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Thursday, September 2, 2021

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना

कुछ महीने पहले का अफगानिस्तान 

अमेरिका ने अफगानिस्तान में पिछले दो साल में दो ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा रकम खर्च की। हासिल क्या किया
? उसके पहले रूस ने भी करीब एक दशक तक यहाँ अपनी सेना रखी। पाकिस्तान करीब चार दशक से अफगानिस्तान में किसी न किसी शक्ल में उपस्थित है। भारत ने पिछले बीस साल में वहाँ करीब तीन अरब डॉलर का निवेश किया है। इन सबके साधनों को जोड़ा जाए, तो लगता है कि इतनी रकम से अफगानिस्तान का समाज न केवल स्वस्थ, सुशिक्षित और कल्याणकारी बनता, बल्कि दक्षिण और मध्य एशिया में प्रगति की राहें खोलता। एक तरफ धार्मिक संकीर्णता और दूसरी तरफ दबदबा बनाए रखने की साम्राज्यवादी मनोकामना और अपने-अपने देशों के हित साधने की कोशिशें किसी समाज को कहाँ से कहाँ ले जाती हैं, इसका बहुत अच्छा नमूना अफगानिस्तान है। अफसोस यह इक्कीसवीं सदी में हुआ है।

 इन देशों के मीडिया की अफगानिस्तान-कवरेज पर भी ध्यान दें। लोगों की प्रतिक्रिया सुनें। ऐसे में मजाज़ की दो लाइनें याद आती हैं, बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना/ तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है। आपको समझ में आएगा कि दुनिया को समझना कितना मुश्किल काम है। पाकिस्तान के डॉन न्यूज के एक कार्यक्रम में बताया जा रहा था कि अफगानिस्तान में किस तरह से जीवन तकरीबन ठप हो गया है और जनता बुरी तरह परेशान है। बिजली नहीं, पानी नहीं, दुकानों पर सामान नहीं, घरों में पानी नहीं, एटीएम बंद, जेब में पैसा नहीं वगैरह-वगैरह। चैनल के रिपोर्टर ने लोगों से बात की तो उन्होंने परेशानियाँ बताईं।

जब बातें हो रही थीं, तब बंदूकधारी तालिबान पास में खड़े थे। लोगों ने तालिबान के आने पर ख़ुशी जाहिर की। कहा, अब चोरियाँ नहीं हो रही हैं। क्या चोरियाँ अफगानिस्तान की समस्या थी? पाकिस्तान में तो हो ही रही है, भारत में भी तालिबानी-क्रांति की तारीफ हो रही है। सजा देने के उनके तरीके का जिक्र हो रहा है, उनकी ईमानदारी के किस्से हैं। लड़कियों के पहनावे और उनकी पढ़ाई और नौकरी को लेकर बातें हो रही हैं। जो तालिबान विरोधी हैं, वे उसमें दोष खोज रहे हैं और जो समर्थक हैं, उन्हें उनमें अच्छाइयाँ नजर आ रही हैं।

Monday, December 24, 2012

किराए के रोने वाले और हमारे शोक के वास्तविक सवाल

गुजरात में नरेन्द्र मोदी की विजय के ठीक पहले दिल्ली में चलती बस में बलात्कार को लेकर युवा वर्ग का आंदोलन शुरू हुआ। और इधर सचिन तेन्दुलकर ने एक दिनी क्रिकेट से संन्यास लेने का फैसला किया। तीनों घटनाएं मीडिया की दिलचस्पी का विषय बनी हैं। तीनों विषयों का अपनी-अपनी जगह महत्व है और मीडिया इन तीनों को एक साथ कवर करने की कोशिश भी कर रहा है, पर इस बात को रेखांकित करने की ज़रूरत है कि हम सामूहिक रूप से विमर्श को ज़मीन पर लाने में नाकामयाब हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से एक ओर हम मीडिया की अत्यधिक सक्रियता देख रहे हैं वहीं इस बात को देख रहे हैं कि लोग बहुत जल्द एक बात को भूलकर दूसरी बात को शुरू कर देते हैं। बहरहाल सी एक्सप्रेस में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ें:-
फेसबुक पर वरिष्ठ पत्रकार चंचल जी ने लिखा, दिल्ली में अपाहिज मसखरों का एक संगठित गिरोह है। बैंड पार्टी की तरह, उन्हें किराए पर बुला लो जो सुनना चाहो उन लो। बारात निकलते समय, बच्चे की पैदाइश पर,  मारनी पर करनी पर, खतना पर हर जगह वे उसी सुर में आएंगे जो प्रिय लगे। और यह जोखिम का काम भी नहीं है। बस कुछ चलते फिरते मुहावरे हैं उसे खीसे से निकालेंगे और जनता जनार्दन के सामने परोस देंगे। गुजरात पर चलेवाली बहस देखिए। मोदी को जनता ने जिता दिया। इतनी सी खबर मोदी को जेरे बहस कर दिया। वजनी-वजनी शब्द, जीत के असल कारण, उनका नारा, वगैरह-वगैरह इन बुद्धिविलासी बहसी आत्माओं का सोहर बन गया है। और अगर मोदी हार गया होता तो यही लोग ऐसे-ऐसे शब्द उसकी मैयत पर रखते कि वह तिलमिला कर भाग जाता। उन्होंने यह बात गुजरात के चुनाव परिणामों की मीडिया कवरेज के संदर्भ में लिखी है, पर इस बात को व्यापक संदर्भों में ले जाएं तो सोचने समझने के कारण उभरते हैं।

