। और गहराई से देखें, तो वैश्विक तनातनी में चीन के बजाय दूसरे देशों के साथ आर्थिक रिश्ते कायम करने की मनोकामना। चीन से विदेशी कंपनियों के हटने पर दो बातों मन में आती हैं। एक, क्या इससे चीनी अर्थव्यवस्था को धक्का लगेगा? और दूसरे क्या हमें इसका कोई फायदा मिलेगा?

चीन के बढ़ते वैश्विक हौसलों के पीछे उसकी बढ़ती आर्थिक शक्ति का हाथ है। तीस साल पहले चीन में वैश्विक पूँजी लग रही थी, पर अब चीनी पूँजी का वैश्वीकरण हो रहा है। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और यूरोप में भी। चीनी आर्थिक रूपांतरण में उन अमेरिकी कंपनियों की भूमिका है, जिन्होंने अपने सप्लाई चेन को किफायती बनाए रखने के लिए चीन में अपने उद्योग लगाए थे। अब चीन से उद्योग हटेंगे, तो उसका असर क्या होगा? अमेरिका और यूरोप के बाजार चीनी माल मँगाना बंद करेंगे, तो चीन को कितना धक्का लगेगा?

Sunday, September 13, 2020

चीन क्या दबाव में है या दबेगा?

मॉस्को में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के दौरान भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच पाँच सूत्री समझौता हो जाने के बाद भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि चीनी सेना अप्रेल-मई की स्थिति पर वापस चली जाएंगी। ऐसा मानने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इस समझौते में न तो वास्तविक नियंत्रण रेखा का नाम है और न यथास्थिति कायम करने का जिक्र है। होता भी तो वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर चीन और भारत की अलग-अलग परिभाषाएं हैं। सन 2013 में जब चीनी सैनिकों की लद्दाख में घुसपैठ का मामला सामने आया, तब भी यही बात कही गई थी। 

भारत और चीन की सीमा पर कम से कम 20 जगहों के सीमांकन को लेकर दोनों देशों के बीच असहमतियाँ हैं। सन 1980 से लेकर अबतक दोनों के बीच वार्ताओं के कम से कम 20 दौर हो चुके हैं। चीन के सीमा विस्तार की रणनीति को ‘सलामी स्लाइस’ की संज्ञा दी जाती है। माना जाता है कि चीनी सेनाएं धीरे-धीरे किसी इलाके के में गश्त के नाम पर घुसपैठ बढ़ाती हैं और सलामी के टुकड़े की तरह उसे दूसरे देश से काटकर अलग कर देती हैं। चीन इस रणनीति को दक्षिण चीन सागर में भी अपना रहा है। इस इलाके में अंतरराष्ट्रीय सीमा तो स्पष्ट नहीं है, सन 1962 के युद्ध के बाद की वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर भी अस्पष्टता है।

सन 2013 में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में इसी किस्म की गश्त से भारत का 640 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हथिया लिया है। श्याम सरन तब यूपीए सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अंतर्गत काम करने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे। सरकार ने उनकी बात को स्वीकार नहीं किया, पर यह बात रिकॉर्ड में मौजूद है। लगभग उसी अंदाज में इस साल सरकार ने शुरू में चीनी घुसपैठ की बात को स्वीकार नहीं किया था।

भारत ने उसी साल चीन के साथ बॉर्डर डिफेंस कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीसीडीए) पर हस्ताक्षर किए थे। बीसीडीए प्रस्ताव चीन की ओर से आया था। वह चाहता था कि चीन के प्रधानमंत्री ली खछ्यांग की भारत यात्रा के पहले वह समझौता हो जाए। इस समझौते के बावजूद उसी साल अप्रैल में देपसांग इलाके में चीनी घुसपैठ हुई और उसके अगले साल चुमार इलाके में। दरअसल चीन के साथ 1993, 1996, 2005 और 2012 में भी ऐसे ही समझौते हुए थे, पर सीमा को लेकर चीन के दावे हर साल बदलते रहे।

