भूमि अधिग्रहण कानून देश की राजनीति और प्रशासन की पोल खोलता है। लम्बे अरसे तक लटकाए रखने के बाद इसे जब पास किया गया तभी ज़ाहिर था कि कारोबार जगत को इसे लेकर अंदेशा है। जयराम रमेश ने ग्रामीण विकास मंत्रालय का पद भार ग्रहण करने के तुरंत बाद भूमि अधिग्रहण के कानून में किसानों के पक्ष में पैरवी की थी, पर जब कानून पास हो रहा था तब उन्हें भी लगने लगा था कि आर्थिक विकास की दर को तेज़ करने के लिए इसकी कड़ी शर्तें कम करनी होंगी। निवेशकों को माफिक आने वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना होगा। अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार इसमें बदलाव लाना चाहती है, पर जब यह कानून पास हो रहा था तब पार्टी ने ये सवाल नहीं उठाए थे। फिलहाल इस मामले से जुड़े कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं:-
· सरकार शीतकालीन सत्र में ही कानून में संशोधन कराने में सफल क्यों नहीं हुई? इसी सत्र में सरकार श्रम कानूनों से सम्बद्ध कानूनी बदलाव कराने में सफल रही थी।
· क्या अध्यादेश के अधिकार का दुरुपयोग हो रहा है? अध्यादेश के बजाय सरकार ने संसद में इसे पेश क्यों नहीं किया? राज्यसभा में पास नहीं होता तो संयुक्त अधिवेशन का रास्ता था।
· आर्थिक उदारीकरण के मामले में कांग्रेस पार्टी की नीति भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों जैसी है। इस मामले में अड़ंगा लगाकर क्या वह अपनी छवि उदारीकरण विरोधी की बनाना चाहेगी?
· मामला केवल भूमि अधिग्रहण कानून तक सीमित नहीं है। अभी सरकार को कई कानूनों को बदलना है। क्या इसके बारे में कोई रणनीति भाजपा के पास है?
वित्तमंत्री अरुण जेटली के अनुसार भूमि अधिग्रहण का प्रावधान करने वाले 13 कानून इस अधिनियम की चौथी अनुसूची में हैं। रेलवे, राष्ट्रीय राजमार्गों, मेट्रो रेल, आणविक ऊर्जा केंद्रों और बिजली जैसी 13 परियोजनाओं पर यह कानून लागू नहीं होता था। इसे सुधारने के लिए 31 दिसम्बर 2014 अधिसूचना जारी करने के लिए अंतिम दिन था। इसलिए सरकार ने अध्यादेश जारी किया। अब नए प्रावधानों में इन परियोजनाओं को भी मौजूदा जमीन अधिग्रहण कानून के दायरे में ले आया गया है।
किसान डरते क्यों हैं?
किसानों के मन में डर है कि उद्योगों के नाम पर सारी जमीन ले ली जाएगी और खेत बचेंगे ही नहीं। तब खाद्य जरूरतें कहाँ से पूरी होंगी? वास्तविकता यह है कि देश के कुल आधार ढाँचे और औद्योगिक जरूरतों के लिए जितनी जमीन की जरूरत है वह देश में कुल कृषि योग्य भूमि के आधा प्रतिशत से भी कम है। भारत में इस समय ज़मीन के दाम दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। ज़मीन के दाम बढ़ने से भूस्वामियों को ही लाभ होगा। पर गाँवों में आधी से ज्यादा आबादी भूमिहीनों की है। उद्योग लगेंगे तो रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे या घटेंगे? दुर्भाग्य है कि इसके पहले ‘सेज’ के नाम जो योजनाएं चलीं वे बंदरबाँट साबित हुईं। उद्योग नहीं लगे।
भूमि अधिग्रहण कानून को यूपीए सरकार ने लम्बी जद्दो-जहद के बाद पास कराया। राहुल गांधी का ‘गेम चेंजर’ यह कानून भी था। उद्योग जगत का मानना है कि कारखाने लगाने के लिए ज़मीन हासिल करना सबसे बड़ी समस्या है। दूसरी ओर अनुमान है कि 1951 से अब तक सरकार ने तकरीबन पाँच करोड़ एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया। इस अधिग्रहण से तकरीबन पाँच करोड़ लोग विस्थापित हुए, जिनमें से 75 फीसदी का पुनर्वास अभी तक नहीं हो पाया है। आबादी के बड़े हिस्से को न तो वैकल्पिक रोज़गार की जानकारी है, न रोज़गार का ढाँचा है और न आर्थिक निवेश है। इसलिए ऐसे कानून की जरूरत थी जिसमें उचित मुआवजे के साथ-साथ पुनर्वास की व्यवस्था भी हो।
80 फीसदी का वीटो
कानून में एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है कि जिन लोगों की ज़मीन ली जा रही है उनमें से 80 फीसदी लोग मना कर दें तो अधिग्रहण सम्भव नहीं होगा। यह व्यवस्था राष्ट्रीय विकास परिषद की सलाह पर डाली गई थी। सरकार ने यह प्रतिशत घटाने का सुझाव दिया था। पर सोनिया गांधी ने इसे वीटो कर दिया। उनके वीटो की खबर को प्रचारित भी किया गया। चूंकि यूपीए दुबारा सत्ता में नहीं आई, इसलिए बीजेपी सरकार को सच का सामना करना पड़ रहा है। कानून में गाँवों में ज़मीन की कीमत बाज़ार भाव से चार गुना और शहरों दोगुना रखी गई है। विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास और अधिग्रहीत भूमि के निरुपयोग पर उसपर मिलने वाले लाभ को मूल भूमि के स्वामी से साझा करने और जमीन वापसी की शर्तें भी हैं।
