बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की जोड़ी ने शपथ लेकर एक नई राजनीतिक शुरुआत की है। इससे बिहार में ही नहीं देशभर में विरोधी दलों का आत्मविश्वास लौट आया है। पहली बार भारतीय जनता पार्टी अर्दब में दिखाई पड़ रही है। सवाल है कि राज्य की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ेगी? क्या तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी की समझदारी बढ़ी है? नए सत्ता समीकरणों में कांग्रेस की भूमिका क्या है? शेष छोटे दलों का व्यवहार कैसा रहेगा वगैरह? ये सवाल बिहार तक ही सीमित नहीं हैं। इस बदलाव को विरोधी दलों की राष्ट्रीय-राजनीति का प्रस्थान-बिंदु बनना चाहिए।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक
अरसे से प्रयास कर रही हैं कि बीजेपी के आक्रामक रवैए को रोकने के लिए राष्ट्रीय
स्तर पर विरोधी दलों को एकजुट होना चाहिए। ममता बनर्जी ने बिहार में हुए परिवर्तन
पर खुशी जाहिर की है। तृणमूल कांग्रेस ने नीतीश कुमार के कदम का स्वागत किया है और
कहा है कि भाजपा सत्ता हथियाने के साथ सहयोगी दलों के अस्तित्व में विश्वास नहीं
करती है।
तेजस्वी यादव ने भी इसी बात को दोहराया है। उन्होंने कहा कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों में बीजेपी का अब कोई भी अलायंस पार्टनर नहीं बचा। बीजेपी क्षेत्रीय पार्टियों का इस्तेमाल करती है, फिर उन्हीं पार्टियों को ख़त्म करने के मिशन में जुट जाती है। बिहार में यही करने की कोशिश हो रही थी। बीजेपी के राष्ट्रीय अभियान का प्रतिरोध नहीं हुआ, तो वह समूची राजनीति पर बुलडोजर चला देगी।
हाल में खबरें थीं कि झारखंड और बिहार में भी
वह ‘ऑपरेशन कमल’ चलाने वाली है। इस बात की पुष्टि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के
तीन विधायकों की गिरफ्तारी से हुई, जिनके पास काफी नकदी पकड़ी गई थी।
कांग्रेस ने अंदेशा व्यक्त किया कि हेमंत सोरेन की सरकार को गिराने की कोशिश है।
कांग्रेस का आरोप है कि तीन विधायकों के पास जो नकदी मिली है, उससे बीजेपी के ‘ऑपरेशन कमल’ की गंध आ रही है। भाजपा ने पार्टी
विधायकों को दस करोड़ रुपये एवं आगे बनने वाली भाजपा सरकार में मंत्री पद का लालच
दिया था।
जेडीयू का आरोप है कि आरसीपी सिंह के मार्फत बिहार
में भी महाराष्ट्र जैसा कुछ करने की कोशिश थी। कांग्रेस को काफी हद तक कमजोर करने
के बाद बीजेपी के निशाने पर क्षेत्रीय दल हैं, जो
प्रतिरोध कर रहे हैं। गत 31 जुलाई को बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पटना में कहा
कि आने वाले दिनों में सभी क्षेत्रीय दल ख़त्म हो जाएंगे। जिस तरह से महाराष्ट्र
में बीजेपी ने शिवसेना को तोड़ा, उससे इस बात की पुष्टि भी होती है।
बिहार में 2015 में भी गठबंधन बना था, जो पूरे दो साल भी नहीं चला। सवाल है कि क्या इसबार का महागठबंधन
स्थिर और स्थायी होगा? इसका जवाब महागठबंधन के भागीदारों को
देना है। पिछले सात और खासतौर से पिछले पाँच साल के अनुभव से ये दल कुछ सीखे होंगे,
तो उम्मीद करनी चाहिए कि वे इसबार कदम फूँककर रखेंगे। इसे समझने के
लिए हमें यह भी समझना होगा कि नीतीश कुमार वापस लौटकर क्यों आए हैं।
इस उलटफेर से विरोधी पार्टियों में नई ऊर्जा
देखने को मिल रही है। 2015 में जब पहली बार महागठबंधन बना तब भी यह उत्साह देखा
गया था। पर वह ऊर्जा 2017 में नीतीश कुमार के पलायन के साथ खत्म हो गई। 2017 में
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी भी विफल
रही। 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद जेडीएस और कांग्रेस की सरकार बनी, पर
वह भी विसंगतियों की शिकार हो गई।
अब तेजस्वी और नीतीश की क्या जोड़ी सफल होगी?
