राष्ट्रीय सम्मानों की हमारी व्यवस्था विश्वसनीय कभी नहीं
रही। पर हाल के वर्षों में वह मजाक का विषय बन गई है। इन पदकों ने पहचान पत्र की जगह
ले ली है। यूपीए सम्मानित, एनडीए सम्मानित या सिर्फ असम्मानित! पिछले हफ्ते खबर थी कि नेताजी सुभाष बोस को
भारत रत्न मिलने वाला है। फिर कहा गया कि अटल बिहारी को भी मिलेगा। ताज़ा खबर है
कि हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के नाम की संस्तुति प्रधानमंत्री से की गई है। पता
नहीं किसी को मिलेगा या नहीं पर ट्विटर, फेसबुक और टेलीविजन पर कम से कम डेढ़ सौ हवा
में नाम फेंके जा चुके हैं। कांशीराम से लेकर सर सैयद, एओ ह्यूम से एनी बेसेंट,
भगत सिंह से रास बिहारी बोस, लाला लाजपत राय से मदन मोहन मालवीय और राम मनोहर
लोहिया से लेकर कर्पूरी ठाकुर। लगो हाथ जस्टिस काटजू ने ट्वीट करके सचिन तेन्दुलकर
को भारत रत्न देने की भर्त्सना कर दी। जवाब में शिवसेना ने जस्टिस काटजू की निंदा
कर दी। सम्मानों की राजनीति चल रही है।
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Friday, August 15, 2014
Saturday, November 23, 2013
तेन्दुलकर तो निर्विवाद हैं, पुरस्कार नहीं
18 अगस्त 2007 को जब दशरथ मांझी का
दिल्ली में कैंसर से लड़ते हुए निधन हुआ था, तब उसके जीवट और लगन की कहानी देश के
सामने आई थी। पर न तब और न आज किसी ने कहा कि उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए। हमारे
एलीटिस्ट मन में यह बात नहीं आती। इन पुरस्कारों का इतिहास देखें तो लगता है कि तेन्दुलकर
का सम्मान गलत नहीं है।
जाने-अनजाने सचिन तेन्दुलकर देश की
पहचान हैं। उनकी प्रतिभा और लगन युवा वर्ग को प्रेरणा देती है। सहज और सौम्य हैं,
पारिवारिक व्यक्ति हैं, माँ का सम्मान करते हैं और एक साधारण परिवार से उठकर आए
हैं। यह तय करने का कोई मापदंड नहीं कि वे देश के सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं भी
या नहीं। ध्यानचंद महान खिलाड़ी थे और उस दौर में थे जब हमें आत्मविश्वास की ज़रूरत
थी। फिर भी वे लोकप्रियता के उस शिखर पर नहीं थे, जिसपर आज सचिन तेन्दुलकर हैं। वह
संस्कृति और वह समाज ऐसी लोकप्रियता देता भी नहीं था। ध्यानचंद के जन्मदिन को हम
राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाते हैं। तमाम खेल प्रेमी नहीं जानते कि 29 अगस्त
उनकी जन्मतिथि है। इस दिन राष्ट्रपति राष्ट्रीय खेल पुरस्कार देते हैं।
Monday, November 18, 2013
इन तमगों का पानी भी नही उतरना चाहिए
सचिन तेन्दुलकर देश के बड़े आयकन हैं। उनकी खेल
प्रतिभा के कारण देश का सम्मान बढ़ा जिस पर हम सबको नाज़ है। इस घोषणा के राजनीतिक
निहितार्थ गहरे हैं और इस पर ऑब्जेक्टिव विमर्श खासा मुश्किल। सचिन तेन्दुलकर युवा वर्ग के आदर्श बनें और उनसे प्रेरणा लेकर अनुशासन, लगन और परिश्रम की राह खुले तो देश का हित होगा। इधर खबर है कि सचिन को समाजवादी पार्टी ने अपने साथ आने का न्योता भेजा है। कांग्रेस पार्टी शायद उन्हें अपनी उपलब्धि मानेगी। शायद शिवसेना उन्हें मराठी मानते हुए पूजे। पर सचिन तो पूरे देश के हैं और उन्हें अब राष्ट्रीय संरक्षक की भूमिका निभानी चाहिए। इसके साथ हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि हम प्रतिभाओं का सम्मान किस तरह करते हैं। और यह भी कि क्या सचिन को बनाने में कॉरपोरेट मीडिया की कोई भूमिका थी। कोल्ड ड्रिंक और टूथपेस्ट बेचते भारत रत्न दिखाई पड़ेंगे तो यह सवाल भी मन में आएगा। सवाल सचिन की श्रेष्ठता का नहीं है, उस व्यवस्था का है, जो श्रेष्ठता के पैमाने तय करती है।