बहरहाल मॉस्को में हुआ समझौता दो कारणों से महत्वपूर्ण है। लगता है कि चीन को इस टकराव के दूरगामी परिणाम समझ में आए हैं, और वह दबाव में है। यह हमारा अनुमान है। वास्तव में ऐसा है या नहीं, यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा। हम मानते हैं कि वह फिर भी नहीं माना और टकराव बढ़ाने कोशिश करता रहा, तो उसे उसकी कीमत चुकानी होगी। सीमा विवाद को लेकर जिस पाँच सूत्री योजना पर सहमति बनी है, उसे पढ़ने से कोई सीधा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। असल बात भरोसे की और समझौते की शब्दावली को समझने की है। दूसरी बात यह है कि चीनी सेना की ताकत को लेकर दुनिया का भ्रम टूटा है। अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देशों ने चीन को सैनिक महाशक्ति के रूप में दिखाना शुरू कर दिया है। चीन खुद भी ऐसा दिखाने का प्रयास करता है। वह भ्रम टूटा है और यदि गतिरोध बना रहा, तो और टूटेगा। 

सवाल है कि अप्रेल-मई से पहले की स्थिति पर चीन वापस जाएगा या नहीं? नहीं गया, तो हमारे पास उसे रास्ते पर लाने का तरीका क्या है? इस समझौते के सिलसिले में जो खबरें मिली हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय विदेशमंत्री ने कहा है कि अब भारतीय सेना तबतक पीछे नहीं हटेगी, जबतक वह चीनी सेना के पीछे हटने के बारे में आश्वस्त नहीं हो जाएगी। इसका मतलब है कि भारत अब दबकर नहीं, बल्कि चढ़कर बात करेगा। 

Monday, September 7, 2020

कितनी गहरी है मुस्लिम ब्लॉक में दरार?

बीसवीं सदी में मुस्लिम ब्लॉक कभी बहुत एकताबद्ध नजर नहीं आया, पर कम से कम फलस्तीन के मामले में उसकी एकजुटता नजर आती थी। अब लग रहा है कि वह भी बदल रहा है। इसके समांतर मुस्लिम देशों में दरार पड़ रही है। यह दरार केवल फलस्तीन, इसरायल या कश्मीर के कारण नहीं है। राष्ट्रीय मतभेदों के ट्रिगर पॉइंट के पीछे दीन नहीं, दुनिया है। यानी आर्थिक और सामरिक बातें, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और नेतृत्व हथियाने की महत्वाकांक्षाएं।  

संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख ख़लीफ़ा बिन ज़ायेद ने गत 29 अगस्त को 48 साल पुराने 'इसरायल बहिष्कार क़ानून' को खत्म करने की घोषणा की, तो किसी को हैरत नहीं हुई। इस तरह अरब देशों के साथ इसरायल के रिश्तों में बड़ा बदलाव आ गया है। दुनिया इस बदलाव के लिए तैयार बैठी थी। यूएई की घोषणा में कहा गया है कि इसरायल का बहिष्कार करने के लिए वर्ष 1972 में बना संघीय क़ानून नंबर-15 खत्म किया जाता है। यह घोषणा केवल अरब देशों के साथ इसरायल के रिश्तों को ही पुनर्परिभाषित नहीं करेगी, बल्कि इस्लामिक देशों के आपसी रिश्तों को भी बदल देगी।

Sunday, September 6, 2020

अब दबाव में आया चीन


भारत और चीन के रक्षामंत्रियों के बीच मॉस्को में हुई बातचीत से भी लगता नहीं कि कोई निर्णायक परिणाम हासिल हुआ है, फिर भी पिछले सप्ताह की गतिविधियों से इतना जरूर नजर आने लगा है कि अब चीन दबाव में है। राजनाथ सिंह और वेई फेंग के बीच बातचीत चीनी पहल पर हुई है। इस बैठक में राजनाथ सिंह ने कड़े लहजे में कहा कि चीनी सेना को पीछे वापस जाना चाहिए। पिछले हफ्ते दक्षिण पैंगांग क्षेत्र की ऊँची पहाड़ियों पर अपना नियंत्रण बना लेने के बाद भारतीय सेना अब बेहतर स्थिति में है।

