पुष्प एम. भार्गव
भारत ने पिछले 85 सालों से विज्ञान में एक भी नोबेल पुरस्कार पैदा नहीं किया. इसकी बड़ी वजह देश में वैज्ञानिक आबोहवा की गैरमौजूदगी है.
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में 'साइंटिफिक टेम्पर' यानी वैज्ञानिक सोच (या विज्ञान दृष्टि) जुमला ईजाद किया था. यह पुस्तक 1946 में प्रकाशित हुई. वह एसोसिएशन ऑफ़ साइंटिफिक वर्कर्स ऑफ़ इंडिया (एएसडब्ल्यूआई) नाम की संस्था के अध्यक्ष भी थे. यह संस्था बतौर ट्रेड यूनियन पंजीकृत थी और 1940 दशक और 1950 के शुरूआती वर्षों में मैं भी इससे जुड़ा रहा. यह अपनी तरह का इकलौता उदाहरण होगा जब एक लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री किसी ट्रेड यूनियन का अध्यक्ष बना हो. संस्था के उद्देश्यों में एक था- वैज्ञानिक दृष्टि का प्रचार-प्रसार. शुरू में यह काफी सक्रिय रही लेकिन 1960 दशक आते-आते पूरी तरह बिखर गयी, क्योंकि देश के ज्यादातर वैज्ञानिक, जिनमें कई ऊंचे पदों पर आसीन थे, स्वयं वैज्ञानिक दृष्टि की उस अवधारणा के प्रति प्रतिबद्ध नहीं थे, जो तार्किकता व विवेक का पक्षपोषण तथा तमाम तरह की रूढ़ियों, अंधविश्वासों व झूठ से मुक्ति का आह्वान करती है.
इससे निष्कर्ष निकलता है कि हमारे अपने वैज्ञानिक- जिन पर वैज्ञानिक चिंतन को आगे ले जाने का जिम्मा था, खुद वैज्ञानिक दृष्टि से जुदा थे. वे उतने ही अन्धविश्वासी थे जितना कोई भी गैर-वैज्ञानिक व्यक्ति हो सकता है. इस बात की पुष्टि 1964 की एक घटना से की जा सकती है. सतीश धवन (जो बाद में अंतरिक्ष विभाग के सचिव बने) के एक वक्तव्य पर अब्दुल रहमान (प्रख्यात विज्ञान इतिहासकार) और मैंने जनवरी 1964 में एक संस्था का गठन किया. द सोसाइटी ऑफ़ साइंटिफिक टेम्पर नाम से स्थापित इस संस्था के संस्थापक सदस्यों में नोबेल विजेता फ्रांसिस क्रिक जैसे नामचीन वैज्ञानिक भी शामिल थे. संस्था की सदस्यता के लिए निम्न वक्तव्य पर हस्ताक्षर करवाए जाते थे: "मैं मानता हूं कि ज्ञान एकमात्र मानव प्रयासों से ही प्राप्त किया जा सकता है, न कि किसी किस्म के दैवीय इलहाम से. और सभी तरह की समस्याओं का निराकरण हर हाल में मनुष्य के नैतिक व बौद्धिक संसाधनों से ही संभव है, न कि अलौकिक शक्तियों के आवाहन से."
हमें तब गहरा झटका लगा जब लगातार एक के बाद दूसरे वैज्ञानिक ने इस वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. साफ़ था कि वे वैज्ञानिक दृष्टि से कोसों दूर थे. इस भ्रम के टूट जाने के बाद मैंने 1976 में तत्कालीन शिक्षा मंत्री प्रो. नूरुल हसन को इस बात के लिए राजी करवाया कि 42वें संशोधन के जरिए संविधान की धारा 51अ में इन पक्तियों को जोड़ा जाय: "भारत के हर नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टि, मानवता और खोजवृत्ति व सुधार की भावना का विकास करे."
इस प्रयास से हमारे वैज्ञानिकों को जागना और वैज्ञानिक दृष्टि के प्रति अपने कर्त्तव्य का भान होना चाहिए था. लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस मामले में स्थिति 50-60 साल पहले के मुकाबले थोड़ी भी सुधर पाई है. आगे दिए गए तीन उदाहरणों से इस बात को समझा जा सकता है.