यह सवाल तो फिर भी पूछा जा सकता है कि यह सचिन की लोकप्रियता को
भुनाने की कोशिश तो नहीं? दिसम्बर
2011 में तत्कालीन खेल मंत्री अजय माकन ने जानकारी दी कि उन्होंने प्रधानमंत्री और
गृहमंत्री को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि भारत रत्न पुरस्कार की पात्रता में खिलाड़ियों
को भी शामिल किया जाए। सरकार ने उस साल नवम्बर में इस सिफारिश को मंजूर करते हुए इस
आशय की अधिसूचना ज़ारी की थी।
कयास तभी था कि शायद सचिन तेन्दुलकर को यह अलंकार
मिलने वाला है। फौरन बात उठी कि सचिन के पहले ध्यानचंद को यह पुरस्कार मिलना चाहिए।
शायद इसी वजह से तब फैसला रुक गया। हाल में खेल मंत्री ने सरकार को पास सिफारिश भी
भेजी कि ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाए। पर फैसला सचिन के नाम पर हुआ है। अब यह बहस
खत्म है कि ध्यानचंद को सम्मान मिलना चाहिए कि नहीं। अब उन्हें सम्मान मिले भी तो वैसे
ही होगा, जैसे हम महात्मा गांधी को भारत रत्न का सम्मान दें।
महात्मा गांधी को भी भारत रत्न नहीं मिला। गांधी
को सरकारी सम्मान की ज़रूरत ही नहीं। गांधी की तरह ध्यानचंद को सम्मान के लिए सरकारी
अलंकरण की जरूरत नहीं है। पर इतिहास के कालक्रम का ध्यान रखना चाहिए। महापुरुषों का
सम्मान करने की प्राथमिकता तय करनी चाहिए। भविष्य के इतिहास में सम्मानित व्यक्तियों की
सूचियाँ और उनसे जुड़ी बहसें भी नत्थी होंगी। पर उसके पहले देखें कि दक्षिण एशिया ने
क्रिकेट को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है।
1975 में जब एक दिनी क्रिकेट के विश्व कप की शुरूआत
हुई थी, तब तक यह अंग्रेजों
का खेल था। अक्सर सवाल होता है कि भारत में क्रिकेट को इतनी अहमियत क्यों दी जाती है? दूसरे खेलों को क्यों नहीं? नई आर्थिक संस्कृति और कॉरपोरेट-संरक्षण
के कारण हमारा क्रिकेट दुनिया के टॉप पर है। इस बदलाव का नेतृत्व भारत ने किया है। पर पाकिस्तान,
श्रीलंका और बांग्लादेश को मिली सफलताएं भी इसका कारण हैं। सबसे
बड़ा कारण तो टीम को मिली सफलता है। सामान्य दर्शक को सफलता और हीरो चाहिए। राष्ट्रीय-अभिमान, उन्माद और मौज-मस्ती के लश्कर इसके सहारे
बढ़ते हैं।
क्रिकेट लम्बा और उबाऊ खेल था। यह खत्म हो जाता
अगर ऑस्ट्रेलिया के मीडिया-टायकून कैरी पैकर ने इसे नई परिभाषा न दी होती।1975 में
पहले विश्व कप के लिए आठ टीमें जुटाना मुश्किल था। उसमें श्रीलंका को शामिल किया गया, जिसे टेस्ट मैच खेलने लायक नहीं समझा जाता
था। पूर्वी अफ्रीका के देशों की एक संयुक्त टीम बनाई गई थी। 1979 में कोई नहीं कहता
था कि अगला विश्व कप भारत की टीम जीतेगी। 1983 में प्रतियोगिता शुरू होने तक कोई नहीं कह
