सरकार ने राष्ट्रीय
स्वास्थ्य नीति-2015 के जिस मसौदे पर जनता की राय मांगी है उसके अनुसार आने वाले
दिनों में चिकित्सा देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार बन जाएगी। यानी स्वास्थ्य व्यक्ति
का कानूनी अधिकार होगा। सिद्धांततः यह क्रांतिकारी बात है। भारतीय राज-व्यवस्था
शिक्षा के बाद व्यक्ति को स्वास्थ्य का अधिकार देने जा रही है। इसका मतलब है कि
हमारा समाज गरीबी के फंदे को तोड़कर बाहर निकलने की दिशा में है। पर यह बात अभी तक
सैद्धांतिक ही है। इसे व्यावहारिक बनने का हमें इंतजार करना होगा। पर यह भी सच है
कि पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर चेतना बढ़ी है।
जानकारी पाने के
अधिकार, खाद्य सुरक्षा और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के अधिकार के तर्ज पर हम
स्वास्थ्य के अधिकार की दिशा में बढ़ रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस
उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि अगर केंद्र में तीसरी बार संप्रग की सरकार बनी
तो देश में सभी की अच्छी सेहत के लिए राज्य में स्वास्थ्य का अधिकार प्रदान किया
जाएगा। कांग्रेस पार्टी ने इसे अपने चुनाव घोषणापत्र में जगह दी थी। भारतीय जनता
पार्टी ने भी इस अधिकार का वादा किया था। सच यह है कि इस प्रकार के वादे हमारी
राजनीति में बड़े मसलों की तरह सामने कभी नहीं आते। आमतौर पर महत्वहीन विषय छाए
रहते हैं।
स्वास्थ्य के
अधिकार को 1946 में विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने स्थापित किया। इसके बाद 1948 मे मानवाधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 25 के रूप में इसे शामिल
किया गया था। दुनिया के 100 से ज्यादा देशों
के संविधान में इसे शामिल किया जा चुका है। इसके अलावा भी कई प्रकार की
अंतरराष्ट्रीय संधियों में सार्वजनिक स्वास्थ्य और उससे जुड़े पहलुओं पर जोर दिया
जाता रहा है। सन 2000 मे संयुक्त
राष्ट्रसंघ ने स्वास्थ्य के अधिकार को लेकर कुछ मानक तय किए। ये मानक हैं उपलब्धता,
यानी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों को उपलब्ध हों। इनमें पीने का साफ पानी, साफ सफाई युक्त अस्पताल, ट्रेंड चिकित्सा कर्मी और जरूरी दवाएं। स्वास्थ्य सेवाएं
लोगों की शारीरिक और आर्थिक स्थिति के
अनुसार उनकी पहुंच में हो। सभी स्वास्थ्य सुविधाएं चिकित्सा के नैतिक मापदंडो के
अनुरूप हों और अच्छी गुणवत्ता पर आधारित हों।
भारतीय संविधान
के अनुच्छेद 47 के अनुसार ‘राज्य अपने लोगों के
पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को लेकर अपने
प्राथमिक कर्तव्यों को मानेगा...।’ पर यह व्यवस्था
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के तहत है। देश की अदालतों ने अनुच्छेद 21 के तहत
दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण के अधिकार को जीवन और स्वास्थ्य के अधिकार के साथ
जोड़ा है। अदालतों ने प्राण के अधिकार का अर्थ मानव की गरिमा और सभ्यता के अनुसार
जीने का अधिकार माना है। हालांकि यह मौलिक अधिकार व्यक्ति को अनावश्यक कैद किए
जाने से बचाव देने के वास्ते है। पर यह माना जाता
है कि यदि किसी व्यक्ति का जीवन औषधियों की कमी या इलाज न हो पाने के कारण खतरे
में है तो उसकी रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। इस कानूनी व्याख्या के बावजूद
व्यावहारिक सत्य यह है कि गरीब व्यक्ति का जीवन हर समय खतरे में रहता है।
वादे और इरादे
अपनी जगह हैं, पर वास्तविक स्थिति अच्छी नहीं है। भारत की सार्वजनिक चिकित्सा
व्यवस्था दुनिया की सबसे फिसड्डी व्यवस्थाओं में शामिल हेती है। हमारे यहाँ प्रसव
के दौरान जच्चा-बच्चा की मौतों के आंकड़े बेहद डरावने हैं। दुनिया में बाल-मृत्यु
की कुल घटनाओं में एक चौथाई सिर्फ भारत में होती है। मूलतः यह गरीबी से जुड़ी
समस्या है। स्वास्थ्य, आवास, पहनावे और जीवन शैली में
गरीब और अमीर का फर्क साफ नजर आता है। दो साल पहले बिहार के एक स्कूल में मिड डे
मील का हादसा हुआ था। हमने देखा कि उन बच्चों के बीमार पड़ने के बाद किस प्रकार की
चिकित्सा सेवा उन्हें मिली। हाल में भारत सरकार और युनिसेफ के एक सर्वेक्षण से पता
लगा कि कुपोषण के कारण ‘अंडरवेट’ बच्चों की संख्या में सन 2006 के बाद से 15 फीसदी
की कमी आई है, पर अब भी 30 फीसदी के आसपास बच्चे कुपोषित हैं। विश्व
स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 55 प्रतिशत शिशुओं की मृत्यु का