नाम मात्र का सुधार
पिछली भाजपा सरकार के दौरान, तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को एक परिपत्र जारीकर सभी विश्वविद्यालयों में ज्योतिष पर एक डिग्री कार्यक्रम शुरू करवाने का आदेश दिया. इसके लिए उन्होंने विशेष अनुदान की व्यवस्था करने का भी निर्देश दिया. मेरी सहयोगी चंदना चक्रबर्ती और मैंने मिलकर इस आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की. प्रशांत भूषण हमारे वकील थे. याचिका स्वीकार कर ली गयी लेकिन ज्योतिष में विश्वास की व्यापकता के चलते लगे हाथ खारिज भी हो गयी (जैसा कि अपेक्षित था), बावजूद इसके कि ज्योतिष पूरी तरह अवैज्ञानिक व अतार्किक है और इसकी काल्पनिकता को कई बार सिद्ध भी किया जा चुका है). यहां तक कि न्याय करने वाले भी इसके संक्रमण से मुक्त नहीं हैं. तब एक भी वैज्ञानिक हमारे समर्थन में आगे नहीं आया. न ही छः राष्ट्रीय विज्ञान अकादमियों में कोई, जिन पर हर वर्ष जनता की कमाई का अच्छा-ख़ासा हिस्सा खर्च होता है. इस लड़ाई को आर्थिक मदद करने वाले हमारे समर्थकों में सभी गैर-वैज्ञानिक बिरादरी से थे. आखिरकार, हमारी विज्ञान अकादमियों की इस विकलांगता और विज्ञान सम्बंधी सामाजिक समस्याओं पर उनकी घोर असंवेदनशीलता को देखते हुए 1993 में मैंने तीन अकादमियों की फैलोशिप से त्यागपत्र देन उचित समझा.
दूसरा उदाहरण हमारी छहों विज्ञान अकादमियों से जुड़े वैज्ञानिकों की उस घनघोर चुप्पी का है, जब पिछले वर्ष प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने मुंबई में वैज्ञानिकों के एक समूह को संबोधित करते हुए दावा किया था कि अंग प्रत्यारोपण प्राचीन भारत में भी किया जाता था. इसके लिए उन्होंने गणेश के मानवीय शरीर और हाथी के सर को उदाहरण के बतौर पेश किया. किसी ने भी इन दावों का खंडन करने की ज़रूरत महसूस नहीं की.
तीसरा उदाहरण इस माह की शुरुआत में संपन्न 102वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अंतर्गत "संस्कृत में प्राचीन विज्ञान" विषय पर आयोजित गोष्ठी का है. इस गोष्ठी में यह कहा गया कि भारत में 9000 वर्ष पहले (यानी हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो सभ्यताओं से कोई 4,500 साल पहले) भारी-भरकम (60 x 60 फीट; कुछ मामलों में तो 200 फीट लम्बे) विमान उड़ाए जाते थे. इतना ही नहीं, यह दावा भी किया गया कि हमारे पास मौजूदा राडारों से भी आगे के राडार थे. ये राडार इस सिद्धांत पर आधारित थे कि सभी जीवित व निर्जीव पदार्थ हर वक्त ऊर्जा उत्सर्जित करते हैं. और बताया गया कि 21वीं सदी में, "अंतरभेदन के कारण विज्ञान और आध्यात्म का संगम संभव होगा. मुझे संदेह है कि किसी भी गंभीर बुद्धिजीवी ने ऐसे नियम के बारे में पढ़ा-सुना होगा, जिसका न कोई सर है न पैर. गोष्ठी में किये गए ये और ऐसे कई ऊटपटांग दावे प्राचीन एवं मध्कालीन भारत की अनेक वास्तविक वैज्ञानिक उपलब्धियों का मज़ाक उड़ाते प्रतीत होते हैं.
निरर्थक है अकादमियां
विज्ञान जगत में अगुवाई करने वाले हमारे नामी-गिरामी वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक अकादमियों में से किसी ने भी इन दावों के खिलाफ आवाज नहीं उठाई. विज्ञान कांग्रेस को आयोजित करने वाले विशिष्ट वैज्ञानिक बेशक यह जानते थे कि उन्हें क्या कहना चाहिए लेकिन या तो वे खुद इन बातों पर विश्वास करते होंगे या राजनीतिक तौर पर इसके लिए तैयार किये गए होंगे. इसलिए यह भारतीय विज्ञान कांग्रेस की सालान जलसे को प्रतिबंधित कर देने का मजबूत मामला है (जैसा कि मैंने द हिन्दू के अपने पिछले आलेख "भारतीय विज्ञान कांग्रेस की बैठकों को क्यों बंद कर देना चाहिए" में कहा था- सितम्बर 30, 1997). या फिर इसका नामकरण भारतीय विज्ञान विरोधी कांग्रेस रख देना चाहिए.
जहां तक विज्ञान अकादमियों का सवाल है, भारतीय विज्ञान को कोई नुकसान पहुचाये बगैर इनका बिस्तर बांधा जा सकता है. भारत ने पिछले 85 सालों से विज्ञान के क्षेत्र में एक भी नोबेल पुरस्कार पैदा नहीं किया- इसकी बड़ी वजह देश में वैज्ञानिक आबोहवा की गैरमौजूदगी है, वैज्ञानिक दृष्टि जिसका एक अहम तत्व है.
(पुष्प एम. भार्गव सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलेक्युलर बायोलॉजी, हैदराबाद के संस्थापक निदेशक
और सदर्न रीजनल सेंटर ऑफ़ काउन्सिल फॉर सोशिअल डेवेलपमेंट के अध्यक्ष हैं).
अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय
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