Thursday, August 18, 2022

The Hindu के हिंदी-प्रेम के पीछे क्या है?

चेन्नई से प्रकाशित अखबार द हिंदू के संपादक सुरेश नंबथ ने गत 15 अगस्त को ट्वीट किया, ‘@the_hindu in Hindi; from today, our editorials will be available in Hindi.’ पहली नज़र में लगा कि शायद यह अखबार हिंदी में भी निकलने वाला है। गौर से देखने पर पता लगता है कि फिलहाल तो ऐसा नहीं है। हो सकता है कि ऐसा करने के बारे में विचार किया जा रहा हो। हुआ यह है कि अखबार की वैबसाइट पर संपादकीय के साथ हिंदी का एक पेज और जोड़ दिया गया है। अंग्रेजी अखबार के संपादकीयों का हिंदी अनुवाद भी अब उपलब्ध हैं।

हिंदू की वैबसाइट पर मैंने इस हिंदी पेज को खोजने की कोशिश की, तो नहीं मिला, पर सुरेश नंबथ ने जो लिंक दिया है, उसके सहारे आप अब तक प्रकाशित सभी संपादकीयों को पढ़ सकते हैं। सुरेश नंब के ट्वीट पर हिंदी के कुछ पाठकों और पत्रकारों ने काफी दिलचस्पी दिखाई और इसका स्वागत किया। यह स्वागत इस अंदाज़ में था कि शायद यह अखबार हिंदी में आने वाला है।

हिंदू से उम्मीदें

ऐसा कभी हो, तो बड़ी अच्छी बात होगी, क्योंकि इसमें दो राय नहीं कि गुणवत्ता के लिहाज से हिंदू अच्छा अखबार है। हिंदी अखबारों की गुणवत्ता का, खासतौर से देश-दुनिया से जुड़ी संजीदा जानकारी का जिस तरह से ह्रास हुआ है, उसके कारण लोगों को हिंदू से उम्मीदें हैं। काफी लोग उसके वामपंथी झुकाव और राजनीतिक-दृष्टिकोण के मुरीद हैं। पर इन बातों के साथ कई तरह के किंतु-परंतु जुड़े हैं।

हिंदी में बंगाल के आनंद बाजार पत्रिका और केरल के मलयाला मनोरमा ग्रुप ने भी प्रवेश करने की कोशिश की है। आनंद बाजार पत्रिका को प्रिंट में तो सफलता नहीं मिली, पर उनका टीवी चैनल जरूर एक हद तक सफल हुआ है। हिंदी में हिंदू के प्रकाशन की संभावना का जिक्र होते ही काफी लोगों का ध्यान गया है। एक जमाने में खबरें आती थीं कि स्टेट्समैन समूह हिंदी में नागरिक नाम से अखबार निकालना चाहता है। ऐसा हुआ नहीं। पर हिंदी वाले अच्छे और संजीदा मीडिया का इंतजार करते रहते हैं।

हिंदी-शहरों में हिंदू

हिंदू तमिल-जीवन और समाज के भीतर से निकला अखबार है, जिसमें हिंदी के प्रति अनुग्रह बहुत कम है, बल्कि हिंदी-विरोधी स्वर उस क्षेत्र में सबसे तीखे हैं। उसका तमिल-संस्करण भी है। वह दक्षिण की दूसरी भाषाओं को छोड़कर हिंदी-संस्करण क्यों निकालना चाहेगा?  वह केरल और तमिलनाडु में सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है। विकीपीडिया के अनुसार, इस समय यह भारत के 11 राज्यों के 21 स्थानों से प्रकाशित होता है। इनमें दक्षिण भारत के छोटे-बड़े शहरों के अलावा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता वगैरह भी समझ में आते हैं, पर मोहाली, लखनऊ, इलाहाबाद और पटना के नाम पढ़कर हैरत होती है और इसका मतलब भी समझ में आता है।

हिंदू के ई-पेपर की साइट पर 10 संस्करण नजर आएंगे। यानी कि उत्तर के शहरों में दिल्ली संस्करण ही किसी रूप में मुद्रित होता है। हिंदू के पेज देखें, तो आपको प्रशासनिक सेवाओं की कोचिंग और हिंदी माध्यम की सहायक पुस्तकों के विज्ञापन भी इसमें मिलेंगे। शायद यही इसके हिंदी-संस्करण की संभावनाओं का रहस्य है। मैंने जब हिंदू से जुड़ी पोस्ट फेसबुक पर लगाई, तो कई तरह की प्रतिक्रियाएं आईं। इनमें सबसे खरी प्रतिक्रिया वरिष्ठ लेखिका और पत्रकार क्षमा शर्मा की थी। उन्होंने लिखा,हिंदी को हमेशा ठोकते रहते हैं। अब ग्राहक दीख रहा है। ग्राहक तो दीख ही रहा है, जो आम-पाठक नहीं प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी करने वाला नौजवान है। हिंदी इलाके में सरकारी नौकरी, खासतौर से अफसरी सबसे बड़ी नेमत है।

