महात्मा गांधी और भारतीय मुसलमानों के रिश्तों और उसकी पृष्ठभूमि को समझने से जुड़ा साहित्य पढ़ते हुए मुझे गांधी जी का एक लेख पढ़ने को मिला, जो उन्होंने 28 अक्तूबर, 1939 को हरिजन में लिखा था। इस लेख का शीर्षक है ‘क्या मैं ईश्वर का दूत हूँ?’ पहले इस लेख को पढ़ें।
गांधी जी ने लिखा, एक मुसलमान मित्र ने मुझे एक लम्बा पत्र लिखा है। वह कुछ काट-छाँटकर
नीचे दिया जा रहा है:
आपके सही ढंग से सोचने के रास्ते की मुख्य कठिनाई यह है कि आपने अपने जो सिद्धांत खुद गढ़ लिए हैं, उन्हीं के प्रकाश में आप सदा हरेक चीज को देखते हैं और उन्हीं के अनुसार उनकी व्याख्या करते हैं और इस तरह आपका हृदय इतना कठोर हो गया है कि आप किसी चीज को खुले दिमाग से देख ही नहीं सकते, चाहे वह कितनी ही महत्व की क्यों न हो।
अगर ईश्वर ने आपको अपना दूत नियुक्त नहीं किया है, तो यह दावा नहीं किया जा सकता कि आप जो कुछ कहते हैं या जो शिक्षा देते हैं, वह ईश्वर का वचन है। पैगम्बरों की सीख और ऊँचे आध्यात्मिक महत्व के सिद्धांतों के रूप में सत्य और अहिंसा की सच्चाई का कोई प्रतिवाद नहीं कर सकता। लेकिन उनकी सच्ची समझ और सही अमल तो सिर्फ उसी के बस की बात है, जिसका परमात्मा से सीधा सम्बन्ध हो। महज अपने शरीर की कामनाओं और भूख का दमन करके अपनी आत्मा को थोड़ा निखार लेने वाला कोई व्यक्ति पैगम्बर नहीं हो जाया करता।
आप अपने को जगत का गुरु मानते हैं। आप यह दावा करते हैं कि आपने उस बीमारी को जान लिया है, जिससे संसार पीड़ित है। आप यह भी एलान करते हैं कि आपका पसंद किया हुआ और आपके द्वारा आचरित सत्य, तथा आपके द्वारा प्रतीत और प्रयुक्त अहिंसा ही पीड़ित संसार के सच्चे उपचार हैं। आपकी इन बातों से सत्य के प्रति आपकी उपेक्षा और भ्रम प्रकट होता है। आप यह स्वीकार करते हैं कि आप गलतियाँ करते हैं। आपकी अहिंसा दरअसल छिपी हुई हिंसा है, क्योंकि उसका आधार सच्चा आध्यात्मिक जीवन नहीं है और न ही वह सच्ची ईश्वरीय प्रेरणा का नमूना है।