Sunday, February 23, 2020

ट्रंप-यात्रा का राजनयिक महत्व


अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस हफ्ते हो रही भारत-यात्रा का पहली नजर में विशेष राजनीतिक-आर्थिक महत्व नजर नहीं आ रहा है, क्योंकि आधिकारिक रूप से कहा गया है कि दोनों देशों के बीच बहु-प्रतीक्षित व्यापार समझौते पर दस्तखत अभी नहीं होंगे, बल्कि इस साल हो रहे राष्ट्रपति चुनाव के बाद होंगे। अहमदाबाद और आगरा की यात्रा का कार्यक्रम जिस प्रकार से तैयार किया गया है, उससे लगता है कि यह सैर-सपाटे वाली यात्रा ज्यादा है। ट्रंप चाहते हैं कि इसका जमकर प्रचार किया जाए। चुनाव के साल में वे दिखाना चाहते हैं कि मैं देश के बाहर कितना लोकप्रिय हूँ। 
बावजूद इसके यात्रा के राजनयिक महत्व को कम नहीं किया जा सकता। अंततः यह अमेरिकी राष्ट्रपति की ‘स्टैंड एलोन’ यात्रा है। आमतौर पर ट्रंप द्विपक्षीय यात्राओं पर नहीं जाते। उनके साथ वाणिज्य मंत्री बिलबर रॉस, ऊर्जा मंत्री डैन ब्रूले, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रॉबर्ट सी ओ’ब्रायन और ह्वाइट हाउस चीफ ऑफ स्टाफ मिक मलवेनी भी आ रहे हैं। वे वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल, पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मुलाकात करेंगे। कुछ समझौते तो होंगे ही, जिनमें आंतरिक सुरक्षा, आतंकवाद के खिलाफ साझा मुहिम, ऊर्जा सुरक्षा और रक्षा तकनीक से जुड़े मसले शामिल हैं।

