दिल्ली विधानसभा
चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले आम आदमी पार्टी के सोशल मीडिया सेल की एक
कार्यकर्ता ने ट्वीट किया, जिसका भावार्थ था कि अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में जो
शुरुआत की है, उसपर दूसरे राज्यों ने भी चलना शुरू कर दिया है। इस ट्वीट को अरविंद
केजरीवाल ने रिट्वीट किया और अपनी टिप्पणी लगाई जिसका आशय था कि दिल्ली ने सस्ती
बिजली ने राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को दिशा दी है और साबित किया है कि इससे वोट
भी मिलते हैं।
इस ट्वीट श्रृंखला
की शुरुआत इस खबर के साथ हुई थी कि केजरीवाल के फॉर्मूले से प्रभावित होकर
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र में सस्ती बिजली देने का कार्यक्रम बनाया
है। दिल्ली में फिर से भारी विजय के बाद आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता फिर से कहने
लगे हैं कि हमें राष्ट्रीय राजनीति में फिर से प्रवेश करना चाहिए। पार्टी की
प्रवक्ता प्रीति शर्मा मेनन ने कहा है कि हम आने वाले समय में महाराष्ट्र के सभी चुनाव लड़ेंगे। सन 2022 में
बृहन्मुम्बई महानगरपालिका के चुनाव हैं।
दिल्ली में मुफ्त बिजली-पानी
के जादू ने पार्टी को फिर से सत्तानशीन कर दिया है, साथ ही भारतीय जनता पार्टी और
कांग्रेस को आत्ममंथन का एक मौका दिया है। इन परिणामों का एक बड़ा संदेश है कि अब
आप शहरी गरीब वोटर पर भी ध्यान दें। बीजेपी की लोकसभा चुनाव में भारी विजय के पीछे पुलवामा वगैरह के अलावा ग्रामीण गरीबों के
कल्याण की गई उसकी योजनाएं भी थीं। अगले एक दशक में ग्रामीण आबादी का भारी पलायन
शहरों की ओर होगा या बड़े गाँव शहरों की शक्ल लेंगे। इन शहरी गरीबों के कल्याण पर
ध्यान देना होगा।
बीजेपी और कांग्रेस के अलावा
उसमें ‘आप’ के लिए भी कुछ संदेश छिपे हैं। बेशक यह केजरीवाल की चतुर रणनीति की जीत है, पर इससे उसे फूलकर
कुप्पा नहीं हो जाना चाहिए। सन 2013 के बाद से ‘आप’ की कोशिश राष्ट्रीय राजनीति
पर छाने की है। एक समय था, जब ज्यादातर राज्यों में पार्टी की शाखाएं खड़ी हो गईं।
सन 2014 के चुनाव में पार्टी ने सवा चार सौ ज्यादा प्रत्याशी खड़े किए, जिनमें से
पंजाब के चार को छोड़ सभी में करारी हार हुई। अरविंद केजरीवाल खुद वाराणसी में
नरेंद्र मोदी के मुकाबले खड़े हुए। उनकी कोशिश मोदी के बरक्स खुद को खड़ा करने की
थी। वह प्रयोग विफल साबित हुआ और उन्हें वापस दिल्ली की राजनीति में आना पड़ा।
दिल्ली में पार्टी हार जाती तो उसके अस्तित्व का सवाल पैदा हो जाता।
बहरहाल अब लगातार तीसरी दिल्ली
में ‘आप’ की सरकार बनेगी और केजरीवाल मुख्यमंत्री बनेंगे। इन परिणामों का निहितार्थ एक
वाक्य में समेटना हो तो कहा जा सकता है कि यह केजरीवाल की चतुर रणनीति, आत्म मुग्ध भारतीय जनता
पार्टी की अंतिम क्षणों में हड़बड़ी और सदा की भांति कांग्रेस की आत्मघाती राजनीति
का परिणाम है, जिसे इस बात पर संतोष होगा कि बीजेपी भी तो हारी। इस चुनाव ने भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को
आत्ममंथन का मौका दिया है।
‘आप’ जीती जरूर है, पर उसकी सीटें कुछ कम हुई हैं और वोट प्रतिशत भी कुछ घटा है, बावजूद
इसके कि कांग्रेस का काफी वोट ‘आप’ को ट्रांसफर हुआ। बीजेपी की सीटों और वोट प्रतिशत