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कारण कुपोषण ही है।
दुनिया में सबसे
बड़ा रोग क्या है? विश्व स्वास्थ्य संगठन
ने नितांत गरीबी को सबसे बड़ा रोग माना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन बीमारियों का जो
अंतरराष्ट्रीय वर्गीकरण किया है उसके अंत में जेड-59.5 कोड नाम जिस बीमारी को दिया
गया वह है नितांत गरीबी। इस गरीबी के रहते क्या हम देश को स्वास्थ्य का अधिकार दे
सकते हैं? सन 1977 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तय किया
था कि 2000 तक दुनिया के सभी देश ‘सबके लिए
स्वास्थ्य’ व्यवस्था लागू करा देंगे। उस सीमा रेखा को
गुजरे हुए भी डेढ़ दशक हो गया। सन 2000 में संयुक्त राष्ट्र ने सन 2015 तक आठ मिलेनियम
डेवलपमेंट गोल तय किए थे। वे पूरे नहीं होने वाले हैं। दुनिया को इस साल उन
लक्ष्यों के बारे में सोचना है कि आगे का रास्ता क्या होगा।
हम वैश्वीकरण के
दौर से गुजर रहे हैं। यह वैश्वीकरण केवल पूँजी के प्रसार का वैश्वीकरण ही नहीं है,
बल्कि समस्याओं के समाधान का वैश्वीकरण भी है। देखना यह है कि मानवता से जुड़े
लक्ष्य पूरे क्यों नहीं हो पाते हैं। आज भी हर साल डायरिया, मलेरिया, टीबी जैसे रोगों
से लाखों मौत होती हैं। पिछले साल भारत को पोलियो मुक्त देश का प्रमाण पत्र मिल
गया, पर सच यह है कि इस काम पर हमने जितनी रकम फूँकी उससे यह रोग कई साल पहले खत्म
हो जाना चाहिए था। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटालों से घिरा रहा। अकेले
उत्तर प्रदेश में ही हजारों करोड़ रुपए से ज्यादा के घोटाले की खबरें हैं। ये
घोटाले तकरीबन हर राज्य में हुए हैं।
जिस थाली में छेद
है उससे क्या उम्मीद की जानी चाहिए? बहरहाल ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकार अधिनियम’ स्वागत योग्य कदम है। सवाल है कि क्या यह व्यावहारिक रूप
से लागू हो सकेगा? प्राइमरी शिक्षा को
व्यक्ति का अधिकार बना देने के बावजूद देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर स्कूल
टाइम पर भीख माँगते बच्चों का नज़र आना क्या साबित करता है? खबर है कि केंद्र सरकार ने 2014-15 के स्वास्थ्य बजट में
20 प्रतिशत (तकरीबन 6000 करोड़ रुपए) की कसौटी कर दी है। यह राजकोषीय घाटे का दबाव
है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2015 के मसौदे में धन जुटाने के लिए नया टैक्स लगाने
का सुझाव दिया गया है। ऐसा ही अधिभार सन 2005 में शिक्षा के लिए लगाया गया था। मसौदे
में सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने की अनुशंसा की
गई है- यानी प्रति नागरिक 3,800 रुपए प्रति वर्ष।
ग्यारहवीं
पंचवर्षीय के अंत में हम 1.04 फीसदी खर्च सार्वजनिक स्वास्थ्य पर कर रहे थे। अनुमान
है कि इस वक्त हम 1.2 फीसदी राशि इस काम पर खर्च कर रहे हैं। अब बारहवीं योजना के
अंत में इसे 2.5 फीसदी करने का लक्ष्य है। हम सन 1983 और 2002 में दो राष्ट्रीय
स्वास्थ्य नीतियाँ घोषित कर चुके हैं। सन 2002 की नीति में जीडीपी का 2 फीसदी स्वास्थ्य
सेवाओं पर खर्च करने की बात थी। वह लक्ष्य आज तक प्राप्त नहीं सका है। प्राप्त
नहीं हुआ। खास बात यह है कि इस खर्च में जल आपूर्ति और सफाई की व्यवस्था शामिल है।
सेना, रेलवे और केंद्र सरकार के कर्मचारियों की स्वास्थ्य सेवा पर खर्च को अलग कर
दें तो सामान्य नागरिक के स्वास्थ्य के लिए पैसा बचता ही कहाँ है? पैसा हो भी तो पर्याप्त संख्या में डॉक्टर, नर्स, अस्पताल
और उससे जुड़ा आधार ढाँचा उपलब्ध नहीं है।
गरीब लोग अपने
पैसे का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य रक्षा पर खर्च करते हैं। ग्रामीण भारत के औसतन
नितांत दरिद्र परिवार अपने मासिक खर्च का 5 फीसदी स्वास्थ्य पर लगाते हैं। जब
स्वास्थ्य सम्बन्धी किसी गम्भीर दुश्वारी से उनका सामना होता है तो वे खान-पीने
में कटौती करते हैं, सम्पत्ति बेचते हैं या ऊँची दर पर कर्ज लेते हैं। ब्याज की
स्टैंडर्ड दर है 3 प्रतिशत प्रति माह (42 प्रतिशत वार्षिक)। आमतौर पर यह खर्च बजाय
सस्ते बचाव के महंगे इलाज पर होता है। उनका सामान्य स्वास्थ्य ठीक होता तो उन्हें
रोग लगते ही क्यों? गरीबों को फ्री मिलने
वाली सरकारी स्वास्थ्य सुविधा पर भरोसा भी नहीं है। वे या तो प्राइवेट नीम हकीमों
के पास जाते हैं या भोपाओं, यानी झाड़-फूँक करने वाले ओझाओं की शरण में। इसकी
वजह उनकी अज्ञानता है और सरकारी सेवाओं की विफलता भी।
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