बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस की परेड का मुख्य अतिथि बनाने
का कोई गहरा मतलब है? एक ओर सुरक्षा व्यवस्था का दबाव पहले से था,
ओबामा की यात्रा ने उसमें नाटकीयता पैदा कर दी. मीडिया की धुआँधार कवरेज ने इसे
विशिष्ट बना दिया है. यात्रा के ठीक पहले दोनों देशों के बीच न्यूक्लियर डील के पेचीदा मसलों का हल होना भी सकारात्मक है. कई लिहाज से यह ‘गणतांत्रिक डिप्लोमेसी’ इतिहास के पन्नों में देर तक याद की जाएगी.
दोनों के रिश्तों में दोस्ताना बयार सन 2005 से बह रही है,
पर पिछले दो साल में कुछ गलतफहमियाँ भी पैदा हुईं. इस यात्रा ने कई गफलतों-गलतफहमियों
को दूर किया है और आने वाले दिनों की गर्मजोशी का इशारा किया है. पिछले 65 साल में
अमेरिका को कोई राजनेता इस परेड का मुख्य अतिथि कभी नहीं बना तो यह सिर्फ संयोग
नहीं था. और आज बना है तो यह भी संयोग नहीं है. वह भी भारत का एक नजरिया था तो यह
भी हमारी विश्व-दृष्टि है. ओबामा की यह यात्रा एक बड़ा राजनीतिक वक्तव्य है.
दुनिया की पाँच में से चार महाशक्तियों का भारत की गणतंत्र
परेड में प्रतिनिधित्व हो चुका है. यह पहला मौका है, जब अमेरिका इसमें शिरकत कर
रहा है. सन 1991 में देश की आर्थिक नीति ही नहीं बदली, विदेश नीति में भी बदलाव
आया. उसी साल सोवियत संघ का विघटन हुआ और शीतयुद्ध के खात्मे की घोषणा हुई. भारत-अमेरिका
रिश्तों पर छाई तनाव की चादर हटने लगी. पूर्व विदेश सचिव के श्रीनिवासन के अनुसार
सन 1994 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के
पास सन 1995 की परेड का निमंत्रण भेजा था. पर क्लिंटन ने ‘स्टेट ऑफ द यूनियन’ के वार्षिक संदेश का
बहाना देकर उस निमंत्रण को टाल दिया.
जैसे भारत के राष्ट्रपति का संसद में हर साल अभिभाषण होता
है उसी तरह अमेरिकी राष्ट्रपति का जनवरी में संसद के संयुक्त अधिवेशन में ‘स्टेट ऑफ द यूनियन’ वक्तव्य होता है. बराक
ओबामा का वार्षिक संदेश हाल में ही हुआ है. बहरहाल रिश्तों में बदलाव आता गया. अटल
बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका को भारत का स्वाभाविक मित्र घोषित किया. उधर से भी पहल
हुई. पहले जॉर्ज बुश ने और फिर बराक ओबामा ने भारत को अपना महत्वपूर्ण सामरिक
सहयोगी घोषित किया. ऐसा भी नहीं कि भारत पूरी तरह अमेरिका के खेमे में जा बैठा है.
बराक ओबामा की यात्रा के पहले दिसम्बर में भारत ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर
पुतिन का स्वागत किया. यह स्वागत ऐसे मौके पर किया गया जब अमेरिका और नाटो देशों
ने रूस पर पाबंदियाँ लगा रखी हैं.
बहरहाल इस सर्द मौसम में रिश्तों की गरमाहट का अंदाज नया
है. तीन महीने पहले इस यात्रा का अनुमान किसी को नहीं था.
अमेरिकी राष्ट्रपति के कार्यक्रम काफी पहले से तैयार हो जाते हैं और भारत की
गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि का फैसला भी काफी पहले हो जाता है. पर लगता है
कि इस साल नरेंद्र मोदी की सितम्बर की अमेरिका यात्रा के बाद चीजों में बदलाव आया
है. गणतंत्र दिवस परेड प्रतीकात्मक ही सही बदले हुए रिश्तों को व्यक्त कर रही है.
गौर से देखें तो पाएंगे कि हमारी गणतंत्र परेडों के ज्यादातर
मुख्य अतिथि विदेश नीति के बरक्स ही आते रहे हैं. सन 1950 से हम यह उत्सव मना रहे
हैं. परेड तब भी होती थी, पर राजपथ पर नहीं होती थी. राजपथ की परेड की परम्परा सन
1955 से शुरू हुई है. सन 1950 में मुख्य अतिथि इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्ण थे,
जो पचास के दशक में गुट निरपेक्ष आंदोलन में जवाहर लाल नेहरू के सहयोगी रहे. सन1955
में उन्होंने अपने देश में बांडुंग सम्मेलन बुलाकर उदीयमान देशों का गुट निरपेक्ष
संगठन बनाने की शुरुआत की थी. सुकर्ण का आगमन एक प्रकार से भारत की निर्गुट विदेश
नीति की घोषणा थी.
