जब हम स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे कर रहे हैं, तब हमारे मन में कुछ बातें आती हैं। क्या यह स्वतंत्रता सार्थक रही है? कैसा है हमारा भविष्य? 15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था। अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी। सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी। यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी। क्या इतिहास के इस पहिए को हम उल्टा घुमा सकते हैं?
15 अगस्त, 1947 को जवाहर लाल नेहरू ने कहा, ‘इतिहास
के प्रारंभ से ही भारत ने अपनी अनंत खोज आरंभ की थी। अनगिनत सदियां उसके उद्यम,
अपार सफलताओं और असफलताओं से भरी हैं। अपने सौभाग्य और दुर्भाग्य के
दिनों में उसने इस खोज को आँखों से ओझल नहीं होने दिया और न ही उन आदर्शों को ही
भुलाया, जिनसे उसे शक्ति प्राप्त हुई। हम आज दुर्भाग्य
की एक अवधि पूरी करते हैं। आज भारत ने अपने आप को फिर पहचाना है आज हम जिस उपलब्धि
का जश्न मना रहे हैं, वह हमारी राह देख रही महान विजयों और
उपलब्धियों की दिशा में महज एक कदम है।’
इस भाषण के दो साल बाद 25 नवंबर, 1949 को
संविधान सभा में भीमराव आंबेडकर ने कहा, ‘राजनीतिक
लोकतंत्र तबतक विफल है, जबतक उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र नहीं हो।’ हमारी राजनीति में अनेक दोष हैं, पर उसकी कुछ
विशेषताएं दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती हैं। यह फर्क उसके
राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। बीसवीं सदी के शुरू में इस आंदोलन ने राष्ट्रीय
आंदोलन की शक्ल ली और तबसे लगातार इसकी शक्ल राष्ट्रीय रही। इस आंदोलन के साथ-साथ
हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के
आंदोलन भी चले। इनमें कुछ अलगाववादी भी थे, पर एक वृहत भारत की संकल्पना कमजोर
नहीं हुई। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ। छोटे
देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर
जनता एक समूचे भारत के पक्ष में थी। यह एक नई राजनीति थी, जिसकी
धुरी था लोकतंत्र।
फिराक गोरखपुरी की पंक्ति है, ‘सरज़मीने हिन्द पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/ काफ़िले बसते गए हिन्दोस्तां
बनता गया।’ भारत को उसकी विविधता और विशालता में ही परिभाषित किया जा सकता है। भारत
हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है, पर लोकतंत्र नई अवधारणा है। यह निर्गुण
लोकतंत्र नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं। स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों
को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय
एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन।
देश की संवैधानिक व्यवस्था पर विचार करते समय इस बारे में कभी दो राय नहीं थी कि यह काम सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा और इसमें क्षेत्र, जाति, धर्म और लिंग का भेदभाव नहीं होगा। नए भारत का पुनर्निर्माण होना है। देश ने सन 1948 में पहली औद्योगिक-नीति के तहत मिश्रित-अर्थव्यवस्था को अपनाने का फैसला किया। उसके पहले जेआरडी टाटा, घनश्याम दास बिड़ला सहित देश के आठ उद्योगपतियों में ‘बॉम्बे-प्लान’ के रूप में एक रूपरेखा पेश की थी। इसमें सार्वजनिक उद्योगों की महत्ता को स्वीकार किया गया था, पर स्वदेशी उद्योगों को संरक्षण देने का सुझाव भी दिया गया था।
