कुछ साल पहले एक
नारा चला था, ‘सौ में 98 बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।’ इस नारे में तकनीकी दोष है। सौ में 98 बेईमान हैं ही नहीं।
सौ में 98 ईमानदार हैं और ईमानदारी से व्यवस्था को कायम करना चाहते हैं। सच यह है
कि हम सड़कों पर पुलिस वालों को वसूली करते, गुंडों-लफंगो को उत्पात मचाते,
दफ्तरों में कामचोरी होते देखते हैं। हम सोचते हैं कि इनपर काबू पाने की
जिम्मेदारी किसी और की है। हमने खुद को भी बेईमान मान लिया तो शिकायत किससे करेंगे? यह व्यवस्था आपकी है।
दुनिया के विकसित
लोकतंत्र भी कभी इन्हीं स्थितियों से गुजरे हैं। हमारी स्वतंत्रता का 68 वाँ और
गणतंत्र का यह 65 वाँ साल ही है। देश की विशालता और विविधता को देखते हुए जो कुछ
हमने हासिल किया है वह कम भी नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि हमारी तमाम अपेक्षाएं
पूरी नहीं हो पाईं, पर हम व्यवस्था के बारे में खुलकर बात कर पा रहे हैं। उसे
बदलने का मौका हमें जब भी मिलता है बदलाव होता है। हमारे लोकतंत्र की ताकत है हमारी
विविधता। संयोग है कि इस गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा हमारे
मेहमान हैं। अमेरिकी समाज और भारतीय समाज की तुलना करें तो अनेक समानताएं मिलेंगी।
अमेरिका में दुनिया भर की संस्कृतियों का मिलन होता है। जहाँ यूरोप के देश एक राष्ट्र-एक
देश के सिद्धांत पर बने हैं वहीं अमेरिका अनेक राष्ट्रों का देश है, भारत की तरह।
अमेरिका में जो
विविध संस्कृतियाँ बसी हैं वे पिछले तीन-चार सौ साल की देन हैं। भारत की
सांस्कृतिक विविधता हजारों साल की देन है। इस लम्बे इतिहास में इन संस्कृतियों ने
एकता का ताना-बाना बुन लिया है, जिसकी दुनिया में कहीं मिसाल नहीं मिलती। दुनिया
में जैविक, भौगोलिक, पर्यावरणीय, वानस्पतिक और सांस्कृतिक विविधता का सबसे बड़ा
केंद्र भारत है। हमारी गरीबी, असमानता, निरक्षरता और विविधता लोकतंत्र के विरोध में नहीं
जाती बल्कि उसकी ज़रूरत को रेखांकित करती है। सिवा लोकतंत्र के हमारे पास इस विशाल
समांतर संसार को संचालित करने का दूसरा रास्ता नहीं है।
अमेरिका के बाद
हमारी तुलना दुनिया चीन और रूस से और की जा सकती है। पर गौर से देखें तो इन दोनों
देशों में भी विविधता का वह स्वरूप नहीं है जो हमारे पास है। सबसे बड़ी बात इस
विविधता को जोड़े रखने वाला ऐतिहासिक सांस्कृतिक धागा है जो इस देश ने ही विकसित
किया है। भारत का लोकतंत्र सांस्कृतिक बहुलता पर आधारित है। दुनिया के ज्यादातर
देशों में किसी एक धार्मिक-जातीय समुदाय का दबदबा होता है।
इस लोकतंत्र को
चलाने वाली राजनीति में अनेक दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं
दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती हैं। यह फर्क उसके राष्ट्रीय
आंदोलन की देन है। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ।
छोटे देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे
भारत के पक्ष में थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान मुस्लिम राष्ट्र की अवधारणा का
बहुलवादी भारत की अवधारणा से टकराव हुआ। एक अलग मुस्लिम देश की परिकल्पना के पीछे
लोकतांत्रिक अंदेशा था। यह विचार कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम होने के बाद भारत
में मुसलमान अल्पसंख्यक होंगे और दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रह जाएंगे। बावजूद इस
अंदेशे के बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भारत में ही रहना पसंद किया।
बहुलवाद भारतीय
राजनीति का महत्वपूर्ण स्तंभ बन गया क्योंकि भारत में रह रहे विभिन्न जातियों, धर्मों, क्षेत्रों के लोगों को