सकता था। इंग्लैंड के सट्टेबाज भारत की सम्भावना पर 66-1 का सट्टा लगा रहे थे।
1982 के एशिया खेलों के कारण हमारा राष्ट्रीय रंगीन टीवी नेटवर्क काम करने लगा था, पर विश्व कप के टीवी प्रसारण की बात सोची
भी नहीं गई थी। टीम अप्रत्याशित रूप से सफल हुई तो सेमीफाइनल और फाइनल मैच टेलीकास्ट हुआ। उस खेल में ग्लैमर भी नहीं था। 60 ओवर का मैच दिन की धूप में खेला जाता
था। खिलाड़ी रंगीन कपड़े नहीं पहनते थे। सफेद कपड़े पहनते थे।
क्रिकेट की जो लोकप्रियता हम देख रहे हैं उसे
इस स्तर पर लाने में मीडिया और कारोबार की भारी भूमिका है। कारोबार को ‘आयकन’ चाहिए। वे
लोकप्रिय नहीं होंगे तो ‘आयकन’ कैसे? इस विचार
से ध्यानचंद निरर्थक हैं। भीड़ उन्हें पहचानती नहीं, भले ही वे महान खिलाड़ी रहे हों।
हमने इस भीड़ को उनकी महानता से परिचित ही नहीं कराया। जैसे कमाई के लिए मीडिया को
आई बॉल्स चाहिए वैसे ही राजनीति को भी लोकप्रियता की दरकार है। सचिन तेन्दुलकर में
इन सबका मेल है। वे महान हैं।
राष्ट्रीय सम्मान राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जुड़े
हैं तो उनकी राजनीति भी है। सन 1977 में जब जनता
पार्टी की सरकार बनी तब अलंकरणों को खत्म करने का फैसला किया गया। मोरारजी देसाई व्यक्तिगत
रूप से अलंकरणों के खिलाफ थे। संयोग है कि सन 1991 में मोरारजी
को भारत रत्न का अलंकरण दिया
गया। दूरदर्शन ने जब मोरारजी से प्रतिक्रिया माँगी तो उन्होंने कहा, मैं ऐसे अलंकरणों
के खिलाफ हूँ। आप देना ही चाहते हैं तो मैं क्या कर सकता
हूँ।
पर सचिन के साथ सीएनआर राव के नाम की ज़रूरत क्या
थी? सरकार की
इच्छा सम्मान करने से ज्यादा उस लोकप्रियता का लाभ लेने में है जो सचिन के संन्यास
और मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद भारतीय विज्ञान के प्रति विश्वास से उपजी है। सीएनआर
राव प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में हैं। काबिल वैज्ञानिक हैं। पर क्या हम
अपने काबिल वैज्ञानिकों का सम्मान करते हैं? ऐसा है तो
होमी जहाँगीर भाभा और विक्रम साराभाई को क्यों भूल गए?
भारत रत्नों की सूची ध्यान से देखें तो पाएंगे कि अलंकरणों का
रिश्ता राजनीति से है। कुछ लोग बरसों
बाद याद आए और कुछ कभी याद नहीं आए। दिसम्बर 2011 में सीएनआर
राव ने कहा था कि डॉ भाभा को भारत रत्न मिलना चाहिए। यह बात उन्होंने
तब कही जब सचिन तेंदुलकर को भारत देने की मांग करते हुए मुम्बई क्रिकेट एसोसिएशन ने
उनसे प्रतिक्रिया माँगी। उन्होंने कहा, दुख की बात
है कि आज क्रिकेट को विज्ञान से अधिक महत्व मिल रहा है। मुझे सचिन को यह सम्मान देने
पर विचार करने को लेकर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन भाभा के बारे में क्या? इस महान हस्ती का मरणोपरांत सम्मान करने का शिष्टाचार
तो कम से कम होना ही चाहिए। मैं प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखूँगा। लगता है कि सरकार को उनकी चिट्ठी मिल गई और उन्हें
राव साहब ही सामने नज़र आए जिन्हें सम्मान दे दिया।
हाल में वल्लभ भाई पटेल की विरासत को लेकर जब
कांग्रेस और भाजपा के बीच संग्राम चल रहा था, तब इस बात का उल्लेख हुआ कि पटेल को
