काफी पहले की बात है। अस्सी का दशक था। तब मैं लखनऊ में रहता था। मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे, जो बिजली के दफ्तर में क्लर्क थे। उनकी जीवन शैली बताती थी कि क्लर्क के वेतन के अलावा भी उनकी आय का कोई ज़रिया है। उनके घर को देखते ही उनकी हैसियत का पता लग जाता था। उनसे मेरा खास परिचय नहीं था। दूर की दुआ-सलाम थी। एक रोज सबेरे वे मेरे घर चले आए। इधर-उधर की बातें करने के बाद बोले, जोशी जी क्या आप मेरी पत्नी को अपने अखबार का संवाददाता बना सकते हैं? मुझे उनकी बात समझ में नहीं आई। मैने पूछा, क्या भाभी जी को लिखने-पढ़ने का शौक है? बोले ना जी। बात जे है कि मैं घर में टेलीफून लगाना चात्ता था। पता लगा कि पत्रकार कोट्टे से लग सकता है।
उस ज़माने में फोन आसानी से नहीं मिलता था। मेरे घर में भी फोन नहीं था। वह सज्जन बोले,आप रिपोर्टर बनवा दो बाक्की काम मैं कर लूँगा। मेरे पास जवाब नहीं था। उन दिनों मैं नवभारत टाइम्स में काम करता था। लखनऊ में स्ट्रिंगर होते नहीं थे। मेरे हाथ में स्ट्रिंगर बनाने की सामर्थ्य भी नहीं थी। बहरहाल उन्हें किसी तरह समझा कर विदा किया। तब तक टीवी चैनल शुरू नहीं हुए थे। पत्रकार को लोग इज़्ज़त की निगाह से देखते थे। जिलों और तहसीलों में स्ट्रिंगरों को काफी सम्मान मिलता था। इसलिए पत्रकार का कार्ड हासिल करने की होड़ रहती थी। हमारे पड़ोसी को फोन के अलावा घर के दरवाज़े पर पत्रकार का बोर्ड लगाने की इच्छा भी थी। उनकी वह इच्छा बाद में पूरी भी हुई। झाँसी के किसी साप्ताहिक अखबार ने उनकी पत्नी को संवाददाता बना लिया।
सन 1973 में जब मैं लखनऊ के स्वतंत्र भारत में काम करने आया तब रायबरेली, हरदोई, सीतापुर, बाराबंकी, लखीमपुर खीरी वगैरह में जो अंशकालिक संवाददाता काम कर रहे थे, वे बुज़ुर्ग और अपने इलाके में बेहद सम्मानित लोग थे। ज़्यादातर इलाके के प्रसिद्ध वकील थे या अध्यापक। उन्हें किसी कार्ड की ज़रूरत नहीं थी। हिन्दी का हमारा अखबार आठ पेज का था। न्यूज़ प्रिंट का संकट हो गया, तो छह पेज का भी करना पड़ा। आठ पेज के अखबार के डाक संस्करण में एक पेज जिलों की खबरों का होता था। हर रोज़ डाक से खबरें आती थीं। दिन में दो-ढाई बजे फोरमैन शेषनारायण शर्मा जी खबरें भेजने को मना कर देते थे। जो बचीं होल्डओवर में गईं। अगले दिन सुबह होल्डओवर देखकर आगे का काम होता था। अखबार में जगह नहीं होती थी। अलग-अलग जिलों की खबर लग जाएं इसके लिए हफ्ते में एकबार जिले की चिट्ठी छापकर खबरें निपटा देते थे। ज़रूरी खबरें होने पर संवाददाता तार कर देते थे। तार करने का मौका भी हफ्ते-दो हफ्ते में एकबार मिलता था।
26 जून 1975 के बाद हमें पहली बार लगा कि जिलों में कुछ हो रहा है। पहले नसबंदी की खबरें आईं, फिर उसके विरोध की खबरें। शुरू में संवाददाता लिख कर भेज देते थे। वे छपतीं नहीं थीं। फिर वे समझदार हो गए। व्यक्तिगत रूप से लखनऊ आकर बताने लगे कि किस तरह की प्रशासनिक सख्ती हो रही है। अब खबरों के साथ अफबाहें भी आने लगीं। कुछ सच, कुछ कल्पना। छपता कुछ नहीं था। जिला सूचना विभाग की विज्ञप्तियों ने खबरों की जगह ले ली। इस दौरान हमारे अनेक संवाददाताओं ने काम छोड़ दिया। स्वतंत्र भारत देश का अकेला अखबार है, जो ठीक 15 अगस्त 1947 को निकला। उसमें तमाम संवाददाता उसी दौर के थे। इमर्जेंसी के पहले और इमर्जेंसी के बाद के माहौल में ज़मीन-आसमान का फर्क आ गया। खबरों के गठ्ठर के गट्ठर आने लगे। हर जिले में आपत्काल की कथाएं थीं। हिन्दी ब्लिट्ज़ का सर्कुलेशन अंग्रेज़ी ब्लिट्ज का कई गुना ज़्यादा हो गया। हिन्दी के अखबार बढ़ने लगे। जिलों में संवाददाताओं की संख्या दुगुनी-तिगुनी-चौगुनी हो गई। कवरेज बढ़ गई। ग्रामीण क्षेत्र से दलितों पर अत्याचार, सरकारी विभागों के घोटालों और कई तरह की सामंती क्रूरताओं के समाचार आने लगे। इमर्जेंसी खत्म होने के बाद आनन्द बाज़ार पत्रिका ग्रुप ने पहले संडे निकाला, फिर रविवार। रविवार में ज़्यादातर कथाएं हिन्दी क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों से थीं।
