देश की सवा अरब की आबादी में पाँच से दस करोड़ लोगों ने कल
रात नए साल का जश्न मनाकर स्वागत किया. इतने ही या इससे कुछ ज्यादा लोगों को पता
था कि नया साल आ गया है, पर वे इस जश्न में शामिल नहीं थे. इतने ही लोगों ने किसी
न किसी के मुँह से सुना कि नया साल आ गया है और उन्होंने यकीन कर लिया. इतने ही और
लोगों ने नए साल की खबर सुनी, पर उन्हें न तो यकीन हुआ और न अविश्वास. इस पूरी
संख्या से दुगनी तादाद ऐसे लोगों की थी, जिन्हें किसी के आने और जाने की खबर नहीं
थी. उनकी यह रात भी वैसे ही बीती जैसे हर रात बीतती थी.
देश का वास्तविक मध्यवर्ग कितना बड़ा है इसका सही अनुमान नहीं
है, पर सन 2011 में अमेरिकी थिंक टैंक ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन की एक रिपोर्ट का
अनुमान था कि भारत की 5 फीसदी के आसपास आबादी को मध्यवर्ग में शामिल किया जा सकता
है. तकरीबन 6-7 करोड़ लोग. पिछले तीनेक साल में आए बदलाव के कारण इस संख्या को
बढ़ाकर दसेक करोड़ मान सकते हैं. तकरीबन इतने ही लोग इसके करीब आने की दौड़ में
हैं. ब्रुकिंग्स का अनुमान है कि सन 2039 तक भारत के लगभग एक अरब लोग गरीबी से
मुक्त होकर इस तबके में शामिल हो चुके होंगे. दुनिया की सबसे बड़ी मध्यवर्गीय
आबादी भारत में होगी. अख़बार में इन पंक्तियों को जो भी पढ़ पा रहा है, वह या तो
इस वर्ग का हिस्सा है या इसमें शामिल होने की दिशा में है. हमने जो पाया या खोया
है उसमें उसका योगदान है. अगले पच्चीस साल में हम जिन एक अरब लोगों को गरीबी के
फंदे से मुक्त होकर इनकी टोली में शामिल होने का अनुमान लगा रहे हैं, वह इनके
सहयोग से ही सम्भव होगा.
पिछले दो-तीन साल में भारत के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक
क्षितिज पर जो बदलाव आए हैं वे इस साल और मुखर होकर सामने आएंगे. सन 2011 की जनवरी
में हमें मिस्र और ट्यूनीशिया के मध्यवर्ग में असंतोष की खबरें मिलीं थीं. उसी साल
गांधी के निर्वाण दिवस यानी 30 जनवरी को भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की नींव पड़ी थी.
उस रोज बगैर किसी बड़ी योजना के देश के 60 शहरों में अचानक भ्रष्टाचार विरोधी
रैलियों में भीड़ उमड़ पड़ी. उसी साल अमेरिका में ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट आंदोलन शुरू
हुआ. यूरोप के अनेक शहरों में ऐसे आंदोलन खड़े हो गए. आंदोलन एक सच की ओर इशारा कर
रहे हैं, वैश्विक अर्थव्यवस्था दूसरे सच को सामने ला रही है. चीन और अब भारत तेजी
के साथ आर्थिक विकास की राह पर हैं. वहाँ एक नए मध्यवर्ग का जन्म हो रहा है, जो
जागरूक नागरिक है. इसी मध्यवर्ग को साथ लेने के बाद गांधी का आंदोलन चला था. यही
मध्यवर्ग नक्सली आंदोलन का वैचारिक आधार था. यही मध्यवर्ग सत्तर के दशक के
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शामिल था.
आर्थिक विकास और सामाजिक वितरण को लेकर बहस भी है. क्या चीन
की तेज आर्थिक प्रगति ने ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी पैदा की है? क्या भारत में किसानों की आत्महत्या के
पीछे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियाँ हैं. साम्यवाद किनारे चला गया, पर पूँजीवाद की
विजय भी नहीं हुई है. चीन में कम्युनिस्ट पार्टी और राज-व्यवस्था वैश्वीकरण के
विस्तार का द्वार खोल रही है. क्यों, क्या मजबूरी है? ऐसा
नहीं कि चीनी समाज सोच-विचार नहीं करता. कुछ जवाब वह देगा और कुछ समय देगा. हमें
कम से कम एक दशक का इंतज़ार और करना होगा.