निवेश करने वालों को पुनर्वास और महंगे दाम से शिकायत नहीं है, पर जमीन की बिक्री पर वीटो को देखने से लगता है कि जमीन खरीदना सम्भव ही नहीं होगा। पाँच साल में जिस जमीन का इस्तेमाल न हो पाया हो उसकी वापसी को लेकर भी कुछ दिक्कतें हैं। तमाम परियोजनाएं पाँच साल तक शुरू नहीं हो पाती हैं। कानून की खामियों को दूर करने के बदले में सरकार 13 क्षेत्रों को भारी मुआवजे की शर्तों से मिली छूट को खत्म करके 80 फीसदी भू-स्वामियों के वीटो से मुक्त करना चाहती है।
सरकार इस बात को जोर देकर कहना चाहती है कि आर्थिक मसलों और खासतौर से निवेश से जुड़े मामलों पर वह समझौता नहीं करेगी। बेशक सरकार को इसे संसद से पास कराना चाहिए, पर उन कारणों को भी देखा जाना चाहिए कि इसे संसद में क्यों नहीं लाया जा सका। संसद को चलने न देना कहाँ से उचित है? यह सवाल केवल कांग्रेस से जुड़ा नहीं है। इसके पहले जब भाजपा विपक्ष में थी तब उसके संसदीय व्यवहार पर भी सवाल उठते रहे हैं। अध्यादेशों की उम्र सीमित अवधि के लिए है। उन्हें संसद के सामने जाना ही होगा। अंततः उससे जुड़े सवालों पर समय रहते विचार करने में क्या दिक्कत है?
अध्यादेश के अधिकार का दुरुपयोग
अध्यादेश के अधिकार की व्यवस्था सन 1935 के भारत सरकार अधिनियम में थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने इस अधिकार का विरोध किया था। संविधान सभा में भी इसे लेकर सवाल उठे थे, पर अंततः इस अधिकार को स्वीकार कर लिया गया, क्योंकि व्यवस्था को चलाए रखने के लिए इसकी जरूरत थी। इस अधिकार का इस्तेमाल केंद्र और राज्यों में लगातार होता रहा है। पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने कुछ नहीं तो दो सौ के आसपास इसका इस्तेमाल किया। तकरीबन इतना ही इंदिरा गांधी ने।
अनुच्छेद 123 और 213 में राष्ट्रपति और राज्यपाल के ‘समाधान’ या संतोष शब्द को लेकर भी सवाल उठाए गए हैं। क्या इसकी न्यायिक समीक्षा सम्भव है? मोटे तौर पर यह मंत्रिपरिषद या सरकार की संतुष्टि है, पर राष्ट्रपति चाहें तो स्पष्टीकरण मांग सकते हैं जैसा कि उन्होंने इस बार किया। क्या वे इसे वापस कर सकते हैं? सन 2013 में भी राष्ट्रपति दोषी-सिद्ध जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता को बरकरार रखने वाले अध्यादेश का औचित्य पूछा था। उस अध्यादेश को लेकर सरकार की अच्छी खासी फज़ीहत हुई। राहुल गांधी ने उसे फाड़कर फेंक देने की सलाह दी और आखिरकार अध्यादेश को वापस लिया गया। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर स्पष्टीकरण मांगकर ऐसा ही एक संकेत राष्ट्रपति ने वर्तमान सरकार को भी दिया है। सन 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने 38 वे संविधान संशोधन के तहत संतोष शब्द को हटा दिया था। जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में 44वें संशोधन की मदद से उसे वापस किया।
अध्यादेश लाने के बावजूद सरकार को इस बारे में कोई रणनीति बनानी होगी। राज्यसभा की स्थिति को देखते हुए लगता नहीं कि सरकार इन्हें पास करा पाएगी। खासतौर से भूमि अधिग्रहण कानून को कांग्रेस पार्टी मुद्दा बनाएगी, क्योंकि उसके सहारे किसानों के सामने उसे यह कहने का मौका मिलेगा कि हमने आपके हितों की रक्षा की कोशिश की जिसे भाजपा ने ध्वस्त कर दिया। बजट सत्र में यदि यह अध्यादेश पास नहीं हो सका तो सम्भव है कि सरकार संसद के संयुक्त अधिवेशन में इसे पास कराए। यही सवाल बीमा और पेंशन कानूनों को लेकर है।
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
· सरकार शीतकालीन सत्र में ही कानून में संशोधन कराने में सफल क्यों नहीं हुई? इसी सत्र में सरकार श्रम कानूनों से सम्बद्ध कानूनी बदलाव कराने में सफल रही थी।
· क्या अध्यादेश के अधिकार का दुरुपयोग हो रहा है? अध्यादेश के बजाय सरकार ने संसद में इसे पेश क्यों नहीं किया? राज्यसभा में पास नहीं होता तो संयुक्त अधिवेशन का रास्ता था।
· आर्थिक उदारीकरण के मामले में कांग्रेस पार्टी की नीति भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों जैसी है। इस मामले में अड़ंगा लगाकर क्या वह अपनी छवि उदारीकरण विरोधी की बनाना चाहेगी?
