विदेश सचिव सुजाता सिंह को हटाए जाने के पीछे
कोई राजनीतिक मंतव्य नहीं था। इसके पीछे न तो ओबामा की भारत यात्रा का कोई प्रसंग
था और न देवयानी खोबरागड़े को लेकर भारत और अमेरिका के बीच तनातनी कोई वजह थी। यह
बात भी समझ में आती है कि सरकार सुब्रमण्यम जयशंकर को विदेश सचिव बनाना चाहती थी
और उसे ऐसा करने का अधिकार है। यही काम समझदारी के साथ और इस तरह किया जा सकता था
कि यह फैसला अटपटा नहीं लगता। अब कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। साथ ही सुजाता
सिंह और सुब्रमण्यम जयशंकर की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को लेकर चिमगोइयाँ चलने लगी
हैं। प्रशासनिक उच्च पदों के लिए होने वाली राजनीतिक लॉबीइंग का जिक्र भी बार-बार
हो रहा है। यह देश के प्रशासनिक अनुशासन और राजनीतिक स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छा
नहीं है। अलबत्ता नौकरशाही, राजनीति और जनता के रिश्तों को लेकर विमर्श शुरू होना
चाहिए। इन दोनों की भूमिकाएं गड्ड-मड्ड होने का सबसे बड़ा नुकसान देश की गरीब जनता
का होता है। भ्रष्टाचार, अन्याय और अकुशलता के मूल में है राजनीति और प्रशासन का
संतुलन।
जिस रोज यह खबर मिली उसी रोज यह जानकारी भी
मीडिया में आई कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज सुजाता सिंह को हटाने के पक्ष में
नहीं थीं। अलबत्ता सुषमा स्वराज ने ट्वीट करके परिस्थितियों को स्पष्ट किया और
विवाद को बढ़ने होने नहीं दिया। अलबत्ता इस आशय की जानकारियाँ छनकर बाहर आ रहीं
हैं कि जयशंकर को विदेश सचिव बनाने का मन पीएमओ ने अक्तूबर में बना लिया था। लगता
है कि विदेशमंत्री को इस बात की जानकारी कुछ देर से लगी। यह बात अटपटी तो नहीं है,
पर कुछ विस्मय होता है। लगता है कि राजनीतिक स्तर पर सरकार में परस्पर विश्वास
पूरी तरह कायम नहीं हो पाया है। फैसलों के पीछे सामूहिकता नजर नहीं आती।
इधर यह बात भी सामने आई कि यूपीए सरकार के
प्रधानमंत्री जयशंकर को पहले ही विदेश सचिव बनाना चाहते थे, पर पार्टी सुजाता सिंह
के पक्ष में थी। इस आशय की खबरें भी उन दिनों उड़ी थीं कि सुजाता सिंह ने इस्तीफे
की धमकी दी है। सुजाता सिंह के पिता टीवी राजेश्वर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के
दौर में आईबी प्रमुख होते थे और बाद में वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बने। जयशंकर
के मुकाबले सुजाता सिंह विदेश सेवा में वरिष्ठ थीं, पर व्यावसायिक कौशल के आधार पर
जयशंकर का नाम लिया जा रहा था। बहरहाल नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद पिछले आठ
महीनों में सबसे तेज काम विदेशी रिश्तों को लेकर हुआ। ऐसा भी कहा जा रहा है कि
बराक ओबामा का गणतंत्र परेड में शामिल होने के पीछे जयशंकर की मेहनत भी थी। जापान
के प्रधानमंत्री शिंजो एबे, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी नेतृत्व के
साथ भी उनका घनिष्ठ सम्पर्क काम आया। इसलिए इस निर्णय को लेकर विस्मय नहीं है। यह
बात भी समझ में आती है कि यदि 31 जनवरी के पहले यह फैसला नहीं होता तो वे विदेश
सचिव नहीं बन पाते।
नरेंद्र मोदी की कार्यशैली ऐसी है कि वे बड़े
फैसले करने से हिचकते नहीं और विवाद का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं। दूसरी
महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अपने राजनीतिक सहयोगियों के मुकाबले नौकरशाही पर
ज्यादा भरोसा करते हैं। पिछले साल जून में उन्होंने सभी मंत्रालयों और विभागों के
77 सचिवों और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक कर उनसे कहा कि वे सुझाव देने या किसी
मुद्दे को सुलझाने में उनके हस्तक्षेप के लिए सीधे मुझे फोन करें या ईमेल से
संपर्क करें। पिछले आठ साल में अफसरों की इतनी बड़ी बैठक पहली बार हुई थी। तब
सरकार बने एक महीना ही हुआ था। मई के अंतिम सप्ताह में सरकार बनते ही यह समझ में आ
गया था कि सरकारी कामकाज की गति तेज होगी और वह बड़े फैसले करेगी।
सोमवार को शपथ ग्रहण समारोह हुआ। मंगलवार को
नवाज शरीफ से बातचीत। बुधवार को अध्यादेश की मदद से भारतीय दूरसंचार विनियामक
प्राधिकरण(ट्राई) के पूर्व अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र को प्रधान सचिव नियुक्त किया।
