धारणा है कि हमारे स्कूलों का स्तर बहुत ऊँचा
है। सीबीएसई और आईसीएसई परीक्षाओं में 100 फीसद नम्बर लाने वालों की संख्या बढ़ती
जा रही है। यह भ्रम सन 2012 के पीसा टेस्ट में टूट गया। विकसित देशों की संस्था
ओईसीडी हर साल प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीसा) के नाम से एक
परीक्षण करती है। दो घंटे की इस परीक्षा में दुनियाभर के देशों के तकरीबन पाँच लाख
बच्चे शामिल होते हैं। सन 2012 में भारत और चीन के शंघाई प्रांत के बच्चे इस
परीक्षा में पहली बार शामिल हुए। चीनी बच्चे पढ़ाई, गणित और साइंस तीनों परीक्षणों में नम्बर एक पर रहे और भारत
के बच्चे 72 वें स्थान पर रहे, जबकि कुल 73 देश
ही उसमें शामिल हुए थे।
सन 2005 में शिक्षा-केन्द्रित भारतीय एनजीओ
‘प्रथम’ ने पता लगाने की कोशिश की कि बच्चे वास्तव में सीख क्या रहे हैं। ‘प्रथम’
की स्थापना सन 1994 में अमेरिका में पढ़े केमिकल इंजीनियर माधव चह्वाण ने इस दृढ़
विश्वास के साथ की थी कि सभी बच्चों को पढ़ना और सीखना चाहिए और वे सीख सकते हैं।
संस्था के कार्यक्रम भारत के तकरीबन 3.45 करोड़ बच्चों तक पहुँचते हैं और अब
दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी जा रहे हैं। उसकी एनुअल स्टेट ऑव एजुकेशन
(एएसईआर-असर) रिपोर्ट को तैयार करने के लिए भारत के तकरीबन सभी 600 जिलों में
वॉलंटियरों की टीमें खड़ी हैं।
सन 2005 में मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने पहली
रिपोर्ट जारी की थी। उन्हें इस रिपोर्ट से खुशी नहीं हुई होगी। सात से चौदह साल की
उम्र के तकरीबन 35 फीसदी बच्चे एक सरल पैराग्राफ(दर्जा एक के स्तर का) पढ़ नहीं
पाए। करीब 60 फीसदी बच्चे एक आसान कहानी(कक्षा दो के स्तर की) पढ़ने में असमर्थ
रहे। सिर्फ 30 फीसदी बच्चे दूसरे दर्जे का गणित कर पाए(बेसिक भाग)। छोटे दुकानदारों
के लड़के-लड़कियाँ अपने माता-पिता की मदद के लिए इससे ज्यादा जटिल गणनाएं बगैर
कागज-कलम के करते हैं। क्या स्कूल वास्तव में उनके सीखे हुए को अनसीखा बना रहे हैं?
यह रिपोर्ट सभी राज्यों के बारे में थी।
तमिलनाडु सरकार ने तो उसे मानने से इनकार कर दिया। उसने अपनी टीमों के माध्यम से
फिर से टेस्ट कराने के आदेश दिए। दुर्भाग्य से उसके परिणाम भी ऐसे ही थे।
‘प्रथम’ की दसवीं सालाना रिपोर्ट ‘असर’ इसी
हफ्ते जारी हुई है। औसतन हरेक साल देश के 560 जिलों के 16000 गाँवों के 6 लाख 50
हजार बच्चों की यह पड़ताल करती है। गरीबी, रोजगार और सामाजिक-आर्थिक संकेतकों को बताने वाले नेशनल सैम्पल सर्वे के
सैम्पल के मुकाबले यह दुगना बड़ा सैम्पल है। एनडीए सरकार ने संविधान संशोधन पास कर
शिक्षा को व्यक्ति का मौलिक अधिकार बनाया। सन 2004 में सरकार बदल गई। यूपीए सरकार
ने प्राथमिक शिक्षा के लिए धन इकट्ठा करने के वास्ते 2 फीसदी उप-कर लगाने की घोषणा
की। इस तरह लैप्स न होने वाला प्रारम्भिक शिक्षा कोष तैयार हो गया। इस कोष से आधार
ढाँचा तो खड़ा हो रहा है, गुणवत्ता नहीं।
सन 2005 में पहले असर सर्वे से पता लगा कि देश
में 6 से 14 साल के 93.4 फीसदी बच्चों के नाम स्कूलों में लिखे हैं, पर दर्जा 4 में पढ़ने वाले 47 फीसदी बच्चे ही
दर्जा 2 का पाठ पढ़ पाते हैं। दसवें और नवीनतम सर्वे के अनुसार शिक्षा का अधिकार
कानून (आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी
बढ़ोतरी हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई
की गुणवत्ता गिरी है। सर्वे के अनुसार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट
रहा है। इस साल देशभर में 64.4 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूलों में और 30.8 फीसदी
बच्चे निजी स्कूलों में जा रहे हैं। पिछले साल निजी स्कूल जाने वाले बच्चों का
प्रतिशत 29 फीसदी था। पर पाँच राज्य ऐसे हैं जहाँ 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे निजी
