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Friday, December 6, 2019

नरसिम्हाराव पर तोहमत क्यों?


पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जब 2004 में प्रधानमंत्री बने थे, तब किसी ने उनके बारे में लिखा था कि वे कभी अर्थशास्त्री रहे होंगे, पर अब वे खाँटी राजनीतिक नेता हैं और सफल हैं। यह भी सच है कि उनकी सौम्य छवि ने हमेशा उनके राजनीतिक स्वरूप की रक्षा की है और उन्हें राजनीति के अखाड़े में कभी बहुत ज्यादा घसीटा नहीं गया, पर कांग्रेस पार्टी और खासतौर से नेहरू-गांधी परिवार के लिए वे बहुत उपयोगी नेता साबित होते हैं। उन्होंने 1984 के दंगों के संदर्भ में जो कुछ कहा है उसके अर्थ की गहराई में जाने की जरूरत महसूस हो रहा है। उन्होंने कहा है कि तत्कालीन गृहमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने इंद्र कुमार गुजराल की सलाह मानी होती तो दिल्ली में सिख नरसंहार से बचा जा सकता था। यह बात उन्होंने दिल्‍ली में पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल की 100वीं जयंती पर आयोजित समारोह में कही।

मनमोहन सिंह ने कहा, 'दिल्‍ली में जब 84 के सिख दंगे हो रहे थे, गुजराल जी उस समय नरसिम्हाराव के पास गए थे। उन्होंने राव से कहा कि स्थिति इतनी गम्भीर है कि जल्द से जल्द सेना को बुलाना आवश्यक है। अगर राव गुजराल की सलाह मानकर जरूरी कार्रवाई करते तो शायद नरसंहार से बचा जा सकता था।' मनमोहन सिंह ने यह बात गुजराल साहब की सदाशयता के संदर्भ में ही कही होगी, पर इसके साथ ही नरसिम्हाराव की रीति-नीति पर भी रोशनी पड़ती है। यह करीब-करीब वैसा ही आरोप है, जैसा नरेन्द्र मोदी पर गुजरात के दंगों के संदर्भ में लगता है। सवाल है कि क्या मनमोहन सिंह का इरादा नरसिम्हाराव पर उंगली उठाना है? या वे सीधेपन में एक बात कह गए हैं, जिसके निहितार्थ पर उन्होंने विचार नहीं किया है?

Monday, November 5, 2012

राहुल, रिफॉर्म और भैंस के आगे बीन





गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस को इस रैली से फायदा होगा, पर इससे नुकसान भी कुछ नहीं होने वाला। पार्टी के पास अब आक्रामक होने के अलावा विकल्प भी नहीं बचा था। उसकी अतिशय रक्षात्मक रणनीति के कारण पिछले लगभग तीन साल से बीजेपी की राजनीति में प्राण पड़ गए थे, अन्यथा जिस वक्त आडवाणी जी को हटाकर गडकरी को लाया गया था, उसी वक्त बीजेपी ने अपना भविष्य तय कर लिया था। रविवार को जब कांग्रेस रामलीला मैदान में रैली कर रही थी, तब दिल्ली में मुरली मनोहर जोशी कुछ व्यापारियों के साथ भैस के आगे बीन बजा रहे थे। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी ने जो स्टैंड लिया है वह नकारात्मक है सकारात्मक नहीं। हमारी राजनीति में कांग्रेस भी ऐसा ही करती रही है। ज़रूरत इस बात की है कि सकारात्मक राजनीति हो। बहरहाल कांग्रेस को खुलकर अपनी बात सामने रखनी चाहिए। यदि राजनीति इस बात की है कि तेज आर्थिक विकास हमें चाहिए ताकि उपलब्ध साधनों को गरीब जनता तक पहुँचाया जा सके तो इस बात को पूरी शिद्दत से कहा जाना चाहिए। गैस के जिस सिलेंडर को लेकर हम बहस में उलझे हैं, उसका सबसे बड़ा उपभोक्ता मध्य वर्ग है। शहरी गरीब आज भी महंगी गैस खरीदते हैं, क्योंकि उनके पास केवाईसी नहीं है। घर के पते का दस्तावेज़ नहीं है। वे अपने नाम कनेक्शन नहीं ले सकते हैं और मज़बूरन छोटे सिलंडरों में बिकने वाली अवैध गैस खरीदते हैं। राहुल गांधी ने जिस सिस्टम की बात कही है, वह वास्तव में गरीबों का सिस्टम नहीं है। आम आदमी की पहुँच से काफी दूर है। पिछले साल दिसम्बर में सरकार ने संसद में Citizen's Charter and Grievance Redressal Bill 2011 पेश किया था। यह बिल समय से पास हो जाता तो नागरिकों को कुछ सुविधाओं को समय से कराने का अधिकार प्राप्त हो जाता। अन्ना हजारे आंदोलन के कारण कुछ हुआ हो या न हुआ हो जनता का दबाव तो बढ़ा ही है। यह आंदोलन व्यवस्था-विरोधी आंदोलन था। कांग्रेस ने इसे अपने खिलाफ क्यों माना और अब राहुल गांधी वही बात क्यों कह रहे हैं?