1991 में भारत रत्न मिला राजीव गांधी के साथ। जवाहर लाल नेहरू को 1955 में गोविंद बल्लभ
पंत को 1957, विधान चन्द्र रॉय को 1961, राजेन्द्र प्रसाद को 1962, लाल बहादुर शास्त्री
को 1966, इंदिरा गांधी को 1971, वीवी गिरि को 1975, के कामराज को 1976, एमजी रामचंद्रन
को 1988 और भीमराव आम्बेडकर को 1990 में यह सम्मान मिला। इस सूची में केवल सीवी रामन,
एम विश्वेसरैया और एपीजे कलाम सिर्फ तीन ऐसे नाम विज्ञान और तकनीक से जुड़े हैं। कोई
ज़रूरी नहीं कि भारत के सारे महापुरुषों का सम्मान हो जाए, पर प्राथमिकता तो दिखाई
पड़ती है। जैसे खेल में हमें ध्यानचंद याद हैं वैसे ही विज्ञान में हमें भाभा और साराभाई
याद हैं। पर आज कौन उन्हें जानता है? सरकार को सीएनआर राव का नाम रहा सीआर राव का
नहीं, जिनका नाम आज दुनिया के श्रेष्ठतम गणितज्ञों, सांख्यिकीविदों में शुमार किया
जाता है। तमाम नाम और हैं। पर प्रतिभा का सम्मान एक बात है और लोकप्रियता दूसरी। फैसला
सरकार का है। बहस आप करिए।
Saturday, November 16, 2013
बधाई सचिन! इससे पहले कि इन अलंकरणों का पानी उतरे
महात्मा गांधी को भारत रत्न नहीं मिला। किसीको इस बात पर शिकायत नहीं है, क्योंकि गांधी को सरकारी सम्मान की ज़रूरत ही नहीं थी। सरहदी गांधी को हमने सम्मान दिया। नहीं देते तब भी हमारे मन में उनके लिेए वही सम्मान था। हाल में जब भारत रत्न देने के लिेए नियमों को दुरुस्त किया जा रहा था तब यह सम्भावना व्यक्त की गई थी कि शायद यह सचिन तेन्दुलकर को पुरस्कृत करने की तैयारी है। ऐसा नहीं हुआ तो उन्हें राज्यसभा की सदस्यता दे दी गई। हालांकि तब भी काफी लोगों ने याद दिलाया कि हमें हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को याद करना चाहिए। कोई बात नहीं महात्मा गांधी की तरह ध्यानचंद को सम्मान के लिए सरकारी अलंकरण की जरूरत नहीं है।
सन 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब अलंकरणों को खत्म करने का फैसला किया गया। मोरारजी देसाई व्यक्तिगत रूप से अलंकरणों के खिलाफ थे। संयोग है कि सन 1991 में मोरारजी को भारत रत्न का ्लंकरण दिया गया। मोरारजी ने उस घोषणा के दिन ही कहा कि मैं ऐसे अलंकरणों के खिलाफ हूँ, पर आप देना ही चाहते हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ।
सचिन तेन्दुलकर और सीएनआर राव का सम्मान करने पर हमें खुशी है। अपनी प्रतिभाओं पर हमें गर्व करना भी चाहिए। पर लगता है कि सरकार की इच्छा सम्मान करने से ज्यादा उस लोकप्रियता का लाभ लेने में है जो सचिन के संन्यास और मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद भारतीय विज्ञान के प्रति विश्वास से उपजी है। मंगलयान तो अभी रास्ते में ही है। सीएनआर राव प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में हैं। वे काबिल वैज्ञानिक हैं, पर क्या हम अपने काबिल वैज्ञानिकों का सम्मान करते रहते हैं? बहरहाल खुशी है कि हम वैज्ञानिक का सम्मान कर रहे हैं, पर यहां सम्मान करने वालों की सदाशयता पर संदेह है। होमी जहाँगीर भाभा और विक्रम साराभाई को हम क्यों भूल गए?
