Thursday, January 29, 2015

ओबामा यात्रा, खुशी है खुशहाली नहीं

ओबामा की यात्रा के बाद भारत आर्थिक उदारीकरण के काम में तेजी से जुट गया है. सरकार विदेशी निवेशकों से उम्मीद कर रही है. इसके लिए वोडाफोन के मामले पर हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील नहीं करने का फैसला कैबिनेट ने किया है. ओबामा यात्रा मूलतः भारतीय विदेश नीति की दिशा तय करके गई है. भारत कोशिश कर रहा है कि अमेरिका के साथ बनी रहे और रूस और चीन के साथ भी. हमारी कोशिश होनी चाहिए कि दुनिया एक और शीतयुद्ध की ओर न बढ़े. इस रविवार को सुषमा स्वराज चीन जा रही हैं. यह बैलेंस बनाने का काम ही है. फिलहाल मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ा काम है देश की अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर लाना. 

ओबामा यात्रा के बाद वैश्विक मंच पर भारत का रसूख बढ़ेगा, पर क्या यह हमारी बुनियादी समस्याओं के हल करने में भी मददगार होगी? शायद नहीं.  जिस बड़े स्तर पर पूँजी निवेश की हम उम्मीद कर रहे हैं वह अभी आता नजर नहीं आता. उसके लिए हमें कुछ व्यवस्थागत बदलाव लाने होंगे, जिसमें टाइम लगेगा. आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए के लिए इस इलाके में शांति का माहौल चाहिए. इस यात्रा पर पाकिस्तान और चीन की जो प्रतिक्रियाएं आईं हैं उनसे संदेह पैदा होता है कि यह इलाका भावनाओं के भँवर से बाहर निकल भी पाएगा या नहीं. डर यह है कि हम नए शीतयुद्ध की ओर न बढ़ जाएं.  


जिस वक्त राष्ट्रपति ओबामा दिल्ली में थे पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष चीन यात्रा पर गए थे. उसी दौरान चीन के किसी नेता ने पाकिस्तान को पक्का और पुराना दोस्त बताया. दूसरी ओर चीन के सरकारी मीडिया ने कहा कि अमेरिका भारत को अपने फंदे में फँसा रहा है. एक टिप्पणी में भारत की महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा का मजाक भी उड़ाया गया. ओबामा की यात्रा का दिल्ली की किरण-केजरीवाल कथा से लेकर चीन-जापान रिश्तों तक असर पड़ेगा. ताज़ा खबर है कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति की 70 वीं वर्षगांठ के मौके पर चीन एक भव्य परेड की योजना बनाई है, जिसमें मुख्य अतिथि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन होंगे. इस मौके पर उत्तर कोरिया के शासनाध्यक्ष किम-जोंग उन भी होंगे. इसके पहले मई में रूस ऐसी ही एक परेड होने वाली है जिसमें चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग शिरकत करेंगे.

सन 1949 में साम्यवादी क्रांति की स्मृति में चीन हरेक दशक में ऐसी परेड आयोजित करता रहा है. पिछली परेड 2009 में हुई थी. अगली परेड 2019 में होगी, पर लगता है कि चीनी राष्ट्रपति चार साल रुकना नहीं चाहते.

भारत ने पिछले छह महीने में जिस आक्रामक राजनय का सहारा लिया है वह भी अनायास नहीं है. इसकी भूमिका दस साल पहले सन 2005 में हुए भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग समझौते से बन गई थी, जिसे अब दस साल के लिए बढ़ा दिया गया है. पर भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग की शुरुआत सन 1992 से हो गई थी जब दोनों देशों की नौसेनाओं ने मालाबार युद्धाभ्यास शुरू किया था. सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के एक साल बाद. सन 1998 में भारत के एटमी परीक्षण से रिश्ते बिगड़ गए. मालाबार युद्धाभ्यास भी बंद हो गया. पर 11 सितम्बर 2001 की घटना के बाद अमेरिका और भारत की विश्व-दृष्टि में बदलाव आया. सन 2002 से यह युद्ध अभ्यास फिर शुरू हुआ और भारत धीरे-धीरे अमेरिका के महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में उभर रहा है.

बराक ओबामा के पहले पिछले साल जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे गणतंत्र परेड में मुख्य अतिथि थे. सन 2002 के बाद से भारत, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय सामरिक संवाद चल रहा है. सन 2007 में शिंजो एबे की पहल पर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच क्वाड्रिलेटरल डायलॉग शुरू हुआ. जिस वक्त यह संवाद शुरू हुआ ऑस्ट्रेलिया में जॉन हावर्थ प्रधानमंत्री थे. उनके बाद प्रधानमंत्री बने केविन रड, जिनके कार्यकाल में सामरिक चतुष्कोणीय संवाद की पहल धीमी पड़ गई. लगता है अब चतुष्कोणीय संवाद फिर से शुरू होगा.