Wednesday, September 5, 2012

वॉशिटगटन पोस्ट की टिप्पणी को पीत पत्रकारिता कहना गलत है

अमेरिकी अखबार वॉशिंगटन पोस्ट ने मनमोहन सिंह के बारे में आम भारतीय नागरिक के दृष्टिकोण को पेश करने की कोशिश की है। देश में घोटाले को बाद घोटाले ने मनमोहन सिंह की छवि को सबसे ज्यादा धक्का पहुँचाया है। अखबार कहता है कि एक सम्माननीय, विनम्र और बुद्धिमान मनमोहन सिंह की जगह निष्प्रभावी ब्यूरोक्रेट ने ले ली जो गहराई तक भ्रष्ट सरकार के सिंहासन पर बैठा है। 
"An honorable, humble and intellectual technocrat (who) has slowly given way to a dithering, ineffectual bureaucrat presiding over a deeply corrupt government."
अखबार के ताज़ा अंक में India’s ‘silent’ prime minister becomes a tragic figure शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणी में हिन्दी पाठकों के लिए नया कुछ नहीं है। पश्चिमी पाठकों के लिए विस्मय की बात ज़रूर है कि उनकी नज़रों में सम्मानित व्यक्ति का का क्या से क्या बन गया। सायमन डेन्यर की इस टिप्पणी में रामचन्द्र गुहा और संजय बारू जैसे पत्रकारों, लेखकों को उधृत किया गया है। 

कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए इस मौके पर की गई यह टिप्पणी महत्वपूर्ण हो गई है। बीजेपी के प्रवक्ता राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा है कि प्रधानमंत्री को अब फौरन इस्तीफा दे देना चाहिए। पर इससे ज्यादा रोचक टिप्पणी है सूचना एवं प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी की, जिन्होंने कहा है कि हम वॉशिंगटन पोस्ट के सम्पादक से माफी माँगने को कहेंगे। उन्होंने कहा, यह पीत पत्रकारिता है। "How can a US daily take the matter such lightly and publish something regarding the prime minister of another country. I will speak to the ministry of external affairs (MEA) and government officials and definitely do something over this issue." इसके पहले टाइम की अंडर अचीवर वाली टिप्पणी पर भी कांग्रेस की प्रतिक्रिया ऐसी ही थी।  क्या अम्बिका सोनी की पीत पत्रकारिता की परिभाषा यही है? बेशक इस टिप्पणी के राजनीतिक निहितार्थ सम्भव हैं और यह बीजेपी समेत दूसरे विपक्षी दलों की मदद कर सकती है, पर क्या यह एक सामान्य भारतीय नागरिक की राय से फर्क बात है? 



Thursday, February 17, 2011

प्रधानमंत्री के टीवी शो पर अखबारों की राय






हालांकि शो टीवी मीडिया का था पर प्रतिक्रियाएं अखबारों की माने रखतीं हैं। आज के अखबारों पर ध्यान दें प्रतिक्रयाएं एक जैसी नहीं हैं। कुछ अखबारों को प्रधानमंत्री की बात खबर ज्यादा लगी विचारणीय कम। टाइम्स ऑफ इंडिया का चलन है कि खबरों के साथ भी विचार लगा देता है, पर उसने प्रधानमंत्री के सम्पादक सम्मेलन पर टिप्पणी करना ठीक नहीं समझा। और सम्पादकीय पेज का खात्मा करने वाले डीएनए को आज यह पेज 1 पर सम्पादकीय लिखने लायक मौका लगा। हिन्दू ने परम्परा के अनुरूप इसपर शालीनता के साथ आलोचना से भरपूर सम्पादकीय लिखा। कोलकाता के टेलीग्राफ ने सम्पादकीय नहीं लिखा, पर मानिनी चटर्जी की खबर सम्पादकीय जैसी ही थी। हिन्दी में खास उल्लेखनीय कुछ नहीं था। पढ़ें अखबारों की राय

Wednesday, February 16, 2011

प्रधानमंत्री की प्रभावहीन टीवी कांफ्रेंस


 इसे सम्पादक सम्मेलन कहने को जी नहीं करता। सबसे पहले हिन्दी चैनल आज तक के सम्पादक के नाम पर आए उसके मालिक अरुण पुरी ने अंग्रेजी में सवाल किया। आज सुबह के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेसन की खबर थी कि दो चैनलों के मालिकों को खासतौर पर आने को कहा गया है। दूसरे सम्पादक से उनका आशय बेशक प्रणय रॉय होंगे। प्रणय़ रॉय को हम मालिक कम सम्पादक ज्यादा मानते हैं। आज के सम्मेलन में उन्होंने ही सबसे सार्थक सवाल पूछे। अर्णब गोस्वामी के तेवरों पर ध्यान न दें तो वाजिब सवाल उनके भी थे।