अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी का ताइवान दौरा सकुशल संपन्न हो गया है, पर उससे कुछ सवाल पैदा हुए हैं। ये सवाल अमेरिका और चीन के बिगड़ते रिश्तों से जुड़े हैं। वहीं भारतीय विदेश-नीति से जुड़े कुछ सवालों ने भी इस दौरान जन्म लिया है। भारत की ओर से इस विषय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। विदेशमंत्री एस जयशंकर की इस दौरान अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन से भी मुलाक़ात हुई है, पर चीन को लेकर कोई बयान नहीं आया है। बहरहाल ज्यादा बड़ा सवाल है कि अब क्या होगा? यूक्रेन पर रूसी हमले के कारण वैश्विक-संकट पैदा हो गया है, अब ताइवान में भी तो कहीं वैसा ही संकट पैदा नहीं होगा? हालांकि चीन काफी आग-बबूला है, पर वह सैनिक-कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं है। ऐसी किसी भी कार्रवाई का मतलब है अमेरिका को सीधे ललकारना। दूसरे ताइवान पर चीन इतना ज्यादा आश्रित है कि लड़ाई से उसकी अर्थव्यवस्था भी संकट में आ जाएगी।
चीनी धमकी
नैंसी पेलोसी के ताइपेह पहुंचने के कुछ ही देर
बाद चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘जो लोग आग से
खेल रहे हैं, वे भस्म हो जाएंगे।’ इसे
हम अपनी 'संप्रभुता का गंभीर उल्लंघन' और 'वन चायना पॉलिसी' को चुनौती के रूप में देखते हैं। चीन की यह बयानबाज़ी पेलोसी के आगमन
के पहले ही शुरू हो गई थी। हालांकि नैंसी
पेलोसी 24 घंटे से भी कम समय तक वहाँ रहीं, पर इस छोटी सी प्रतीक-यात्रा ने माहौल
बिगाड़ दिया है। जनवरी 2019 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा था कि ताइवान
शांतिपूर्ण तरीके से चीन में वापस आने को तैयार नहीं हुआ, तो हम सैनिक-कार्रवाई भी
कर सकते हैं। सवाल है कि चीन ने हमला किया, तो क्या होगा? मई
में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा था कि ताइवान की रक्षा के लिए हम 'प्रतिबद्ध' हैं। पर इसे स्पष्ट कभी नहीं किया। प्रतिबद्धता
का मतलब क्या है? क्या वैसा ही जैसा अफगानिस्तान में हुआ और अब यूक्रेन में हो रहा है?
यात्रा क्यों?
अमेरिका में पूछा जा रहा है कि ऐसे मौके पर जब रूस के यूक्रेन अभियान के कारण दुनिया में परेशानी की लहर है, चीन को छेड़ने की जरूरत क्या थी? यह भी कहा जा रहा है कि चीन की मुश्कें कसना जरूरी है। नैंसी पेलोसी के पहले 1997 में एक और स्पीकर न्यूट जिंजरिच ने भी ताइवान की यात्रा की थी। इसमें नई बात क्या है? चीन में भी बहस चल रही है। शी चिनफिंग पार्टी को फिर से वापस कट्टर कम्युनिज्म की ओर ले जाना चाहते हैं, वहीं खुलेपन की प्रवृत्तियाँ भी अंगड़ाई ले रही हैं। इस साल शी चिनफिंग के कार्यकाल को तीसरी बार बढ़ाया जा रहा है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ हैं। ऐसे में चोट करना सही है। बहरहाल अमेरिका ने जोखिम मोल ले ही लिया है, तो देखें कि अब होता क्या है।
आइलैंड-चेन
जापान के दक्षिण से होकर ताइवान, फिलीपींस से होते हुए दक्षिण चीन सागर तक द्वीपों की जो श्रृंखला जाती
है उसके देश अमेरिका के सहयोगी हैं। पचास के दशक में अमेरिका ने जो ‘आइलैंड-चेन रणनीति’ बनाई थी, उसका यह हिस्सा है। अमेरिकी
विदेश-नीति, खासतौर से हिंद-प्रशांत नीति में इन द्वीपों का विशेष महत्व है।
ताइवान का केवल सामरिक महत्व नहीं है, बल्कि आर्थिक-दृष्टि से भी यह देश बेहद
महत्वपूर्ण है। सेमी-कंडक्टर के क्षेत्र में दुनिया का आधे से ज्यादा कारोबार
ताइवान में केंद्रित है। दुनिया का इलेक्ट्रॉनिक्स-उद्योग जिस चिप के सहारे चलता
है, वह सेमी-कंडक्टर है। इस कारोबार में चीन अभी पिछड़ा हुआ है।
क्या है ताइवान?