इसका जवाब नई सरकार के पहले छह महीनों में मिलेगा। महागठबंधन की पहली
परीक्षा है। कसौटी है निर्विवाद राजनीति और कुशल प्रशासन। महागठबंधन के भीतर टकराव
नहीं हुआ, तो उसके अच्छे परिणाम भी मिलेंगे। खतरा विपरीत
प्रतिक्रिया का है। उसे रोकने की
जिम्मेदारी इन दोनों की है।
2015-17 और 2022 की परिस्थितियों में सबसे बड़ा
फर्क इसी बात का है। बीजेपी की बुलडोजर-राजनीति का जो भय आज है, वह 2017 में नहीं था। विरोधी दलों के मन में अस्तित्व-रक्षा का
प्रश्न है। महाराष्ट्र में शिवसेना कभी बीजेपी के बड़े भाई की भूमिका में थी,
पर वह देखते ही देखते दूसरे नंबर पर आ गई। नीतीश कुमार के साथ भी यही
हुआ। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू दोनों ने बराबर सीटों (17) पर
चुनाव लड़ा। बीजेपी को 17 पर जीत मिली और जेडीयू को 16 पर। 2020 के विधानसभा चुनाव
में जेडीयू को केवल 43 सीटें मिलीं, जबकि 2015 में
71 मिली थीं। इसके पीछे एक कारण चिराग पासवान के प्रत्याशी थे, जिन्होंने जेडीयू के वोट काटे।
नीतीश कुमार के बीजेपी के साथ विचारधारात्मक
मतभेद अपनी जगह पहले से ही विसंगति पैदा कर रहे थे। यूनिफॉर्म सिविल कोड और तीन
तलाक़ जैसे मुद्दों पर और अग्निवीर तथा जातीय जनगणना को लेकर भी उनका रास्ता अलग
था। नीतीश कुमार को समझ में आ रहा था कि बीजेपी के साथ रहते हुए उनकी पार्टी का
अस्तित्व खत्म होता जा रहा है। केंद्र में शामिल होने के सवाल पर नीतीश कुमार को कुछ
आपत्तियाँ थीं, पर बीजेपी ने उनके ही विश्वस्त आरसीपी
सिंह को बगैर उनकी सहमति के मंत्री बना दिया।
गत 30-31 जुलाई को पटना में बीजेपी के सात
संगठनों की भव्य बैठक से लगा कि बिहार की अब नीतीश के नियंत्रण में नहीं है। नीतीश
को समझ में आ गया कि 2024 या 2025 के आगे अपनी राजनीति को ले जाना है, तो सबसे पहले अस्तित्व को बचाना होगा। अस्तित्व रक्षा का सवाल
कांग्रेस और राजद के सामने भी है। बिहार का अनुभव है कि सामाजिक समीकरण ठीक हों,
तो ‘मोदी के व्यक्तित्व, राष्ट्रभक्ति और
हिंदुत्व’ पर आधारित चुनाव-अभियान विफल होगा। राजद के सहारे बीजेपी ने पिछड़े
वर्गों का वोट हासिल किया, पर जेडीयू की कमाई बीजेपी के हाथ में आई।
पिछले महागठबंधन के कुछ सबक भी हैं। पुलिस
अफसरों और नौकरशाही के तबादलों और सरकारी विभागों के क्रिया-कलाप में अनावश्यक
राजनीतिक-हस्तक्षेप से ‘गवर्नेंस’ बिगड़ती है। सरकारी कामकाज में परिवार के हस्तक्षेप
ने काम बिगाड़ा। राजद की जिम्मेदारी है कि ऐसा नहीं हो। उसकी छवि ऐसी नहीं बननी
चाहिए कि सरकार को रिमोट से चलाने का प्रयास किया जा रहा है। महागठबंधन सरकार के
पास तीन साल का समय है। अनुशासन और जिम्मेदारी से काम किया, तो
उसे सफलता मिलेगी।
कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकशित
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