चीनी उभार को लेकर अमेरिका और जापान चिंतित हैं. एशिया-प्रशांत क्षेत्र आने वाले समय में शीतयुद्ध का केंद्र बने तो आश्चर्य नहीं होगा. सागर मार्गों की सुरक्षा एक पहलू है. दूसरा पहलू है भविष्य की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना. दक्षिण चीन सागर में पेट्रोलियम की प्रचुर संभावनाएं हैं. पर चीन और उसके पड़ोसी देशों के बीच सीमा को लेकर विवाद हैं. वियतनाम ने भारत को इस इलाके में तेल खोज का काम सौंपा है. इस इलाके में वियतनाम भी हमारे महत्वपूर्ण मित्र देश के रूप में उभरा है.

बराक ओबामा और नरेंद्र मोदी की वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया है कि दक्षिण चीन सागर में विवादों का समाधान अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों की रोशनी में होना चाहिए. किसी पक्ष को ताकत के इस्तेमाल की धमकी नहीं देनी चाहिए. प्रकारांतर से यह चीन को चेतावनी है. हमारी विदेश नीति सामरिक गठबंधनों से अलग रहने की रही है. पहली बार भारतीय विदेश नीति में आक्रामकता का पुट शामिल हुआ है. ओबामा की यात्रा के एक महीने पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत यात्रा पर आए थे. यूक्रेन और क्राइमिया से जुड़ी नीतियों के कारण रूस इन दिनों अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. भारत ने रूस के साथ न केवल शस्त्र परियोजनाओं को जारी रखने की घोषणा की है, बल्कि आर्कटिक क्षेत्र में रूस के साथ मिलकर तेल और प्राकृतिक गैस की खोज का काम करने का समझौता भी किया है. लगभग इसी प्रकार का सहयोग चीन के साथ रखने की मंशा भारत ने जाहिर की है.

पचास के दशक में पश्चिमी देशों के पाकिस्तान के प्रति झुकाव ने भारत को गुट-निरपेक्षता की और जाने पर मजबूर किया था. साठ के दशक में नेहरू और इंदिरा गांधी का सोवियत संघ की ओर झुकाव राजनीतिक फैसला था. सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने और अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी ने इस दृष्टि को बदला और पश्चिम का रुख किया. राजीव गांधी और पीवी नरसिंहराव ने इसे बढ़ाया और पश्चिम के साथ-साथ इसरायल के साथ सामरिक रिश्ते बनाए. अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार अमेरिका के साथ सामरिक साझेदारी की ओर पहला कदम बढ़ाया. उसी कदम को मनमोहन सिंह सरकार ने पुख्ता किया. भारत के सामने इस वक्त सामरिक और विदेश नीति के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार हैं :-
     ·        दक्षिण एशिया यानी पड़ोसी देशों के साथ सम्बंध.·        हिंद-प्रशांत क्षेत्र की भावी राजनीति.·        अमेरिका के साथ वैश्विक-सामरिक सहयोग.·        यूरोपीय संघ के साथ भावी आर्थिक रिश्ते.·        रूस के साथ बदलते रक्षा-सम्बंध.
नवम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत यात्रा के दौरान कहा था कि अमेरिका कोशिश करेगा कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए समर्थन जुटाया जाए. इस बार भी उन्होंने इसी आशय की बात की है. अमेरिका भारत को चार अंतरराष्ट्रीय समूहों में प्रवेश दिलाने का प्रयास कर रहा है. ये हैं न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट और चौथा है ऑस्ट्रेलिया ग्रुप. ये चारों समूह सामरिक तकनीकी विशेषज्ञता के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं.


मोदी-ओबामा वार्ता के ठीक पहले न्यूक्लियर डील को लागू करने की बाधाएं पार हो गईं हैं, पर अभी इस समझौते की व्यवस्थाएं पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं. पर हमारे सारे मसले सामरिक नहीं हैं. क्या ओबामा यात्रा के बाद भारत में निवेश बढ़ेगा? क्या नए रोजगार तैयार होंगे? क्या इंफ्रास्ट्रक्चर में तेजी आएगी? इन सवालों के जवाब भी चाहिए. विश्व-मंच पर रसूख बढ़ना अच्छी बात है, पर देश में खुशहाली भी तो हो. 
प्रभात खबर में प्रकाशित

भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील पर फर्स्ट पोस्ट का आलेख

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