पत्रकारीय-मूल्यबद्धता

अखबार के संपादकीय दृष्टिकोण और उसके अनुरूप रिपोर्टिंग से असहमति को छोड़ दें तो द हिंदू की बहुत सी बातों ने ध्यान खींचा है। पर हाल के वर्षों में यह अखबार व्यावसायिक दौड़ में शामिल हो चुका है। वह बहुत से ऐसे काम कर रहा है, जो उसने दूसरे अखबारों की देखादेखी या व्यावसायिक दबाव में किए हैं। पर ऐसा मैंने हिंदू में ही देखा कि उसके संपादक ने अपने अखबार की व्यावसायिक नीतियों और सम्पादकीय नीतियों के बरक्स अपनी विरोधी-राय पाठकों के सामने रखी।

ऐसा अप्रेल 2012 में हुआ, जब उसके तत्कालीन संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने अक्षय तृतीया से जुड़े जैकेट को लेकर आपत्तिनुमा राय अपने अखबार में प्रकाशित की। यह मसला जैकेट का नहीं, अखबार के विचार का था। सोमवार 23 अप्रैल,2012  को हिंदू के चेन्नई संस्करण में अक्षय तृतीया पर एक इन हाउस विज्ञापन जैकेट के रूप में छापा। जिसपर संपादक ने अगले रोज अपनी प्रतिक्रिया छापी। बहरहाल उसके बाद हिंदू की रीति-नीति में काफी बदलाव आ चुका है। सिद्धार्थ वरदराजन अब उसके संपादक नहीं हैं और विज्ञापनों के जैकेट अब हिंदू में भी काफी प्रकाशित हो रहे हैं।

हिंदी-प्रेम

द हिंदू के प्रकाशकों के हिंदी-प्रेम को समझने की कोशिश करनी चाहिए। मनोरंजन, राजनीति और खेल के अलावा करिअर भी हिंदी के नए पाठकों की दिलचस्पी का विषय है। इन सभी से जुड़े व्यावसायिक लोग हिंदी में प्रवेश कर रहे हैं। हिंदी के क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी व्यावसायिक-प्रचारकों की मदद ले रहे हैं और प्रचार के नए तरीकों और खासतौर से सोशल मीडिया के इस्तेमाल के बारे में विचार कर रहे हैं। इन सबके बीच हिंदी में वामपंथी-रुझान वाले साहित्य का पाठक-वर्ग भी है। हिंदू के हिंदी-प्रकाशन में दिलचस्पी उन लोगों में भी है, जिनका वामपंथी रुझान है।

हिंदी इलाके में वामपंथियों की अलोकप्रियता और भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता को देखते हुए यह तबका सूचना के वैकल्पिक-स्रोतों में हिंदू को भी शामिल करता है। एक जमाने में गौतम नवलखा ने हिंदी में साँचा नाम सेइकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकलीके लेखों के हिंदी-अनुवाद की पत्रिका निकाली थी। चली नहीं। इन दिनों ईपीडब्लू की साइट पर भी कुछ लेखों के हिंदी अनुवाद डाले जा रहे हैं। मंथली रिव्यू जैसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका  भी हिंदी में निकालने के प्रयास किए जा चुके हैं।

कारोबारी नज़रिया

फिलहाल हिंदू का यह प्रयास उसके कारोबारी-दृष्टिकोण को बताता है। अभी बहुत छोटे स्तर पर और काफी अधकचरे तरीके से शुरुआत हुई है। हिंदू के नीति-नियंता अंग्रेजी और तमिल-समझ के साथ हिंदी-क्षेत्र की कितनी समझ रखते हैं, यह देखना होगा। शायद इस काम के लिए उचित-आधार तैयार किया नहीं गया है। अनुवाद की भाषा इस बात का इशारा कर रही हैं। हिंदी-क्षेत्र की अपनी भाषा-संस्कृति, रूपक और मुहावरे हैं। उन्हें चेन्नई से समझना और दिल्ली से कार्य-रूप में परिणत करना आसान भी नहीं है। बहरहाल जो भी है, उसे ठीक से समझने के लिए कुछ समय इंतजार करना होगा।

आपका अखबार में प्रकाशित

इस आलेख के प्रकाशित होने के बाद  दो बातें हुई हैं। एक तो 16 के बाद  18 को छपे हिंदी अनुवाद बेहतर हैं, फिर भी तकनीकी शब्दावली के इस्तेमाल से भाषा दुरूह हो रही है। हमें कुछ समय अनुवादों पर ध्यान देना होगा। दूसरे सोशल मीडिया पर मुझे काफी रोचक बातें पढ़ने को मिलीं। मसलन एक संपादकीय का शीर्षक है 'अड़ंगे की बाधा।' इसका क्या मतलब हुआ? इस आलेख का अंग्रेजी शीर्षक है 'No holds barred: On the Chinese hurdle to designate terrorists.' ऐसे अटपटे शीर्षक पर तो ध्यान जाना ही चाहिए। 

 

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