लद्दाख में भारतीय सेना का मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत चीनी सैनिक मानसिक दबाव में हैं। भारत के प्रधानमंत्री से लेकर रक्षामंत्री, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और सेनाध्यक्ष सब लद्दाख जाकर सैनिकों का उत्साहवर्धन कर चुके हैं। इसके विपरीत चीन के राजनीतिक नेताओं की बात छोड़िए बड़े सैनिक अधिकारी भी सीमा पर नहीं पहुँचे हैं। गत 15 जून को गलवान में हुए टकराव में बड़ी संख्या में हताहत हुए अपने सैनिकों का सम्मान करना भी चीन ने उचित नहीं समझा। उन सैनिकों के परिवारों तक क्या संदेश गया होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

Saturday, September 5, 2020

तीन, तेरह में घिरा देश

इस साल फरवरी में जब कोरोना के संक्रमण की खबरें मीडिया में आईं, उसके पहले देश का सालाना बजट आ चुका था। तब हमारी चिंता थी आसन्न मंदी की। इस बीच कोरोना प्रकट हुआ। मार्च के महीने में पहले लॉकडाउन के समय पहला सवाल था कि अर्थव्यवस्था का क्या होगा? पहला लॉकडाउन खत्म होते-होते लद्दाख में चीनी हरकतों की खबरें आने लगीं और उसके बाद तीनों समस्याएं आपस में गड्ड-मड्ड हो गईं। तीनों ने तकरीबन एक ही समय पर सिर उठाया। तीनों पर काबू पाने के लिए हमें कम से कम अगले तीन महीनों के घटनाक्रम पर नजर रखनी होगी।

इन तीनों के साथ मोदी सरकार की प्रतिष्ठा भी जुड़ी है। तीनों को लेकर तेरह तरह की तजवीजें हैं। भारत के विश्लेषकों से लेकर विदेशी पर्यवेक्षक तक की निगाहें इन तीनों पर हैं। पिछले कुछ दिन से भारत में हर रोज़ कोरोना संक्रमण के 75 हज़ार से ज्यादा नए मामले सामने आ रहे हैं। नए मामलों की दैनिक संख्या में संख्या भारत में सबसे आगे है। इस हफ्ते जैसे ही यह खबर आई कि वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था में 23.9 फीसदी का संकुचन हुआ है, तो आलोचकों को लगा कि चौपट पर सवा चौपट। मोदी विरोधियों की बाँछें खिली हुईं हैं। गोया कि यह उनकी उपलब्धि है। इसमें हैरत क्या बात है?  शटडाउन का परिणाम तो यह आना ही था। पर आगे सुरंग अंधी नहीं है। रोशनी भी नजर आ रही है।  इन तीनों पर जीत हासिल करने का मतलब है, बहुत बड़ी उपलब्धि।

Wednesday, September 2, 2020

युवा-शक्ति के लिए शुभ संदेश

 

बदलाव को जन्म देगी भरती की नई प्रक्रिया 

केंद्र सरकार ने नौकरियों में भरती की जिस नई प्रवेश परीक्षा और प्रक्रिया की योजना पेश की है, उसके भीतर दूरगामी संभावनाएं छिपी हुई हैं। यह एक प्रकार की सामाजिक क्रांति को जन्म दे सकती है, बशर्ते इसे सावधानी से लागू किया जाए। यह प्रक्रिया ग्रामीण क्षेत्र के युवकों को मुख्यधारा में आने का मौका देगी, लड़कियों को महत्वपूर्ण सरकारी सेवाओं से जोड़ेगी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से सरकारी सेवाओं में आने के इच्छुक नौजवानों को आगे आने का अवसर देगी। इन सब बातों के अलावा प्रत्याशियों और सेवायोजकों दोनों के समय और साधनों का अपव्यय भी रुकेगा।