उस दौर में वैश्विक-पूँजी के प्रवाह की रूपरेखा
भी तैयार हो रही थी। विश्व बैंक का गठन हो रहा था और सन 1944 में ब्रेटन वुड्स में
वर्ल्ड मोनीटरी कांफ्रेंस में भारत के प्रतिनिधि के रूप में आरके शण्मुगम चेट्टी
शामिल हुए थे, जो बाद में देश के वित्तमंत्री बने।
1950 में योजना आयोग की स्थापना हुई। सन 51 से पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुईं। यह
सोवियत मॉडल था। पहली पंचवर्षीय योजना में खेती और सिंचाई पर जोर था। पहली योजना में
जीडीपी की वार्षिक संवृद्धि का लक्ष्य 2.1 फीसदी था, और
परिणाम इससे बेहतर आया 3.6 फीसदी।
उसी दौर में बुनियादी बहस भी शुरू हुई। समाजवादी
रास्ते पर जाएं या खुली-व्यवस्था अपनाएं? दूसरी पंचवर्षीय
योजना में सार्वजनिक उद्योगों के सहारे विकास का लक्ष्य रखा गया, जिसके लिए
राजकोषीय घाटे की सलाह दी गई। इस सलाह का फ्रेडरिक हायेक और बीआर शिनॉय जैसे
अर्थशास्त्रियों ने विरोध किया। शिनॉय का कहना था कि सरकारी नियंत्रणों से इस युवा
लोकतंत्र को ठेस लगेगी।
जवाहरलाल नेहरू के सलाहकार थे प्रशांत चंद्र
महालनबीस। उन्होंने ही सन 1955 में इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की स्थापना की
थी। दूसरी पंचवर्षीय योजना और 1956 की औद्योगिक नीति ने देश में सार्वजनिक
उद्योगों और लाइसेंस राज की शुरुआत की। उद्योगों को तीन वर्गों में बाँटा गया। बुनियादी
और रणनीतिक महत्व के उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गए, दूसरे
ऐसे उद्योग जिन्हें क्रमशः राज्य के अधीन आना था और तीसरे उपभोक्ता उद्योगों को
लाइसेंसों के दायरे में निजी क्षेत्र के लिए छोड़ा गया। सरकारी पूँजी से उद्योग
लगे, पर व्यवस्था में पेच पैदा हो गए।
पहली लोकसभा 17 अप्रेल 1952 में बनी थी,
पर उसके पहले संविधान सभा ही अस्थायी संसद के रूप में काम कर रही थी।
उसी सभा में राजनीतिक कदाचार का पहला मामला सामने आया था। सदन के सदस्य एचजी मुदगल
की सदस्यता समाप्त की गई। नौकरशाही, राजनेताओं,
पूँजीपतियों और अपराधियों के गठजोड़ की कहानियाँ आजादी के पहले भी
थीं, पर पहला बड़ा घोटाला 1958 में ‘मूँधड़ा-कांड’ के रूप में सामने आया। इसमें
नेहरू जी के दामाद फीरोज गांधी का नाम उछला और तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी
कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा। यह सिलसिला जारी है।
नेहरू जी ने बिजली और इस्पात को दूसरी योजना का
बुनियादी आधार बनाया। भाखड़ा नांगल बाँध को उदीयमान भारत के नए मंदिर का नाम दिया।
राउरकेला में स्टील प्लांट लगाने के लिए जर्मनी की, भिलाई
और दुर्गापुर में रूस और ब्रिटेन की सहायता ली गई। आईआईटी और नाभिकीय ऊर्जा आयोग
नए राष्ट्र-मंदिर बनाए गए। नेहरू तेज औद्योगिक विकास चाहते थे, ताकि पूँजी खेती से
हटकर उद्योगों में आए। दूसरी योजना में खेती पर व्यय में भारी कमी की गई। इसका असर
दिखाई पड़ा। अन्न-उत्पादन कम हो गया, महंगाई बढ़ गई।
अनाज का आयात करना पड़ा, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार पर असर
पड़ा। यह योजना अपने लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर सकी।
देश को आधुनिकता के रास्ते पर ले जाने में
नेहरू की भूमिका से कोई इनकार नहीं, पर 1991 में कांग्रेस पार्टी को भी उस रास्ते
से हटना पड़ा। बावजूद उसके उदारीकरण के 31 साल बाद भी हम मिश्रित अर्थ-व्यवस्था से
