हाल में मुम्बई
में हुई 102वीं साइंस
कांग्रेस तथाकथित प्राचीन भारतीय विज्ञान से जुड़े कुछ विवादों के कारण खबर में
रही. अन्यथा मुख्यधारा के मीडिया ने हमेशा की तरह उसकी उपेक्षा की. आमतौर पर 3
जनवरी को शुरू होने वाली विज्ञान कांग्रेस हर साल नए साल की पहली बड़ी घटना होती
है. जिस उभरते भारत को देख रहे हैं उसका रास्ता साइंस की मदद से ही हम पार कर सकते
हैं. इस बार साइंस कांग्रेस का थीम थी 'मानव विकास के लिए विज्ञान और तकनीकी'. इसके उद्घाटन के बाद
पीएम मोदी ने कहा कि साइंस की मदद से ही गरीबी दूर हो सकती है और अमन-चैन कायम हो
सकता है. यह कोरा बयान नहीं है, बल्कि सच है. बशर्ते उसे समझा जाए.
हमने साइंस पर
रहस्य का आवरण डाल रखा है. अपने अतीत के विज्ञान को भी हम चमत्कारों के रूप में
पेश करते हैं. साइंस चमत्कार नहीं जीवन और समाज के साथ जुड़ा सबसे बुनियादी विचार
है. प्रकृति के साथ जीने का रास्ता है. तकनीक कैसी होगी यह समाज तय करता है. जो
समाज जितना विज्ञान मुखी होगा उतनी ही उसकी तकनीक सामाजिक रूप से उपयोगी होगी. जनवरी
2008 में जब टाटा की नैनो पहली बार दुनिया के सामने पेश की गई तब वह एक क्रांति
थी. जिस देश में सुई भी नहीं बन रही थी उसने दुनिया की सबसे कम लागत वाली कार
तैयार करके दिखा दी. दूसरी ओर 2013 में हमने उत्तराखंड की त्रासदी को होते देखा. दोनों
बातें हमारे वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से भी जुड़ी है.
देश की बुनियादी
समस्याएं हैं गरीबी, रोजगार, भोजन, पानी, स्वास्थ्य, ऊर्जा वगैरह. इन सब का समाधान
अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र के सिद्धांतों में जरूर है, पर रास्ते बनाना
विज्ञान का काम है. पिछले हफ्ते कोलकाता में इंफोसिस पुरस्कार वितरण समारोह में
अमर्त्य सेन ने कहा कि भारतीय विज्ञान की शानदार परम्परा रही है, पर वह वैश्विक
परम्परा से जुड़ी थी. एकांगी नहीं थी. हमने मिस्र, यूनान, रोम और बेबीलोन से भी
सीखा और उन्हें भी काफी कुछ दिया. हजार साल पहले हमारी अर्थ-व्यवस्था दुनिया की
सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था थी. यदि हम प्रगति की उस गति को बनाए नहीं रख पाए तो उसके
कारण खोजने होंगे. इसमें हमारी कुछ कमियाँ भी होंगी.
आज का भारत
विज्ञान और टेक्नॉलजी में यूरोप और अमेरिका से बहुत पीछे हैं. आधुनिक विज्ञान की
क्रांति यूरोप में जिस दौर में हुई उसे ‘एज ऑफ डिस्कवरी’ कहते हैं. ज्ञान-विज्ञान
आधारित उस क्रांति के साथ भी भारत का सम्पर्क सबसे पहले हुआ. एशिया-अफ्रीका और
लैटिन अमेरिका के मुकाबले यूरोप की उस क्रांति के साथ भारत का सम्पर्क पहले हुआ. सन
1928 में सर सीवी
रामन को जब नोबेल पुरस्कार मिला तो यूरोप और अमेरिका की सीमा पहली बार टूटी थी. सन
1945 में जब मुम्बई
में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना हुई थी तब विचार यही था कि
आधुनिक भारत विज्ञान और तकनीक के सहारे उसी तरह आगे बढ़ेगा जैसे यूरोप बढ़ा. पर
ऐसा हुआ नहीं.
हमारी तुलना चीन
से की जाती है, जो हमारी तरह एक
पुरानी सभ्यता है. दोनों देश एक जमाने तक विज्ञान और तकनीक में आज से बेहतर थे.