ताइवान का आधिकारिक
नाम है रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (आरओसी)। यह नाम सन 1912 से मेनलैंड चीन के लिए
इस्तेमाल होता रहा है। यह 1950 तक सर्वमान्य था। मेनलैंड चीन का नाम पीपुल्स
रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) है, जो 1949 के बाद रखा गया। ताइवान पहले फॉरमूसा नाम
से प्रसिद्ध था और 17वीं सदी से पहले चीन से अलग था। 17वीं सदी में डच और स्पेनिश
उपनिवेशों की स्थापना के बाद यहाँ चीन से हान लोगों का बड़े स्तर पर आगमन हुआ।
1683 में चीन के अंतिम चिंग राजवंश ने इस द्वीप पर कब्जा किया था। चीन-जापान युद्ध
के बाद 1895 में यह जापान के पास चला गया। 1912 में चीनी गणराज्य की स्थापना हो
गई, पर ताइवान, जापान के अधीन रहा। 1945 में जापान के समर्पण के बाद यह चीनी
गणराज्य के हाथों में चला गया। उन दिनों चीन में राष्ट्रवादी पार्टी कुओमिंतांग और
कम्युनिस्टों के बीच युद्ध चल रहा था। सन 1949 में माओ-जे-दुंग के नेतृत्व में
कम्युनिस्टों ने च्यांग काई शेक के नेतृत्व वाली कुओमिंतांग पार्टी की सरकार को
परास्त कर दिया। माओ के पास नौसेना नहीं थी, इसलिए वे समुद्र पार करके ताइवान पर कब्जा
नहीं कर सके। ताइवान तथा कुछ द्वीप कुओमिंतांग के कब्जे में ही रहे।
असली चीन
काफी समय तक दुनिया ने
साम्यवादी चीन को मान्यता नहीं दी। पश्चिमी देशों ने
ताइवान को ही चीन माना। संयुक्त राष्ट्र के जन्मदाता देशों में वह शामिल था। साठ
के दशक में इस देश ने बड़ी तेजी से आर्थिक और तकनीकी विकास किया। 1971 के बाद से
यह संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं है। ताइवान के ज्यादातर लोग चीन से एकीकरण के
विरोधी हैं, कुछ समर्थक भी हैं। कुछ को लगता है कि ताइवान का लोकतंत्र समाप्त हो
जाएगा, मानवाधिकार नहीं बचेंगे, ताइवानी राष्ट्रवाद समाप्त हो जाएगा, जापान के
प्रति हमदर्दी की भावनाओं का दमन कर दिया जाएगा। वे चाहते हैं कि या तो यथास्थिति
बनी रहे या फिर देश खुद को स्वतंत्र घोषित कर दे। आरओसी (ताइवान) के संविधान में
कहा गया है कि मेनलैंड चीन भी उसका हिस्सा है, पर व्यावहारिक रूप से उसका अस्तित्व
ताइवान तक सीमित है।
बदलती स्थितियाँ
1971 में केवल संरा ने ही ताइवान की जगह
कम्युनिस्ट चीन को असली नहीं माना, अमेरिका ने भी चीन के साथ रिश्ते जोड़े।
पाकिस्तान के मार्फत अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर ने
चीन के साथ संपर्क साधा। उन्हें लगता था कि सोवियत संघ का सामना करने के लिए चीन
को अपने साथ रखना चाहिए। सन 1979 में अमेरिका ने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित
कर लिए, जिसके बाद ताइवान को अमेरिकी मान्यता खत्म हो गई। इसके साथ ही अमेरिका ने 'वन चायना पॉलिसी' को अपनी स्वीकृति दे दी। वजूद इस बदलाव के