नीचे भारत रत्न पाने वालों की सूची है। आप ध्यान से देखें तो पाएंगे कि अलंकरण का रिश्ता राजनीति से भी है। कुछ बरसों बाद याद आए और कुछ कभी याद ही नहीं आए। दिसम्बर 2011 में सीएनआरआर राव ने कहा था कि डॉ भाभा को भारत रत्न मिलना चाहिए। डॉ भाभा को भारत रत्न देने की मांग करते हुए मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखूँगा। यह बात उन्होंने तब कही जब सचिन तेंदुलकर को भारत देने की मांग करते हुए मुम्बई क्रिक्रेट असोसिएशन की ओर से पारित प्रस्ताव पर उनसे प्रतिक्रिया माँगी गई।
राव ने कहा, 'यह दुख की बात है कि आज क्रिक्रेट को विज्ञान से अधिक महत्व मिल रहा है। मुझे सचिन को यह सम्मान देने पर विचार करने को लेकर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन भाभा के बारे में क्या? हमें इस महान हस्ती को उनके द्वारा दिेए गए व्यापक योगदान को मरणोपरांत भी पहचान देने का शिष्टाचार तो कम से कम होना ही चाहिए।' लगता है कि सरकार को उनकी चिट्ठी मिल गई और उन्हें राव साहब ही सामने नज़र आए जिन्हें सम्मान दे दिया। खुशी है कि सरकार ने विज्ञान का सम्मान कर दिया।
भारत रत्नों की सूची
1.Chakravarti Rajgopalachari
|
1954
|
Independence activist, last
Governor-General
|
2.Sir C. V. Raman
|
1954
|
Physicist
|
3.Sarvepalli Radhakrishnan
|
1954
|
Philosopher, India's First Vice
President (1952-1962), and India's Second President(1962-1967)
|
4.Bhagwan Das
|
1955
|
Independence activist, author
|
5.Mokshagundam Visvesvarayya
|
1955
|
Civil engineer, Diwan of Mysore
|
6.Jawaharlal Nehru
|
1955
|
Independence activist, author, first
Prime Minister
|
7.Govind Ballabh Pant
|
1957
|
Independence activist, Chief Minister
of Uttar Pradesh, Home Minister
|
8.Dhondo Keshav Karve
|
1958
|
Educator, social reformer
|
9.Bidhan Chandra Roy
|
1961
|
Physician, Chief Minister of West
Bengal
|
10.Purushottam Das Tandon
|
1961
|
Independence activist, educator
|
11.Rajendra Prasad
|
1962
|
Independence activist, jurist, first
President
|
12.Zakir Hussain
|
1963
|
Independence activist, Scholar, third
President
|
13.Pandurang Vaman Kane
|
1963
|
Indologist and Sanskrit scholar
|
14.Lal Bahadur Shastri
|
1966
|
Posthumous, independence activist,
second Prime Minister
|
15.Indira Gandhi
|
1971
|
Third Prime Minister
|
16.V. V. Giri
|
1975
|
Trade unionist and fourth President
|
17.K. Kamaraj
|
1976
|
Posthumous, independence activist,
Chief Minister of Tamil Nadu State
|
18.Mother Teresa
|
1980
|
Catholic nun, founder of the
Missionaries of Charity
|
19.Vinoba Bhave
|
1983
|
Posthumous, social reformer,
independence activist
|
20.Khan Abdul Ghaffar Khan
|
1987
|
First non-citizen, independence
activist
|
21.M. G. Ramachandran
|
1988
|
Posthumous, film actor, Chief Minister
of Tamil Nadu
|
22.B. R. Ambedkar
|
1990
|
Posthumous, chief architect of the
Indian Constitution, politician, economist, and scholar
|
23.Nelson Mandela
|
1990
|
Second non-citizen and non-Indian
recipient, Leader of the Anti-Apartheid movement
|
24.Rajiv Gandhi
|
1991
|
Posthumous, Sixth Prime Minister
|
25.Vallabhbhai Patel
|
1991
|
Posthumous, independence activist,
first Home Minister
|
26.Morarji Desai
|
1991
|
Independence activist, fourth Prime
Minister
|
27.Abul Kalam Azad
|
1992
|
Posthumous, independence activist,
first Minister of Education
|
28.J. R. D. Tata
|
1992
|
Industrialist and philanthropist
|
29.Satyajit Ray
|
1992
|
Bengali Filmmaker
|
30.A. P. J. Abdul Kalam
|
1997
|
Aeronautical Engineer,11th President
of India
|
31.Gulzarilal Nanda
|
1997
|
Independence activist, interim Prime
Minister
|
32.Aruna Asaf Ali
|
1997
|
Posthumous, independence activist
|
33.M. S. Subbulakshmi
|
1998
|
Carnatic classical singer
|
34.Chidambaram Subramaniam
|
1998
|
Independence activist, Minister of
Agriculture
|
35.Jayaprakash Narayan
|
1999
|
Posthumous, independence activist and
politician
|
36.Ravi Shankar
|
1999
|
Sitar player
|
37.Amartya Sen
|
1999
|
Economist
|
38.Gopinath Bordoloi
|
1999
|
Posthumous, independence activist,
Chief Minister of Assam
|
39.Lata Mangeshkar
|
2001
|
Playback singer
|
40.Bismillah Khan
|
2001
|
Hindustani classical shehnai player
|
41.Bhimsen Joshi
|
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