सन 1955 में जब वर्तमान स्वरूप में राजपथ की परेड शुरू हुई
तो मुख्य अतिथि थे पाकिस्तान के गवर्नर जनरल गुलाम मोहम्मद. आपको अटपटा लगेगा, पर यह
तथ्य उस दौर की राजनीतिक को रेखांकित करता है. उसके दस साल बाद 1965 में पाकिस्तान
के खाद्य और कृषि मंत्री राना अब्दुल हमीद इस परेड में मुख्य अतिथि थे. विडंबना
देखिए कि इसके कुछ महीनों बाद ही भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ. क्या हम आज
पाकिस्तान के किसी हुक्मरां के मुख्य अतिथि बनने की कल्पना कर सकते हैं? पाकिस्तान के अलावा सन 1958 में चीन के रक्षामंत्री मार्शल ये
जियानयिंग मुख्य अतिथि थे. यह पंचशील का समय था, हिन्दी-चीनी भाई-भाई का दौर. इसके
कुछ समय बाद ही चीन के साथ सीमा विवाद शुरू हो गया, जिसकी परिणति 1962 की लड़ाई
में हुई.
परेड में वाले अतिथियों का चयन किसी न किसी रूप में भारत की
‘विश्व-दृष्टि’ से होता
रहा है. पचास और साठ के दशक में आए ज्यादातर मेहमान या तो गुट निरपेक्ष देशों से
थे या सोवियत खेमे से. इनमें फ्रांस एक अपवाद है. पिछले 64 साल में भूटान और
फ्रांस को चार-चार बार, मॉरिशस और रूस को तीन-तीन बार मुख्य अतिथि बनने का मौका
मिला है. इनके अलावा ब्रिटेन, ब्राजील, नाइजीरिया, इंडोनेशिया, युगोस्लाविया, स्पेन,
पुर्तगाल, पोलैंड, पेरू, अल्जीरिया, चीन, पाकिस्तान, तंजानिया, नाइजीरिया, नेपाल, ज़ायरे,
कजाकिस्तान, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, ज़ाम्बिया, ऑस्ट्रेलिया, पोलैंड, आयरलैंड,
अर्जेंटीना, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका, ट्रिनिडाड-टुबैगो, मालदीव, सऊदी अरब, ईरान,
सिंगापुर, जापान और मैक्सिको जैसे देशों को निमंत्रण दिया गया.
ये सारे मेहमान हमेशा किसी गहरे उद्देश्य से नहीं बुलाए गए.
उनकी व्यस्तता और उपलब्धता भी बड़ा कारण होती रही होगी. पर गौर करें तो पाएंगे कि
हाल के वर्षों में आए अधिकतर मेहमान पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के हैं. पिछले
साल मुख्य अतिथि थे जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे. उनके आगमन के ठीक पहले नवम्बर
2013 में जापान के सम्राट अकीहितो तथा सम्राज्ञी मिचिको छह दिन की यात्रा पर आए
थे. जापान के सम्राट अमूमन बहुत कम विदेश यात्राओं पर जाते हैं और भारत सरकार की
ओर से उन्हें आने का निमंत्रण पिछले दस साल से पड़ा था. माना जाता है कि जापानी
प्रधानमंत्री शिंजो एबे के सत्ता संभालने के बाद इस निमंत्रण को स्वीकार करने का
निर्णय हुआ.
यात्राओं के इस राजनय की रोशनी में हम भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ और अमेरिका की एशिया-प्रशांत
नीति के संदेश देख सकते हैं. इसमें भारत की भावी आर्थिक नीति के संदेश भी छिपे
हैं. नरेंद्र मोदी इस परेड के मार्फत अपनी सॉफ्ट पावर का प्रदर्शन करना भी चाहते
हैं. चीनी राष्ट्रपति की यात्रा के समय उन्होंने इसकी कोशिश की. धीरे-धीरे हमारी
गणतंत्र परेड फौजी कबायद के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के रंगों की प्रदर्शनी के रूप
में भी उभर रही है. नब्बे के दशक में जब भारत में केबल टीवी आया ही था इस परेड का
स्टार टीवी ने हांगकांग से प्रसारण किया था. भारत ने दुनिया की ओर अपनी खिड़की
खोली. ओबामा की उपस्थिति के कारण इस परेड को कुछ और बड़ा आकाश मिलेगा.
प्रभात खबर में प्रकाशित
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