दोनों में वृद्धि हुई है, पर वह ‘आप’ को अपदस्थ करने में विफल हुई है। सबसे ज्यादा नुकसान
कांग्रेस का हुआ है, जो वोट प्रतिशत के आधार पर इतिहास के सबसे निचले स्तर पर आ गई
है। कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस ने जानबूझकर खुद
को मुकाबले से अलग कर लिया। ऐसा है, तो यह आत्मघाती सोच है।
सन 2013 से अबतक दिल्ली में
विधानसभा के तीन और लोकसभा के दो चुनाव हुए हैं। ‘आप’ को 2013 में 29.43, 2014
में 32.90, 2015 में 54.3, 2019 में 18.0 और अब 53 फीसदी के आसपास वोट मिले हैं।
बीजेपी को क्रमशः 33.07, 46.40, 32.2, 56.58 और अब 39 फीसदी के आसपास वोट मिले
हैं। 2013 में 24.55 फीसदी वोट पाने वाली कांग्रेस करीब 3 फीसदी पर आ गई है। इससे
दिल्ली दो ध्रुवीय राज्य हो गया है।
‘आप’ और कांग्रेस दोनों के वोट प्रतिशत को देखें तो कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। ‘आप’ के वोट प्रतिशत में मामूली
सी गिरावट है और बीजेपी के करीब 7 फीसदी की वृद्धि हुई है। यानी कांग्रेस के
ज्यादातर वोट बीजेपी की तरफ गए हैं। उसके मुस्लिम वोट ‘आप’ के खाते में गए हैं, तो ‘आप’ के भी कुछ वोट बीजेपी की ओर
झुके हैं। यानी अंतिम क्षणों के ध्रुवीकरण ने बीजेपी की मदद की है।
दिल्ली का वोटर बिजली-पानी
और दूसरी नागरिक सुविधाओं को महत्व देता है। ‘आप’ ने काम किया या नहीं, यह अलग
बहस है, पर वोटर ने माना कि ‘आप’ ने काम किया है। बीजेपी तस्वीर के दूसरे पहलू को
सामने लाने में विफल हुई। जिस वक्त सभी महत्वपूर्ण चैनलों पर ‘आप’ के बड़े-बड़े विज्ञापन
दिखाए जा रहे थे, और केजरीवाल लगभग हरेक चैनल पर इंटरव्यू दे रहे थे, बीजेपी सोई
हुई थी। जनवरी के तीसरे हफ्ते में जब उसे जमीनी हकीकत का पता लगा, तो उसने अपनी
पूरी ताकत झोंक दी, पर उससे अभीप्सित परिणाम नहीं मिला। इसके विपरीत पिछले आठ-दस महीनों
में ‘आप’ ने अपने प्रचार की दिशा ही बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य पर केंद्रित
रखी। इसका उसे लाभ मिला।
अब कुछ सवालों के जवाब
खोजें। क्या यह परिणाम शाहीनबाग आंदोलन की परिणति है? क्या केजरीवाल अब राष्ट्रीय
नेता बनकर उभरेंगे? क्या उनके नेतृत्व में विरोधी दलों की एकता स्थापित होगी? फिलहाल ये सारे सवाल अभी बेमानी हैं। यह नागरिकता कानून पर जनमत संग्रह
नहीं था, बल्कि स्थानीय सवालों पर केंद्रित चुनाव था।
केजरीवाल की यह सफलता या यह फॉर्मूला उन्हें तबतक राष्ट्रीय नेता
नहीं बना पाएगा, जबतक वे अपनी साख नहीं बनाएंगे। संगठन बनाने और नीतियाँ गढ़ने तथा
निरंतर राजनीतिक रूप-परिवर्तन के कारण वे दिल्ली तक सीमित रह गए हैं। 2015 के
चुनाव की भारी सफलता के बाद उन्होंने जैसे ही अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को पंख
लगाए, उनका पराभव शुरू हो गया था। पर इसबार आश्चर्यजनक रूप से अरविंद केजरीवाल ने खुद को शाहीनबाग आंदोलन से अलग रखा।
सवाल है कि क्या केजरीवाल अपनी इस राजनीति को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने में कामयाब होंगे? इस पार्टी के सरोकार भी बदलते रहे हैं। ‘शिक्षा और स्वास्थ्य’ भी उनके रणनीतिक पड़ाव हैं,
मंजिल नहीं। उनके क्रमशः बदलते गए साथियों के नाम भी यह बताते हैं। उनके रुख और
रुझान में हर छह महीने में बदलाव हुआ है। इस चुनाव में मिली यह सफलता नई चुनौतियाँ
भी लेकर आएगी।
No comments:
Post a Comment