हिन्दी अखबारों की सफलता स्थानीय खबरों से जुड़ी है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा के बड़े शहरों ही नहीं दूर-दराज़ इलाकों में आज संस्करण हैं। अभी विस्तार की खासी सम्भावना है। इन जगहों से संवाद संकलन व्यवस्था के बारे में सोचने का मौका नहीं मिल पाया। जैसा था, वह चलता रहा। अखबार आठ से बारह पेज के हुए। नब्बे का दशक खत्म होते-होते 16 पेज के हो गए। अब 20 के हो गए हैं। ज्यादातर हिन्दी अखबारों ने लोकल पेज बढ़े। चार पेज, फिर छह पेज, फिर आठ पेज की लोकल कवरेज हो रही है। जितनी खबरें नहीं हैं, उससे ज्यादा बनाई जा रहीं हैं। तारीफ में या टाँग खिचाई में खबरें लिखीं जा रहीं हैं। निरर्थक सनसनी के लिए भी। मनरेगा, आरटीआई, खेती-बाड़ी, शिक्षा, कमज़ोर वर्गों का उत्थान, नए रोज़गार ऐसे तमाम मसले हैं, जिनपर काफी काम किया जा सकता है। यह वह स्तर है, जहाँ गवर्नेंस का परीक्षण होना है। पर जिलों में पत्रकारों की ट्रेनिंग का इंतज़ाम नहीं है। सिर्फ पत्रकारिता का कार्ड चाहिए।
सेवंती नायनन ने अपनी पुस्तक ‘हैडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड’ में ग्रामीण क्षेत्रों के संवाद संकलन का रोचक वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि ग्रामीण क्षेत्र में अखबार से जुड़े कई काम एक जगह पर जुड़ गए। सेल्स, विज्ञापन, समाचार संकलन और रिसर्च सब कोई एक व्यक्ति या परिवार कर रहा है। खबर लिखी नहीं एकत्र की जा रही है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के कांकेर-जगदलपुर हाइवे पर पड़ने वाले गाँव बानपुरी की दुकान में लगे साइनबोर्ड का ज़िक्र किया है, जिसमें लिखा है-‘आइए अपनी खबरें यहां जमा कराइए।‘ खबरों के कारोबार से लोग अलग-अलग वजह से जुड़े हैं। इनमें ऐसे लोग हैं, जो तपस्या की तरह कष्ट सहते हुए खबरों को एकत्र करके भेजते हैं। नक्सली खौफ, सामंतों की नाराज़गी, और पुलिस की हिकारत जैसी विपरीत परिस्थितियों का सामना करके खबरें भेजने वाले पत्रकार हैं। ऐसे भी हैं, जो टैक्सी चलाते हैं, रास्ते में कोई सरकारी मुलाजिम परेशान न करे इसलिए प्रेस का कार्ड जेब में रखते हैं।
हिन्दी अखबारों का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष लोकल कवरेज है। अखबारों में ऐसी खबरें छप रहीं हैं, जो हैं ही नहीं। जो हुआ ही नहीं। और जो हुआ, वह नहीं छपा। पत्रकारीय निष्ठा और मूल्यबद्ध कर्म की गौरव गाथाएं हैं, तो निहायत गैर-जिम्मेदारी के प्रसंग भी। इनके कार्टल बन गए हैं, जो अपने ढंग से खबरों को संचालित करते हैं। पत्रकारों की यह टीम राष्ट्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय अखबारों और चैनलों को सामग्री मुहैया कराती है। इस लेवल के पत्रकारों पर अपने मैनेजमेंट की ओर से विज्ञापन लाने का दबाव भी है। कह नहीं सकते कि यह दबाव रहेगा या खत्म होगा, पर सूचना की ताकत और सूचना संकलन की पद्धति को ऑब्जेक्टिव और फेयर रखना है तो उसके कारोबारी रिश्तों को अच्छी तरह परिभाषित करना होगा। उसके पहले यह तय होना है कि इसका असर किसपर होता है। इसके बाद तय होगा कि इसे कौन परिभाषित करेगा और क्यों करेगा। आज टेलीफोन कनेक्शन पाने के लिए पत्रकार बनने की ज़रूरत नहीं है। पर सम्भव है मेरे पड़ोसी ने पत्रकारिता के कुछ नए संदर्भ खोजे हों।
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