· मामला केवल भूमि अधिग्रहण कानून तक सीमित नहीं है। अभी सरकार को कई कानूनों को बदलना है। क्या इसके बारे में कोई रणनीति भाजपा के पास है?
वित्तमंत्री अरुण जेटली के अनुसार भूमि अधिग्रहण का प्रावधान करने वाले 13 कानून इस अधिनियम की चौथी अनुसूची में हैं। रेलवे, राष्ट्रीय राजमार्गों, मेट्रो रेल, आणविक ऊर्जा केंद्रों और बिजली जैसी 13 परियोजनाओं पर यह कानून लागू नहीं होता था। इसे सुधारने के लिए 31 दिसम्बर 2014 अधिसूचना जारी करने के लिए अंतिम दिन था। इसलिए सरकार ने अध्यादेश जारी किया। अब नए प्रावधानों में इन परियोजनाओं को भी मौजूदा जमीन अधिग्रहण कानून के दायरे में ले आया गया है।
किसान डरते क्यों हैं?
किसानों के मन में डर है कि उद्योगों के नाम पर सारी जमीन ले ली जाएगी और खेत बचेंगे ही नहीं। तब खाद्य जरूरतें कहाँ से पूरी होंगी? वास्तविकता यह है कि देश के कुल आधार ढाँचे और औद्योगिक जरूरतों के लिए जितनी जमीन की जरूरत है वह देश में कुल कृषि योग्य भूमि के आधा प्रतिशत से भी कम है। भारत में इस समय ज़मीन के दाम दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। ज़मीन के दाम बढ़ने से भूस्वामियों को ही लाभ होगा। पर गाँवों में आधी से ज्यादा आबादी भूमिहीनों की है। उद्योग लगेंगे तो रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे या घटेंगे? दुर्भाग्य है कि इसके पहले ‘सेज’ के नाम जो योजनाएं चलीं वे बंदरबाँट साबित हुईं। उद्योग नहीं लगे।
भूमि अधिग्रहण कानून को यूपीए सरकार ने लम्बी जद्दो-जहद के बाद पास कराया। राहुल गांधी का ‘गेम चेंजर’ यह कानून भी था। उद्योग जगत का मानना है कि कारखाने लगाने के लिए ज़मीन हासिल करना सबसे बड़ी समस्या है। दूसरी ओर अनुमान है कि 1951 से अब तक सरकार ने तकरीबन पाँच करोड़ एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया। इस अधिग्रहण से तकरीबन पाँच करोड़ लोग विस्थापित हुए, जिनमें से 75 फीसदी का पुनर्वास अभी तक नहीं हो पाया है। आबादी के बड़े हिस्से को न तो वैकल्पिक रोज़गार की जानकारी है, न रोज़गार का ढाँचा है और न आर्थिक निवेश है। इसलिए ऐसे कानून की जरूरत थी जिसमें उचित मुआवजे के साथ-साथ पुनर्वास की व्यवस्था भी हो।
80 फीसदी का वीटो
कानून में एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है कि जिन लोगों की ज़मीन ली जा रही है उनमें से 80 फीसदी लोग मना कर दें तो अधिग्रहण सम्भव नहीं होगा। यह व्यवस्था राष्ट्रीय विकास परिषद की सलाह पर डाली गई थी। सरकार ने यह प्रतिशत घटाने का सुझाव दिया था। पर सोनिया गांधी ने इसे वीटो कर दिया। उनके वीटो की खबर को प्रचारित भी किया गया। चूंकि यूपीए दुबारा सत्ता में नहीं आई, इसलिए बीजेपी सरकार को सच का सामना करना पड़ रहा है। कानून में गाँवों में ज़मीन की कीमत बाज़ार भाव से चार गुना और शहरों दोगुना रखी गई है। विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास और अधिग्रहीत भूमि के निरुपयोग पर उसपर मिलने वाले लाभ को मूल भूमि के स्वामी से साझा करने और जमीन वापसी की शर्तें भी हैं।
