प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 76वें स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले के प्राचीर से जो भाषण दिया है, वह उनके इसी मंच से दिए गए पिछले आठ भाषणों से कुछ मायने में अलग था। उनके 82 मिनट के भाषण में सीमा पर तनाव और यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में आई बेचैनी और देश के सामने खड़ी आर्थिक-चुनौतियों का जिक्र नहीं था, बल्कि भविष्य के भारत की परिकल्पना थी। शायद यह 2024 के चुनाव की पूर्व-पीठिका है। परिवारवाद और भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम का उल्लेख करके उन्होंने इस बात की पुष्टि भी की है। उन्होंने अपने पहले वर्ष के भाषण में स्टेट्समैन यानी राजनीति से ऊपर उठे राजनेता की भूमिका पकड़ी थी, पर अब वे खांटी राजनेता के रूप में बोल रहे हैं। उन्होंने कहा कि अपनी पूर्ण क्षमता को हासिल करने के लिए भारत को न सिर्फ उन सभी बाधाओं को दूर करने में समर्थ होना होगा जो इसके आगे बढ़ने का रास्ता रोके हुए हैं, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकारों, संपत्ति के समान वितरण और स्वास्थ्य एवं शिक्षा तक समान पहुंच के मानकों को पूरा करने के लिए बाकी दुनिया के साथ कदम-ताल करना होगा। भारत को भले ही अन्य देशों के अनुमोदन की जरूरत नहीं है, लेकिन अपेक्षाकृत समतावादी समाज के निर्माण के मामले बेहतर करने की जरूरत है। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि भारत को कई दशकों के बाद एक स्थिर सरकार मिली है, जिसकी बदौलत त्वरित निर्णय करना संभव हो पा रहा है।
विराट-रूपरेखा
किसी खास योजना, किसी खास नीति या किसी खास
विचार के बजाय उन्होंने भारत की एक दीर्घकालीन विराट-रूपरेखा पेश की। कह सकते हैं
कि उन्होंने 2047 का खाका खींचा, जिसके लिए अगले 25
वर्षों को ‘अमृत-काल’ बताते
हुए कुछ संकल्पों और कुछ संभावनाओं का जिक्र किया। एक देश जिसने अपनी स्वतंत्रता
के 75 वर्ष पूरे किए हैं, और जो 100 वर्ष की ओर बढ़ रहा है, उसकी महत्वाकांक्षाओं
और इरादों को इसमें पढ़ना होगा। मेड इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, आत्मनिर्भर भारत जैसे
बड़े लक्ष्यों पर चलते हुए देश के भविष्य का खाका उन्होंने खींचा। उनके विचार से शत-वर्षीय भारत विकसित देश होगा। इस यात्रा में
नारी-शक्ति की जिस भूमिका को उन्होंने रेखांकित किया है, उसपर हमें ध्यान देना
होगा। नारी-शक्ति का जिक्र उन्होंने पहली बार नहीं किया है। इसे वे ‘देश की पूँजी’ मानते हैं।
इनसाइडर व्यू
प्रधानमंत्री ने कहा, जब सपने बड़े होते हैं, संकल्प बड़े होते हैं तो पुरुषार्थ भी बड़ा होता है। इसे संवाद-शैली कहें या ‘दृष्टि’ नरेंद्र मोदी के स्वतंत्रता-दिवस भाषणों में क्रमबद्धता है। 15 अगस्त 2014 में उन्होंने अपने पहले संबोधन में कहा, मैं दिल्ली के लिए आउटसाइडर रहा हूं, पर दो महीने में जो इनसाइडर व्यू लिया तो चौंक गया। ऐसा लगता है कि जैसे एक सरकार के भीतर दर्जनों सरकारें चल रहीं हैं। बहरहाल अब वे आउटसाइडर नहीं हैं। तब उन्होंने कहा था, देश बनाना है तो जनता बनाए और दुनिया से कहे कि भारत ही नहीं हम दुनिया का निर्माण करेंगे। उसी संबोधन में ‘कम, मेक इन इंडिया’ वाक्यांश सामने आया था, जो आज नीति की शक्ल ले चुका है। उन्होंने कहने का प्रयास किया था कि हम किसी नए भारत का आविष्कार नहीं, उसका पुनर्निर्माण करने जा रहे हैं। उनकी बातों में सामाजिक बदलाव का जिक्र भी था। स्त्रियों को मुख्यधारा में लाने, उनका सम्मान करने, सरकारी सेवकों को अपनी जिम्मेदारी समझने, सांप्रदायिकता और जातिवाद से जुड़े मसलों को कम से कम एक दशक तक भूल जाने और केवल देश निर्माण पर ध्यान केंद्रित करने का सुझाव दिया था।
