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जॉन गिलक्राइस्ट, हिन्दी-उर्दू के भेद के सूत्रधार |
जब सन 1800 में फोर्ट
विलियम कालेज (कलकत्ता) के अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें
तैयार कराने की व्यवस्था की, तब उन्होंने उर्दू और हिन्दी दोनों के लिए अलग-अलग
प्रबंध किया। फोर्ट विलियम कॉलेज से जुड़े हिन्दी लेखकों से संभवतः कहा गया था कि
वे ऐसी भाषा लिखें, जिसमें फारसी के शब्द नहीं हों। मुंशी सदासुखलाल 'नियाज' (1746-1824) का नाम उन
चार प्रारंभिक गद्य लेखकों में शामिल है, जिन्हें नई शिक्षा से जुड़ी किताबें
लिखने का काम मिला। पर उन्होंने गिलक्राइस्ट के निर्देश पर नहीं स्वतः प्रेरणा से
लिखा था। बुनियादी तौर पर वे फारसी और उर्दू में लिखते थे। उन्होंने खड़ी बोली के
उस रूप में लिखना शुरू किया, जिसे उन्होंने खुद ‘भाखा’ बताया। संस्कृत के तत्सम
शब्दों का प्रयोग करके उन्होंने इस भाखा के जिस रूप को पेश किया, उसमें खड़ी बोली के भावी साहित्यिक रूप का आभास
मिलता है। उन्होंने आगरा से ‘बुद्धि प्रकाश’ नामक पत्र निकाल, जिसमें
उनकी भाषा के नमूने खोजे जा सकते हैं। मुंशी सदासुखलाल के संपादन में यह पत्र
पत्रकारिता की दृष्टि से ही नहीं, अपितु भाषा व शैली की
दृष्टि से भी ख़ास स्थान रखता है। रामचंद्र शुक्ल ने इस पत्र की भाषा की प्रशंसा
करते हुए लिखा है कि "बुद्धि प्रकाश की भाषा उस समय की भाषा को देखते हुए बहुत
अच्छी होती थी।"दिल्ली निवासी
मुंशी सदासुखलाल 1793 के आसपास कंपनी सरकार की नौकरी में चुनार के तहसीलदार थे।
बाद में नौकरी छोड़कर प्रयाग निवासी हो गए और अपना समय कथा वार्ता एवं हरिचर्चा
में व्यतीत करने लगे। उन्होंने श्रीमद्भागवद् का अनुवाद 'सुखसागर' नाम से किया। अलबत्ता इस ग्रंथ की कोई प्रति उपलब्ध नहीं
हैं। शायद वह पुस्तक अधूरी रही। उन्होंने 'मुतख़बुत्तवारीख' में अपना जीवन-वृत्त लिखा है।