केंद्र सरकार ने गत 19 अगस्त को फैसला किया है कि सरकारी क्षेत्र की तमाम नौकरियों में प्रवेश के लिए एक राष्ट्रीय भरती एजेंसी का गठन किया जाएगा। इस आशय की जानकारियाँ प्रधानमंत्री कार्यालय से सम्बद्ध तथा कार्मिक, सार्वजनिक शिकायतों और पेंशन विभागों के राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने दी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने केंद्र सरकार की नौकरियों की भरती में परिवर्तनकारी सुधार लाने हेतु राष्ट्रीय भरती एजेंसी (नेशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी-एनआरए) के गठन को मंज़ूरी दे दी है।

क्या है यह परीक्षा? 

जिस तरह इंजीनियरी, चिकित्सकीय तथा प्रबंधन की कक्षाओं में प्रवेश के लिए समान अर्हता टेस्ट (कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट-सीईटी) होते हैं, उसी तरह नौकरियों की भरती के लिए बुनियादी स्तर पर एक परीक्षा (सीईटी) होगी। उस परीक्षा में व्यक्ति को प्राप्त रैंकिंग के आधार पर विभिन्न विभागों तथा संस्थानों में नौकरी दी जा सकेगी। सार्वजनिक उपक्रम भी इस परीक्षा के स्कोर के आधार पर चयन कर सकेंगे और यदि निजी क्षेत्र के नियोजक चाहेंगे, तो वे भी इसका इस्तेमाल कर सकेंगे।

Tuesday, September 1, 2020

राजनेता नहीं, श्रेष्ठ राजपुरुष


प्रणब मुखर्जी के बारे में निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद वे देश के सर्वश्रेष्ठ राजपुरुषों (स्टेट्समैन) में एक थे। विलक्षण राजनेता, योग्य प्रशासक, संविधान के ज्ञाता और श्रेष्ठ अध्येता के रूप में उनकी गिनती की जाएगी। उनका कद किसी भी राजनेता से ज्यादा बड़ा था, और उन्होंने बार-बार इस बात को रेखांकित किया कि राजनीति को संकीर्ण दायरे के बाहर निकल कर आना चाहिए।

बेशक उन्हें वह नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। व्यावहारिक राजनीति और सांविधानिक मर्यादाओं का उच्चतम समन्वय उनके व्यक्तित्व में देखा जा सकता है। विसंगतियों से मेल बैठाना व्यवहारिक राजनीति है। प्रणब मुखर्जी को इस बात का श्रेय मिलना ही चाहिए कि वे राजनीतिक दृष्टि में सबसे विकट वक्त के राष्ट्रपति बने। वे बुनियादी तौर पर कांग्रेसी थे, पर कांग्रेस की कठोरतम प्रतिस्पर्धी बीजेपी की मोदी सरकार के साथ उन्होंने काम किया और टकराव की नौबत कभी नहीं आने दी।

देश ने उन्हें राष्ट्रपति बनाया और भारत रत्न से सम्मानित भी किया, पर वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, जिसके वे अधिकारी थे। सामान्य परिस्थितियाँ होती, तो शायद सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ही उन्हें देश की बागडोर मिल जाती, पर कांग्रेस पार्टी ‘परिवार’ को अपनी नियति मान चुकी थी। उस वक्त उन्हें न केवल एक संभावना से वंचित रहना पड़ा हाशिए पर जाना पड़ा और कुछ समय के लिए पार्टी से बाहर भी रहे। सन 1991 में राजीव गांधी के निधन के बाद भी वे इस पद को पाने में वंचित रहे। तीसरा मौका सन 2004 में आया, जब परिवार से बाहर के व्यक्ति को यह पद मिला। तब भी उन्हें वंचित रहना पड़ा।