Saturday, September 22, 2012

रास्ता कहाँ है?


Friday, April 29, 2011

संतुलित-संज़ीदा सामाजिक विमर्श का इंतज़ार



करीब 231 साल पहले जनवरी 1780 में जब जेम्स ऑगस्टस हिकी ने देश का पहला अखबार बंगाल गजट निकाला था तब उसकी दिलचस्पी ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसरों की निजी जिन्दगी का भांडा फोड़ने में थी। वह दिलजला था। उसे किसी ने तवज्ज़ो नहीं दी थी। वह देश का पहला मुद्रक था, पर कम्पनी ने उससे तमाम तरह के काम करवा कर पैसा ठीक से नहीं दिया। बहरहाल उसने गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स और मुख्य न्यायाधीश तक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। हिकी को कई बार जेल हुई और अंततः उसे वापस इंग्लैंड भेज दिया गया। आज उसे याद करने की दो वजहें हैं। एक, वह इस देश का पहला व्यक्ति था, जिसने भ्रष्टाचार को लेकर इस तरीके का मोर्चा खोला। हो सकता है मौर्य काल में या अकबर के ज़माने में या किसी और दौर में भी ऐसा काम किसी ने किया हो। पर हिकी के अखबार और उनमें प्रकाशित सामग्री आज भी पढ़ने के लिए उपलब्ध है। दूसरा काम हिकी ने पाठकों के पत्र प्रकाशित करके किया। इस लड़ाई में उसने अपने को अकेला नहीं रखा। पाठकों को भी जोड़ा। इन पत्रों में कम्पनी अफसरों के खिलाफ बातें कहने से ज्यादा कोलकाता की गंदगी और नागरिक असुविधाओं का जिक्र होता था। हिकी ने सार्वजनिक बहस का रास्ता भी खोला।

Wednesday, February 9, 2011

स्कूल स्तर पर यौन शिक्षा

मैने अपने ब्लॉग पर दूसरे लेखकों की रचनाएं भी आमंत्रित की हैं। मेरा उद्देश्य इस प्लेटफॉर्म के मार्फत विचार-विमर्श को बढ़ावा देना है। आज इस सीरीज़ में यह पहला आलेख है। इसे पटना के श्री गिरिजेश कुमार ने भेजा है। उनका परिचय नीचे दिया गया है। लेख के अंत में मैने दो संदर्भ सूत्र जोड़े हैं। बेहतर हो कि आप अपनी राय दें। 


बचपन को विकृत करने की साज़िश 
गिरिजेश कुमार
काले परदे के पीछे भूमंडलीकरण का निःशब्द कदम धीरे-धीरे सभ्यता का प्रकाश मलिन कर जिस अंधकारमय जगत की ओर लोगों को ले जा रहा है वह चित्र देखने लायक आँखऔर समझने लायक मन आज कितने लोगों में हैप्रेम जैसी सुन्दर अनुभूति को भुलाकरचकाचौंध रोशनी के बीच शरीर का विकृत प्रदर्शन और सेक्स के माध्यम से समाज को विषाक्त बनाने की कोशिश हो रही हैइसी परिकल्पित प्रयास का ही एक नाम है- स्कूल स्तर पर यौन शिक्षा|