अपनी धरती से जुड़ें
प्रधानमंत्री ने जिन ‘पाँच-प्रण’ का सुझाव दिया है, उनमें सबसे महत्वपूर्ण
सुझाव है, अपनी धरती से जुड़ने का। ‘जब हम अपनी धरती से
जुड़ेंगे, तब ही तो ऊँचा उड़ेंगे।’ हमें मानसिक-दासता से
मुक्त होना चाहिए। यह मानसिक दासता विदेशी-शासन की देन है। हम भाषा, संस्कृति,
जीवन-शैली और विचार हर क्षेत्र में हीन-भावना से ग्रस्त हैं। कभी-कभी हमारी प्रतिभा भाषा के बंधनों में बंध जाती है। यह गुलामी की
मानसिकता का परिणाम है। हमें देश की हर भाषा पर गर्व होना चाहिए। उन्होंने अनुमोदन
के लिए दूसरे देशों की ओर देखने की आदत से छुटकारा पाने का आग्रह किया। यह सवाल
उठाते हुए कि भारत आखिर कब तक विदेशी ‘प्रमाण-पत्रों’ के
भरोसे रहेगा, प्रधानमंत्री ने इस बात पर हैरानी जताई कि भारत
अबतक अपना खुद का ‘मानक’ क्यों नहीं विकसित कर सका। उनकी यह
बात प्रशासन और मानवाधिकारों के मुद्दे पर उनकी सरकार की अंतरराष्ट्रीय आलोचना के
प्रति नाखुशी का इशारा भी करती है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत ‘मदर
ऑफ डेमोक्रेसी’ है।
सामूहिक चेतना
राष्ट्रीय-एकता को लेकर कुछ लोग संदेह व्यक्त
करते रहे हैं। वे देख नहीं पाते हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी विविधता में एकता की
मिसाल भी भारत में ही मिलेगी। मोदी ने कहा कि भारत में सामूहिक चेतना का
पुनर्जागरण हुआ है। यह हमारी सबसे बड़ी अमानत है। पिछले तीन दिन से जिस तरह देश
तिरंगा ले कर चल पड़ा है, यह अभूतपूर्व सामर्थ्य की मिसाल है। इस सामर्थ्य ने देश को एक नई ताकत दी है। आत्मनिर्भर
भारत, सरकारी एजेंडा या सरकारी कार्यक्रम नहीं है। यह
जनांदोलन है, जिसे हमें आगे बढ़ाना है। अनुभव कहता है कि एक
बार हम सब संकल्प लेकर चल पड़ें, तो हम निर्धारित लक्ष्यों को पार कर
लेते हैं। यही हमारा प्राण, यही हमारा प्रण भी होना चाहिए। पूरे
विश्व का भारत की तरफ देखने का नजरिया बदल चुका है। विश्व भारत की तरफ गर्व से देख
रहा है, अपेक्षा से देख रहा है।
जय अनुसंधान
प्रधानमंत्री ने लाल बहादुर शास्त्री के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ का उल्लेख
करते हुए कहा कि अटल जी ने इसमें ‘जय विज्ञान’ जोड़ने का सुझाव दिया था। अब हमें इसमें ‘जय अनुसंधान (इनोवेशन)’ भी जोड़ना
चाहिए। अमृत काल के लिए आवश्यकता है- जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान, जय
अनुसंधान। हमें हर क्षेत्र में
इनोवेशन या नवाचार की जरूरत है, तभी हम वैश्विक-प्रतियोगिता में विजयी हो पाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि हमारा प्रयास है कि युवाओं को असीम अंतरिक्ष
से लेकर समंदर की गहराई तक रिसर्च के लिए भरपूर मदद मिले। इसलिए हम स्पेस मिशन का,
डीप ओशन मिशन का विस्तार कर रहे हैं। स्पेस और समंदर की गहराई में ही
हमारे भविष्य के लिए जरूरी समाधान है। आज विश्व पर्यावरण की समस्या से जो जूझ रहा
है। ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्याओं के समाधान का रास्ता हमारे पास है। इसके लिए
हमारे पास वह विरासत है, जो हमारे पूर्वजों ने हमें दी है। हम
जीव में भी शिव देखते हैं, हम वो लोग हैं जो नर में नारायण देखते
हैं, जो नारी को नारायणी कहते हैं, हम पौधे में परमात्मा देखते हैं। यह हमारी सामर्थ्य है, जब विश्व के सामने खुद गर्व करेंगे तो दुनिया करेगी।
अमृत-काल
प्रधानमंत्री के आलोचकों ने इस संबोधन को लेकर दो-तीन
बातें कही हैं। पहली, उन्होंने भारत को विकसित बनाने का दावा तो किया है, पर उसका
रोडमैप नहीं बताया है। फिर विकसित का मतलब क्या है? क्या
अमेरिका जैसा? हम अमेरिका जैसा विकास चाहते हैं या
स्कैंडिनेविया के जैसे देशों जैसा, जो आर्थिक-विकास के साथ-साथ मानवीय-विकास के
मामले में बहुत आगे हैं? देश इस लक्ष्य को कैसे हासिल करेगा
इसका विवरण भी नहीं है। पर ऐसे सवाल करने वालों को समझना होगा कि यह समारोह का वक्तव्य है। 82 मिनट
में रोडमैप नहीं बताया जा सकता। उसके लिए बजट, नीति-आयोग के कार्यक्रमों और सरकारी
नीतियों को पढ़ना होगा। आलोचकों का यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री ने नागरिकों के
कर्तव्यों का उल्लेख तो किया, पर हाशिए के लोगों के बारे में कुछ नहीं कहा।
किसानों की आमदनी के बारे में कोई बात नहीं की। स्वतंत्रता दिवस के संबोधन को संसदीय
वक्तव्यों की तरह नहीं देखा जा सकता, जहाँ विवरण, सूचनाएं और डेटा होता है। यह संबोधन
उस वृहत-अवधारणा का लेखा-जोखा है, जिसमें भावनाएं और उत्साह शामिल हैं। यह एक
विशाल जन-समुदाय का आह्वान है, जो बदलाव चाहता है। इसमें इस्तेमाल रूपकों,
मुहावरों और प्रच्छन्न अभिप्रायों को समझने की कोशिश की जा सकती है। उनके आलोचकों
ने ‘अमृत-काल’ शब्द के इस्तेमाल पर भी ध्यान दिया
है। पिछले साल 15 अगस्त को उनके भाषण में ‘अमृत-काल’
शब्द पहली बार आया था। उन्होंने इसे अगले 25 सालों के लिए ‘नए
भारत’ की यात्रा के तौर पर बताया था। प्रधानमंत्री
ने इसबार के भाषण में 14 बार ‘अमृत-काल’ शब्द
का प्रयोग किया। इसके पीछे कुछ लोग राजनीतिक-दृष्टि खोज रहे हैं।
परिवारवाद-भ्रष्टाचार
हालांकि इस संबोधन में किसी का नाम या सीधा
इशारा नहीं है, पर नरेंद्र मोदी
ने दो संकेत ऐसे दिए हैं, जिन्हें राजनीतिक-दृष्टि से देखा जा सकता है। एक, उन्होंने
कहा कि राजनीति में परिवारवाद नहीं चलेगा और दूसरे देश को लूटने वाले भ्रष्टाचारी
बच नहीं पाएंगे। उन्होंने कहा, जो लोग पिछली सरकारों में देश को लूटकर
भाग गए, उनकी संपत्तियां ज़ब्त करके वापिस लाने की
कोशिश कर रहे हैं। जिन्होंने देश को लूटा है उन्हें लौटाना पड़े वैसी स्थिति हम
पैदा कर रहे हैं। हम भ्रष्टाचार के खिलाफ एक निर्णायक कालखंड में कदम रख रहे हैं। देश के लोगों से इन बुराइयों के खिलाफ लड़ाई
में उन्होंने अपने लिए आशीर्वाद भी मांगा, क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग एक
निर्णायक चरण में प्रवेश करने वाली है। जहां बड़ी मछली को भी नहीं बख्शा जाएगा। क्या
प्रधानमंत्री इन दो बातों से किसी भावी अभियान का इशारा कर रहे हैं? क्या इसे 2024 के चुनाव का प्रस्थान-बिंदु मानें? ऐसे सवालों के जवाब समय देगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
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