दोनों ही औद्योगिक क्रांति से वंचित रहे. दोनों देश आज आर्थिक विकास के दरवाजे पर
खड़े हैं. सन 2025 में दोनों देशों
की जनसंख्या लगभग बराबर होगी. पर चीन में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य भारत के लोगों
से बेहतर है. वहाँ की साक्षरता का प्रतिशत भी भारत की तुलना में अच्छा है. उद्योग
और तकनीक में चीन की उपलब्धियाँ भारत की तुलना में कहीं शानदार हैं. सन 2012 भुवनेश्वर
में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि
हम विज्ञान और तकनीक में चीन से पिछड़ गए हैं. हमारे सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी
पैसा भी विज्ञान और तकनीक में नहीं लगता. हमारी तुलना में दक्षिण कोरिया कहीं आगे
है जो जीडीपी की 4 फीसदी से ज्यादा राशि अनुसंधान पर खर्च करता है. अमेरिका इस
क्षेत्र में सबसे ज्यादा खर्च करता है, पर ओईसीडी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार सन
2018 तक चीन उसे पीछे छोड़कर नम्बर एक देश बन जाएगा.
आज हमारे पास
सोलह आईआईटी और तीस एनआईटी हैं। इनके अलावा तकरीबन साढ़े पाँच हजार इंजीनियरी
कॉलेजों से पढ़कर पाँच लाख इंजीनियर हर साल बाहर निकल रहे हैं। बायो टेक्नॉलजी, मेडिकल कॉलेजों
और भारतीय प्रबंध संस्थानों के अलावा तमाम निजी कॉलेजों से नौजवानों की टोलियाँ
पढ़कर निकल रहीं हैं. फिर भी नेशनल नॉलेज कमीशन के अनुसार हमें अभी 1500 नए
विश्वविद्यालयों की जरूरत है. पर केवल विश्वविद्यालयों के खुलने से काम नहीं होता।
शिक्षा में गुणवत्ता सबसे जरूरी है. यह गुणवत्ता प्राइमरी शिक्षा से ही शुरू हो
जानी चाहिए. स्कूली शिक्षा हर शिक्षा की बुनियाद है. इस पर निवेश होना चाहिए. काबिल
अध्यापकों की व्यवस्था भी देखनी होगी. इस हफ्ते जारी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन
रिपोर्ट (असर) के अनुसार भारतीय स्कूलों में लिखने-पढ़ने और गणित के बुनियादी
सवालों को हल करने लायक शिक्षा देने में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ है. नए स्कूलों
को खोलने, उनकी इमारतों को खड़ा करने और अध्यापकों को भरती करने का काम हुआ भी हो,
पर शिक्षा में गुणात्मक सुधार नहीं हुआ है. सरकार सिर्फ औपचारिकताएं पूरी कर रही
है. गाँव के स्कूल स्थानीय राजनीति के केंद्र बने हैं, जो शिक्षा के अलावा सारे
काम करते हैं. ‘पढ़े भारत, बढ़े भारत’ केवल खोखला नारा लगता है.
भारत ने हाल के
वर्षों में कुछ काम सफलता के साथ किए हैं. इनमें हरित क्रांति, अंतरिक्ष कार्यक्रम, एटमी ऊर्जा कार्यक्रम, दुग्ध क्रांति, दूरसंचार और सॉफ्टवेयर
उद्योग शामिल हैं. पर विज्ञान का आस्था से जोड़ नहीं होता. विज्ञान और वैज्ञानिकता
पूरे समाज में होती है. सीवी रामन, रामानुजम या होमी भाभा जैसे कई नाम हमारे पास हैं. व्यक्तिगत
उपलब्धियों के मुकाबले असली कसौटी पूरा समाज होता है. भारत के लोग अमेरिका जाकर
जिम्मेदारी से काम करते हैं, अपने देश में नहीं करते. इसके कारण कहीं हमारे भीतर छिपे हैं. उन्हें खोजने की
जरूरत है. यह देखने की जरूरत भी है कि जापान और दक्षिणी कोरिया जैसे देशों के
नागरिकों ने किस तरह मेहनत करके अपने जीवन को बेहतर बनाया. यूरोप और अमेरिका के
समाज ने ऐसा क्या किया जो वे वैज्ञानिक प्रगति कर पाए. चीन ही नहीं जापान, ताइवान, कोरिया, हांगकांग, सिंगापुर और इसरायल हमसे आगे हैं. अपनी समस्याओं को समझना
और उनके समाधान खोजना वैज्ञानिकता है. वैज्ञानिकता को खोजिए.
प्रभात खबर में प्रकाशित
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