बाहर नहीं आ पाए हैं। भारत और चीन की यात्राएं समांतर चलीं, पर
बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया। बावजूद इसके कि
आर्थिक-संवृद्धि में हमारी गति बेहतर थी।
नेहरू ने मध्यवर्ग को तैयार करने पर जोर दिया,
चीन ने बुनियादी विकास पर। सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य में चीन ने
हमें पीछे छोड़ दिया। सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड
एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा,
समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत भारत आज अदा कर
रहा है। नेहरू ने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा
संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति उनका
दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा।
सच यह भी है कि चीन 'रेजीमेंटेड'
देश है, वहाँ आदेश मानना पड़ता है। भारत खुला देश है, यहाँ ऐसा
मुश्किल है। भारत अपने अंतर्विरोधों के साथ आगे बढ़ रहा है। निराश होना चाहें, तो जरूर
कुछ कारण होंगे, पर आशावान होना चाहें, तब भी हजारों उदाहरण आपको मिलेंगे। सन 2009
में ब्रिटेन के रियलिटी शो ‘ब्रिटेन गॉट टेलेंट’ में स्कॉटलैंड की 47 वर्षीय सूज़न
बॉयल ने ऑडीशन दिया। वह 47 साल की थी ग्लैमरस नहीं थी। वह व्यावसायिक गायिका नहीं
थी। पूरा जीवन उसने अपनी माँ की सेवा में लगा दिया। शुरू में उसे दर्शकों का
समर्थन नहीं मिला। ग्लैमरस प्रस्तोता दर्शकों पर हावी थे, पर उसे मीडिया का सपोर्ट
मिला।
बेहद सादे, सरल,
सहज और बच्चों जैसे चेहरे वाली इस गायिका ने जब फाइनल में ‘आय
ड्रैम्ड अ ड्रीम’ गाया तो सिर्फ सेट पर ही नहीं, इस
कार्यक्रम को देख रहे एक करोड़ से ज्यादा दर्शकों में खामोशी छा गई। तमाम लोगों की
आँखों में आँसू थे। जैसे ही उसका गाना खत्म हुआ तालियों का समाँ बँध गया।’ आय ड्रैम्ड अ ड्रीम’ हारते लोगों का सपना है। यह करोड़ों लोगों का
दुःस्वप्न है, जो हृदयविदारक होते हुए भी हमें भाता
है। एक सामान्य व्यक्ति को यह बताना कि तुम नाकाबिल नहीं हो।
कुछ साल पहले अमिताभ बच्चन ने ‘कौन
बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम के एक एपिसोड को शुरू करते
हुए कहा, ‘मैंने इस कार्यक्रम में एक नया हिन्दुस्तान महसूस किया।
हँसता-मुस्कराता हिन्दुस्तान। यह हिन्दुस्तान अपना पक्का घर बनाना चाहता है,
लेकिन उसके कच्चे घर ने उसके इरादों को कच्चा नहीं होने दिया…यह हिन्दुस्तान कपड़े सीता है, ट्यूशन
करता है, दुकान पर सब्जियाँ तोलता है…इसके बावजूद वह अपनी कीमत जानता है। उसका
मनोबल ऊँचा और लगन बुलंद है। हम सब इस नए हिन्दुस्तान को सलाम करते हैं।’
इसे एस्पिरेशनल इंडिया कहेंगे। अपने हालात को
सुधारने को व्याकुल भारत। यह व्याकुलता जैसे-जैसे बढ़ेगी वैसे-वैसे हमें दोष भी
दिखाई पड़ेंगे। इनका निराकरण व्याकुलता के बढ़ते जाने में है। दो राय नहीं कि देश
नेतृत्व और प्रशासनिक नीतियों से बनता है। पर देश उसके लोगों से भी बनता है। कई
बार हम निराश होकर कहते हैं कि कुछ नहीं हो पाएगा। पर कहानी अभी जारी है। छोटे-छोटे
गाँवों और कस्बों के छोटे-छोटे लोगों की उम्मीदों, सपनों
और दुश्वारियों की किताबें खुल रहीं हैं। ड्राइंग रूमों से लेकर सड़क किनारे पड़ी
मचिया पर बैठे करोड़ों लोग इसमें शामिल हैं।
कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकाशित
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