बदलावों की दिशा राजनीतिक है और संरचनात्मक भी. इसमें विसंगतियाँ
भारी हैं. भारत में बीमा विधेयक, जीएसटी और आयकर अधिनियम में दूरगामी बदलाव और
योजना आयोग की भूमिका को कम करने का काम मोदी सरकार की देन नहीं है, बल्कि यूपीए
सरकार ने उसका सूत्रपात किया है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पिछले साल अक्तूबर
में कहा कि इस वित्तीय वर्ष के अंत में भारत 2 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बन
जाएगा. हमारी अर्थव्यवस्था का आकार सन 2006 के मुकाबले दुगना हो गया है और 1991 के
मुकाबले सात गुना. बावजूद इसके हमारी औसत आय विश्व बैंक के अनुसार 2011-13 में 185
देशों में 124 वें नम्बर पर थी. अफ्रीका के कई देश हमसे बेहतर हैं.
जनसंख्या के मोर्चे पर भारत स्थिरता की और बढ़ रहा है. देश
के लगभग सभी इलाकों में औसत जन्मदर 2.1 के नीचे हो गई है. यानी अगले दो दशक में
हमारी जनसंख्या वृद्धि रुकेगी. तबतक हम जनसंख्या के लिहाज से दुनिया के सबसे बड़े
देश होंगे. चिंता का विषय है कुपोषण. हाल में भारत सरकार और युनिसेफ के एक
सर्वेक्षण से पता लगा कि कुपोषण के कारण ‘अंडरवेट’ बच्चों की संख्या में सन 2006 के बाद से 15
फीसदी की कमी आई है, पर अब भी 30 फीसदी के आसपास बच्चे कुपोषित हैं. शहरी मध्यवर्ग
की राजनीतिक भागीदारी बढ़ी है. पिछले दो साल के चुनावों में मत प्रतिशत बढ़ा है और
मतदाता साम्प्रदायिक, जातीय और संकीर्ण क्षेत्रीय मुद्दों की अनदेखी करते नज़र आते
हैं.
मोबाइल वीडियो पुलिस के अत्याचारों की कहानी सुनाते हैं. घूस
माँगने वालों की तस्वीरें दिखाई पड़ने लगी हैं. लड़कियाँ ताकतवर हो रही हैं, पर
बलात्कार भी बढ़ रहे हैं. सामाजिक विडंबनाएं उजागर हो रही हैं. एक नया शब्द उभरा
है टेक-लिटरेसी. साक्षरता अब सिर्फ संख्याओं और अक्षरों के ज्ञान तक सीमित नहीं
है. आपको सुविधाएं चाहिए तो तकनीक की मदद लेनी होगी. कम्प्यूटर और मोबाइल ने आपको
सारी दुनिया से जोड़ा है. आपके मोबाइल फोन में है नया डिजिटल इंडिया. इसके सहारे
साम्प्रदायिकता और संकीर्णता भी बढ़ी है. यह दुधारी तलवार है. दोष इस फोन का नहीं
किसी और का है.
हज़ारों साल से हाथ का लिखा एक महत्वपूर्ण स्मृति चिह्न था.
सेल्फ पोर्ट्रेट शब्द उन्नीसवीं सदी से प्रचलन में है, पर सेल्फी शब्द में नयापन
है. फेसबुक और ट्विटर ने इसे नया आयाम दिया है. सन 2012 के अंत में साल के ‘टॉप 10 बज़वर्ड्स’
में टाइम मैगजीन ने सेल्फी को भी रखा था. इसके अगले साल नवम्बर 2013 में ऑक्सफर्ड
इंग्लिश डिक्शनरी ने इसे ‘वर्ड ऑफ द इयर’ घोषित कर दिया. पर 28 मई 2014 में जब शेन वॉर्न ने ‘ऑटोग्राफ’ की मौत की घोषणा की तब लगा कि समय बदल गया
है. शेन वॉर्न ने ट्वीट किया, अब फैन मेरे साथ सेल्फी खिंचाते हैं. गाँव-गाँव में
सेल्फी खींचे जा रहे हैं. समय किसी एक तारीख को नहीं बदलता. तारीख तो बहाना है. देखते
रहिए...
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