नई सरकार का यह पहला अध्यादेश था। उसे लेकर राजनीतिक क्षेत्रों में विरोध व्यक्त
किया गया, पर मोदी सरकार ने इतना स्पष्ट किया कि फैसला किया है तो फिर
संशय कैसा। इसके बाद नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद अफसर पीएमओ में आए और यह क्रम चल
रहा है। इसके समांतर राज्यपालों को बदलने का क्रम शुरू हुआ। राज्यपालों की
नियुक्ति को एक राजनीतिक कर्म मान लिया गया है, पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों की
रोशनी में देखें तो यह संस्थागत पद है और उसमें बदलाव करते वक्त सरकार को उसके
कारण भी बताने चाहिए।
विदेश सचिव का पद भी संस्थागत मामला है। यह
नियुक्ति एक निश्चित अवधि के लिए होती है। पर राजनीतिक सत्ता का यह विशेषाधिकार है
और उसे स्वीकार करना होगा। ऐसा नहीं होगा तो प्रशासन में अवरोध पैदा होगा। खबर यह
भी है कि पिछले 6 महीने में विदेश मंत्रालय ने राजदूतों और हाई कमिश्नरों की
नियुक्तियों से सम्बद्ध जितनी सिफारिशें भेजीं उनको पीएमओ ने रद्द कर दिया। नए
राजदूतों की नियुक्तियां नहीं हुईं जो शायद अब होंगी। हाल में रक्षा मंत्रालय ने
डीआरडीओ के प्रमुख अविनाश चंदर का कंट्रैक्ट रद्द किया तब एक-दो सवाल उठे पर मूल
बात सरकार के अधिकार क्षेत्र की है। उसके पहले पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा उप सलाहकार
नेहचल संधू से इस्तीफा लिया गया। सुजाता सिंह को भी काफी पहले इशारों में बता दिया
गया था कि वे लंबे समय तक इस पद पर नहीं रह पाएंगी। अक्सर महत्वपूर्ण बैठकों में
उन्हें शामिल नहीं किया जाता था।
केंद्र में राजनीतिक सत्ता और नौकरशाही के
रिश्ते अपेक्षाकृत संतुलित हैं। राज्यों में तो हालत बहुत खराब है। उत्तर प्रदेश
में जब भी नई सरकार आती है सेक्रेटरी से लेकर थानेदार तक के एक मुश्त तबादले होते
हैं। सरकारी अफसरों को भी राजनेताओं के साथ खुद को जोड़ने में कोई हिचक नहीं होती।
अकसर वे राजनेताओं की तरह बर्ताव करते हैं। इतना ही नहीं पुलिस कप्तान से लेकर
डीजी तक सभाओं में राजनेताओं के पैर छूते हैं। हाल में हरियाणा में बीजेपी के
सत्ता में आने के कुछ दिन बाद ही नौकरशाही के पहले फेर बदल में ही सहित 71 आईएएस अधिकारियों का एक ही रात में तबादला हो
गया। सरकारी भाषा में तबादले प्रशासनिक जरूरतों के आधार पर होते हैं, पर सामान्य
समझ है कि जरूरत राजनीतिक होती है प्रशासनिक नहीं।
सन 2013 में उच्चतम न्यायालय ने नौकरशाहों को
राजनेताओं से बचाने के संबंध में निर्देश दिया था, पर हाल के वर्षों में
दुर्गाशक्ति नागपाल से लेकर अशोक खेमका तक के मामलों को देखते हुए विश्वास नहीं
होता कि कोई फर्क पड़ा है। देश के 83 सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका
दायर की थी जिसमें कोर्ट से अनुरोध किया गया था कि वह केन्द्र और राज्य सरकारों को
यह निर्देश दे कि राजनेता नौकरशाहों को भयमुक्त और स्वतंत्र वातावरण में काम करने
दें तथा उनके काम में टांग न अड़ाएं। यह एक महत्वपूर्ण पहल थी। पर इसे व्यावहारिक
रूप लेने में समय लगेगा।
उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि किसी
नौकरशाह की न्यूनतम पद स्थापना अवधि तीन वर्ष होनी चाहिए। निर्धारित अवधि के लिए
अफसर की नियुक्ति अच्छी बात है लेकिन ऐसा केवल तभी हो पाएगा जब नागरिक निगरानी भी
होती हो। अदालत ने यह भी कहा कि नौकरशाह को मौखिक आदेश पर कोई काम नहीं करना
चाहिए। यानी आदेशों का लिखित प्रमाण होना चाहिए। पर हमारे देश में राजनीति से लेकर
प्रशासन तक हर जगह मौखिक आदेश ही सर्वोपरि हैं। व्यावहारिक रूप से भी हर समय लिखित
आदेश सम्भव नहीं। काफी बातें हमारी कार्य-संस्कृति पर निर्भर करती हैं। अदालत ने
यह निर्देश भी दिया कि नौकरशाही का प्रबंधन एक स्वतंत्र आयोग को सौंपा जाए ताकि
उन्हें राजनीतिक प्रभाव से बचाया जा सके।
जब पदों पर नियुक्ति का अधिकार सरकार का है तो काहे की चख चख और कहे का शोर। सुजाता सिंह को छुट्टी पर जाने के लिए नहीं कहा गया था उन्हें अन्य पदो में से नियुक्ति विकल्प पूछे गए थे ,अब यदि वे तैयार नहीं हुईं तो उनकी अपनी इच्छा है हर बात को राजनीतिक रूप में देखना छोड़ देना चाहिए
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