व्यापक आर्थिक समझौता भले ही अभी न हो, पर दोनों देशों के बीच सामरिक रिश्तों को लेकर कुछ बड़े फैसले होंगे। खासतौर से नौसेना के लिए हेलिकॉप्टरों का एक प्रस्ताव तैयार है। दोनों देशों के बीच अप्रैल में ऊर्जा को लेकर एक बड़ा सम्मेलन प्रस्तावित है, जिसकी पृष्ठभूमि भी तैयार होगी। एक समझौता भारतीय औषधियों की अमेरिका को होने वाली सप्लाई को लेकर भी हो सकता है। द्विपक्षीय मामलों में हरेक देश अपने हितों की रक्षा करता है।
दोनों देशों के बीच पिछले दो साल में व्यापारिक रिश्तों में अड़चनें आई हैं। अमेरिका ने जनरलाइज्ड सिस्टम प्रिफरेंस (जीएसपी) के तहत भारत के मिला विशेष दर्जा खत्म कर दिया है। भारत की तमाम वस्तुओं पर टैक्स बढ़ा दिया है। जवाब में भारत ने भी टैक्स बढ़ाए हैं। अमेरिका की ईरान और अफगानिस्तान से जुड़ी नीतियाँ भारत पर भारी पड़ रही हैं। इसी हफ्ते अमेरिका तालिबान के साथ कोई समझौता करने वाला है, ताकि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से वापस चली जाए। अमेरिका के हटने का भारत पर असर पड़ेगा। ऐसी स्थिति में हम क्या करेंगे, इसके बारे में दोनों देशों के बीच किसी किस्म की सहमति बनेगी।
अमेरिका ने रक्षा तकनीक में भारत-रूस सहयोग पर आपत्ति व्यक्त की है। हालांकि भारत ने रूस से हवाई सुरक्षा प्रणाली एस-400 का सौदा कर लिया है, पर ट्रंप की यात्रा के ठीक पहले करीब 3.5 अरब डॉलर के रक्षा उपकरणों की खरीद के प्रस्ताव तैयार कर लिए हैं। दिल्ली की सुरक्षा के लिए अमेरिका की एनए-सैम-2 हवाई सुरक्षा प्रणाली भारत खरीदने जा रहा है। दिल्ली के सुरक्षा कवच की तीन परतें होंगी। सबसे भीतर अमेरिकी प्रणाली, उसके बाहर भारत की ‘आकाश’ प्रणाली और उसके बाहर रूस की एस-400 प्रणाली। रक्षा तकनीक में भारत ने रूस के बाद अब अमेरिका, फ्रांस और इसरायल को अपना साझीदार बनाया है।
चीन हमारा सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है, पर वस्तुतः  अमेरिका उसे पीछे छोड़ रहा है। नब्बे के दशक में शुरू हुई भारत की नई अर्थव्यवस्था और खासतौर से इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों की सूचना-क्रांति में हमारा सबसे बड़ा साझीदार अमेरिका है। चीन के साथ हमारे व्यापार में भारी घाटा है। अमेरिका के साथ व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में है। ट्रंप को द्विपक्षीय व्यापार में घाटा पसंद नहीं है।
आर्थिक मसलों में कड़वाहट, पर सामरिक रिश्तों में गर्मजोशी है। यह बदलाव पिछले दो दशकों में आया है। इसका एक बड़ा कारण शीतयुद्ध के बाद की स्थितियाँ हैं। अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा के उदय के बाद 9/11 की परिघटना ने एक तरफ जेहादी राजनीति के कारण दोनों देशों को करीब आने को प्रेरित किया, दूसरी ओर चीन के उदय के कारण अमेरिका को खासतौर से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के करीब आने की जरूरत महसूस हुई है। सन 1998 में नाभिकीय परीक्षण के बाद भारतीय रक्षा तकनीक पर अमेरिका ने कई तरह के प्रतिबंध लगाए थे। समय के साथ वे प्रतिबंध न सिर्फ हटे, बल्कि जुलाई 2005 में अमेरिका के साथ हुए सामरिक समझौते के बाद रिश्तों में गुणात्मक बदलाव आया है। बढ़ते समुद्री व्यापार के मद्देनज़र भारत पर हिंद महासागर से लेकर प्रशांत तक के क्षेत्र में सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ गई है। एक समय तक राजनयिक भाषा में जिसे एशिया-प्रशांत कहा जाता था, उसे अमेरिका ने हिंद-प्रशांत का नया नाम दिया है।
अमेरिका में राष्ट्रपति चाहे डेमोक्रेटिक पार्टी के रहे हों या रिपब्लिकन पार्टी के और संसद में किसी भी पार्टी का बहुमत रहा हो भारत के साथ रक्षा सहयोग को पूरा समर्थन मिला है। परिस्थितियाँ भी ऐसी बनीं कि अमेरिका के रिश्ते अपने पूर्व सहयोगी पाकिस्तान के साथ बिगड़ते गए। दूसरी तरफ सन 1962 के युद्ध के बाद से भारत और चीन के रिश्तों में जो तल्खी पैदा हुई, वह खत्म होती नजर नहीं आ रही है। चीन-पाकिस्तान गठजोड़ की वजह से भी दोनों देश करीब आए हैं।
गत दिसम्बर में दोनों देशों के बीच दूसरी ‘टू प्लस टू’ वार्ता हुई, जिसमें भारत की तरफ से राजनाथ सिंह और एस जयशंकर तथा अमेरिका की तरफ से माइकेल पॉम्पियो तथा मार्क टी एस्पर शामिल हुए। हालांकि ‘टू प्लस टू वार्ता’ का दायरा काफी बड़ा है, पर मूलतः इसमें टकराव के बिंदुओं के समाधान की कोशिश की जाती है। इसमें रूस और ईरान के मुद्दे भी उठे हैं। कुछ समय पहले दोनों देशों के बीच सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कम्युनिकेशंस, कंपैटिबिलिटी, सिक्योरिटी एग्रीमेंट (कोमकासा) होने के बाद सैनिक समन्वय और सहयोग की राहें खुली हैं।
यह समझौता 10 साल के लिए हुआ है। इसके माध्यम से अमेरिकी नौसेना की सेंट्रल कमांड और भारतीय नौसेना के बीच सम्पर्क कायम हुआ है। भारत ने अपना एक अटैशे (प्रतिनिधि) बहरीन में नियुक्त किया है, जो अमेरिकी सेना के साथ समन्वय बनाएगा। चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल के समांतर अमेरिका ने ब्लू डॉट नेटवर्क (बीडीएन) पहल शुरू की है, जिसमें जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल है। इसका उद्देश्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र में इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए निजी निवेश को बढ़ावा देना है। भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की चतुष्कोणीय सुरक्षा योजना ‘क्वाड’ भी आगे बढ़ रही है।


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