स्कूलों में जाते हैं। ये राज्य हैं मणिपुर, केरल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मेघालय। आरटीई का सकारात्मक
असर है कि 6-14 वर्ष उम्र वर्ग के बच्चों के स्कूल में दाखिले में भारी इजाफा हुआ
है। पर बच्चे स्कूलों में साधारण कौशल भी नहीं सीख पा रहे हैं।
कुछ राज्यों में बच्चों के धारा-प्रवाह पढ़
सकने की क्षमता सुधरी है। तमिलनाडु और यहां तक कि बिहार में भी उल्लेखनीय प्रगति
हुई। तमिलनाडु में 2012 में पांचवीं कक्षा के 31.9 प्रतिशत बच्चे ही दूसरी कक्षा
की पठन सामग्री को धारा-प्रवाह पढ़ पाते थे। 2013 में यह दर 46.9 फीसदी हो गई। ये
कामयाबी अलग-अलग उम्र वर्गों के बच्चों को उनकी सीखने की क्षमता के हिसाब से अलग
कक्षाओं में बैठाने के अभिनव प्रयोग से हासिल की गई। विशेषज्ञों ने ध्यान दिलाया
है कि सीखने की गुणवत्ता में कमी का मुख्य कारण शिक्षकों की योग्यता और उनके
पढ़ाने का तरीका है।
सामान्य व्यक्ति को भरोसा होना चाहिए कि शिक्षा
से उसका जीवन बदलेगा। हरित क्रांति के दौरान, सफल किसान बनने के लिए तकनीकी जानकारी और शिक्षा की कीमत
बढ़ी थी। हाल में लड़कियों की रोजगार सम्भावनाओं में नाटकीय बदलाव आने से भी
शिक्षा ने सामाजिक क्रांति को जन्म दिया। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के रॉबर्ट
जेनसेन ने उत्तर भारत के तीन राज्यों के कुछ गाँवों में, जहाँ आमतौर पर भर्ती करने वाले नहीं जाते, सन 2002 में लड़कियों के रिक्रूटिंग सेशन किए।
इन गाँवों से बीपीओ जाने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ी। यह इलाका स्त्रियों के
प्रति भेदभाव के लिए कुख्यात है। नौकरी की भर्ती शुरू होने के तीन साल बाद उनके
गाँवों में पाँच से ग्यारह साल के बीच की लड़कियों के स्कूल जाने की सम्भावनाओं
में पाँच फीसदी अंकों का इज़ाफा हो गया। उनके वज़न में भी वृद्धि हुई। माता-पिता
उनकी देख-रेख बेहतर करने लगे। उन्हें समझ में आया कि लड़कियों को पढ़ाने का एक
आर्थिक मूल्य है।
प्राइवेट स्कूलों को लोग क्यों महत्व देते हैं?
वे भी घटिया हैं, पर जब हम सरकारी स्कूल में होने वाले हस्तक्षेपों को देखते
हैं तब अंतर का पता लगता है। एक-दो कमरों के इन स्कूलों के भवन सरकारी स्कूलों से
खराब हैं, पर वहाँ शिक्षकों की
उपस्थिति बेहतर है। वे कम वेतन पाते हैं पर उनका मुख्य काम पढ़ाना है। ऐसा नहीं कि
सरकारी शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते। अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब
‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में लिखा है कि देश के सबसे गरीब प्रदेशों में से एक उत्तर
प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र के जौनपुर जिले में ‘प्रथम’ के कार्यकर्ताओं ने
गाँव-गाँव जाकर बच्चों का परीक्षण किया और समुदायों को प्रेरित किया कि वे खुद
देखें कि उनके बच्चे कितना जानते हैं और कितना नहीं जानते हैं।
अंततः उनके बीच से ही अपने भाइयों-बहनों की मदद
के लिए स्वयं सेवक निकले। वे कॉलेज-छात्र थे, जो शाम को क्लास लगाते थे। इस कार्यक्रम के पूरा होने पर
सभी प्रतिभागी बच्चे, जो इसके पहले पढ़
नहीं पाते थे, कम से कम अक्षरों
को पहचानने लगे। इसी तरह भारत के सबसे गरीब और अध्यापकों की सबसे ज्यादा
गैर-हाजिरी की दर वाले प्रदेश बिहार में ‘प्रथम’ ने सुधारात्मक समर कैम्पों की
श्रृंखला आयोजित की। इनमें सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों को पढ़ाने के लिए
आमंत्रित किया गया। इस मूल्यांकन के परिणाम आश्चर्यजनक थे। बदनाम सरकारी अध्यापकों
ने वास्तव में अच्छा पढ़ाया और इसके परिणाम जौनपुर की ईवनिंग क्लासेज़ जैसे ही थे।
जाहिर है हमें ऐसे ही आंदोलनों की जरूरत है।
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