अमेरिकी कंपनियों के रिश्ते ताइवान के साथ बने रहे। अमेरिकी संसद ने 1982 में ‘सिक्स एश्योरेंसेज़’ शीर्षक से एक प्रस्ताव पास करके ताइवान को भरोसा दिलाया कि हम आपके हितों की
रक्षा करते रहेंगे। उसकी आर्थिक-क्षमताओं और कम्युनिस्ट चीन के बिगड़ते रुख को
देखते हुए अमेरिका की नीतियों में एक और बड़ा बदलाव 16 मार्च, 2018 को आया, जब
अमेरिकी संसद ने ‘यूएस-ताइवान रिलेशंस एक्ट (टीआरए)’ पास किया, जिसके तहत अमेरिकी सरकार को ताइवान की जनता
और वहाँ की सरकार के साथ रिश्ते बनाए रखने की अनुमति दे दी। इसके बाद 13 सितंबर,
2019 को दोनों देशों ने वाणिज्य-दूत के रिश्ते कायम किए और 9 जनवरी, 2021 को
सरकारों के बीच रिश्तों पर लगी रोक को भी हटा दिया।
भारत के लिए संदेश
भारत ‘एक-चीन यानी
वन चायना पॉलिसी’ को मानता है। हमने ताइवान को देश के रूप
में मान्यता नहीं दी है, पर उसके साथ राजनयिक रिश्ते बना रहे हैं। हाल में भारत ने
देश में सेमी-कंडक्टर उद्योग लगाने की शुरुआत की है। इसमें ताइवान हमारा सबसे बड़ा
मददगार होगा। चीन से हमारी प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है, फिर भी हम खुलकर सामने
नहीं आ रहे हैं। चीन और भारत के बीच कारोबार 100 अरब
डॉलर के पार जा चुका है। सवाल है कि आर्थिक-रिश्ते जोड़ें या तोड़ें? पर्यवेक्षक मानते हैं कि चीन के साथ रिश्तों को लेकर भारत सावधानी
बरतता है और खुलकर विरोध नहीं करता। हाल के वर्षों में भारत की क्वॉड में भागीदारी
खुलकर सामने आई है, अन्यथा डेढ़ दशक पहले भारत उसे लेकर भी संशय में था। 1962 की लड़ाई में चीन ने हमें पहला झटका
दिया। इससे पाकिस्तान को समझ में आया कि भारत को निपटाने में चीन मददगार है। उसने
अक्साईचिन की हजारों किलोमीटर जमीन चीन को दी। पचास के दशक में भारत लगातार चीन का
समर्थन कर रहा था। तिब्बत और ताइवान जैसे मसलों पर भारत की नीति चीन-समर्थक थी।
ताइवान का
महत्व
चीन 80 अरब डॉलर के घाटे के साथ ताइवान के साथ
कारोबार करता है। हालांकि भारत ने ताइवान को मान्यता नहीं दी है, पर कुछ समय से
खुलकर सामने आने के प्रयास शुरू किए हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ-ग्रहण
समारोह में ताइवान के राजदूत चुंग-क्वांग तिएन और केंद्रीय तिब्बत प्रशासन के
अध्यक्ष लोबसांग सांगे को भी बुलाया था। ताइपेह में भारत का एक कार्यालय भी है और
दिल्ली में ताइवान का एक सांस्कृतिक केंद्र है। पूर्वी-लद्दाख प्रकरण के बाद मई
2020 में बीजेपी के दो सांसद मीनाक्षी लेखी और राहुल कस्वान वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के
जरिए के ताइवान की राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए,
जबकि 2016 में जब त्साई ने पहली बार राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी, तब मोदी सरकार ने न्योता मिलने के बावजूद किसी सांसद को ताइवान नहीं
भेजा था। चीनी धमकियों के बावजूद भारतीय नीति में बदलाव आ रहा है।
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