साथ जोड़े रखना उसके लिए अपरिहार्य हो गया। नए भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकार को
लेकर बहस जारी है और उसके रास्ते भी खोजे गए हैं। पर मूल सवाल आर्थिक, सामाजिक और
संस्थागत विकास का है। भारत हजारों साल पुरानी अवधारणा है, पर वह सांस्कृतिक
अवधारणा है। लोकतंत्र एकदम नई अवधारणा है, जो पश्चिम से आई है। यह लोकतंत्र निर्गुण
नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं। स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन
महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और
गरीबी का उन्मूलन। इन लक्ष्यों को पूरा करने का साजो-सामान हमारी राजनीति में है।
ये सर्वमान्य
मूल्य हैं, भले ही इन्हें लागू करने के तौर-तरीकों को लेकर मतभेद रहे
हों। पिछले दो साल में राजनीति को लेकर राष्ट्रीय समझ में व्यापक बदलाव आया है। देश
में भ्रष्टाचार और उससे जुड़े मसलों को लेकर जो आंदोलन खड़े हुए उनके कारण मध्य
वर्ग के युवाओं की भूमिका राजनीति में बढ़ी है, जो आशा की किरण है।
भारत जब
लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर कदम बढ़ा रहा था उस समय सिर्फ़ गोरी नस्ल, अमीर, ईसाई और एक भाषा बोलने
वाले देशों में ही सफल लोकतांत्रिक व्यवस्था मौजूद थी। भारत पहला देश है जो इन
सारे गुणों से मुक्त है, फिर भी सफल लोकतंत्र है। लोकतंत्र बहुत पुरानी राज-पद्धति
नहीं है। यह औद्योगिक क्रांति के साथ विकसित हुई है और अभी उसका विकास हो ही रहा
है। तीसरी दुनिया के देशों में इसका धर्म, सेना और कबायली परम्पराओं के साथ
घाल-मेल भी हो गया है। पश्चिमी देशों में इस पद्धति के प्रवेश के लिए जनता के एक
वर्ग को आर्थिक और शैक्षिक आधार पर चार कदम आगे आना पड़ा। आर्थिक रूप से भी हम
उन्नत नहीं है, पर हमारी राज-व्यवस्था आज के पश्चिमी लोकतंत्र से टक्कर लेती है।
विकासशील देशों में निर्विवाद रूप से हमारा लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ है। अपने आसपास
के देशों में देखें तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और
नेपाल में लोकतंत्र पर खतरा बना रहता है। पश्चिमी लोकतंत्र के बरक्स भारतीय
लोकतंत्र विकासशील देशों का प्रेरणा स्रोत है।
लोकतंत्र की
सफलता के लिए भी एक स्तर का आर्थिक विकास होना चाहिए। आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक
विकास इस व्यवस्था के स्वास्थ्य की पहली शर्त है। उसके पहले व्यक्ति का स्वास्थ्य।
भारत ने नागरिक को शिक्षा का अधिकार दिया और अब स्वास्थ्य के अधिकार की तैयारी है।
ये सारे अधिकार अभी प्रतीक रूप में ही हासिल हुए हैं। आने वाले दिनों में जनता
इनकी व्यवहारिकता का जवाब अपनी सरकारों से माँगेगी। इन सवालों को माँगने के लिए
हमें मजबूत जनमत की जरूरत है, जो यकीनन तैयार हो रहा है। इस राजनीति के कारण ही यह
बात सामने आ रही है कि विकास का लाभ हर इलाके तक नहीं पहुँचाया जाएगा तो बागी ‘लाल
गलियारे’ तैयार हो जाएंगे। यही राजनीति उन इलाकों की बात को देश की संसद तक लेकर
आएगी।
हमें तेज आर्थिक
विकास के साथ-साथ तेज शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की जरूरत है। इसके
लिए सांविधानिक और राजनीतिक संस्थाओं में सुधार की जरूरत भी है। इन बातों पर आम
राय वोट की यही राजनीति कायम करेगी। वोट ने टकराव के आधार तैयार किए हैं। पर उसने
समूचे भारत की उम्मीदों को पंख भी दिए हैं। यकीनन अगले कुछ साल के भीतर हम काफी
बड़े बदलावों को देखेंगे। और ये बदलाव आप करेंगे।
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