निवेश करने वालों को पुनर्वास और महंगे दाम से शिकायत नहीं है, पर जमीन की बिक्री पर वीटो को देखने से लगता है कि जमीन खरीदना सम्भव ही नहीं होगा। पाँच साल में जिस जमीन का इस्तेमाल न हो पाया हो उसकी वापसी को लेकर भी कुछ दिक्कतें हैं। तमाम परियोजनाएं पाँच साल तक शुरू नहीं हो पाती हैं। कानून की खामियों को दूर करने के बदले में सरकार 13 क्षेत्रों को भारी मुआवजे की शर्तों से मिली छूट को खत्म करके 80 फीसदी भू-स्वामियों के वीटो से मुक्त करना चाहती है।
सरकार इस बात को जोर देकर कहना चाहती है कि आर्थिक मसलों और खासतौर से निवेश से जुड़े मामलों पर वह समझौता नहीं करेगी। बेशक सरकार को इसे संसद से पास कराना चाहिए, पर उन कारणों को भी देखा जाना चाहिए कि इसे संसद में क्यों नहीं लाया जा सका। संसद को चलने न देना कहाँ से उचित है? यह सवाल केवल कांग्रेस से जुड़ा नहीं है। इसके पहले जब भाजपा विपक्ष में थी तब उसके संसदीय व्यवहार पर भी सवाल उठते रहे हैं। अध्यादेशों की उम्र सीमित अवधि के लिए है। उन्हें संसद के सामने जाना ही होगा। अंततः उससे जुड़े सवालों पर समय रहते विचार करने में क्या दिक्कत है?
अध्यादेश के अधिकार का दुरुपयोग
अध्यादेश के अधिकार की व्यवस्था सन 1935 के भारत सरकार अधिनियम में थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने इस अधिकार का विरोध किया था। संविधान सभा में भी इसे लेकर सवाल उठे थे, पर अंततः इस अधिकार को स्वीकार कर लिया गया, क्योंकि व्यवस्था को चलाए रखने के लिए इसकी जरूरत थी। इस अधिकार का इस्तेमाल केंद्र और राज्यों में लगातार होता रहा है। पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने कुछ नहीं तो दो सौ के आसपास इसका इस्तेमाल किया। तकरीबन इतना ही इंदिरा गांधी ने।
अनुच्छेद 123 और 213 में राष्ट्रपति और राज्यपाल के ‘समाधान’ या संतोष शब्द को लेकर भी सवाल उठाए गए हैं। क्या इसकी न्यायिक समीक्षा सम्भव है? मोटे तौर पर यह मंत्रिपरिषद या सरकार की संतुष्टि है, पर राष्ट्रपति चाहें तो स्पष्टीकरण मांग सकते हैं जैसा कि उन्होंने इस बार किया। क्या वे इसे वापस कर सकते हैं? सन 2013 में भी राष्ट्रपति दोषी-सिद्ध जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता को बरकरार रखने वाले अध्यादेश का औचित्य पूछा था। उस अध्यादेश को लेकर सरकार की अच्छी खासी फज़ीहत हुई। राहुल गांधी ने उसे फाड़कर फेंक देने की सलाह दी और आखिरकार अध्यादेश को वापस लिया गया। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर स्पष्टीकरण मांगकर ऐसा ही एक संकेत राष्ट्रपति ने वर्तमान सरकार को भी दिया है। सन 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने 38 वे संविधान संशोधन के तहत संतोष शब्द को हटा दिया था। जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में 44वें संशोधन की मदद से उसे वापस किया।
अध्यादेश लाने के बावजूद सरकार को इस बारे में कोई रणनीति बनानी होगी। राज्यसभा की स्थिति को देखते हुए लगता नहीं कि सरकार इन्हें पास करा पाएगी। खासतौर से भूमि अधिग्रहण कानून को कांग्रेस पार्टी मुद्दा बनाएगी, क्योंकि उसके सहारे किसानों के सामने उसे यह कहने का मौका मिलेगा कि हमने आपके हितों की रक्षा की कोशिश की जिसे भाजपा ने ध्वस्त कर दिया। बजट सत्र में यदि यह अध्यादेश पास नहीं हो सका तो सम्भव है कि सरकार संसद के संयुक्त अधिवेशन में इसे पास कराए। यही सवाल बीमा और पेंशन कानूनों को लेकर है।
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
सार्थक आलेख !
ReplyDeleteसंत -नेता उवाच !
क्या हो गया है हमें?