दिल्ली विधानसभा चुनाव का शोर-शराबा खत्म हो चुका है,
अब परिणाम का इंतजार है। पहली उत्सुकता परिणामों को लेकर ही है। किसकी जीत होगी और
किसकी हार? एक्ज़िट पोल बता रहे हैं कि परिणाम कमोबेश 2015 जैसे होंगे, शायद बीजेपी कुछ
सीटें बढ़ाने में कामयाब होगी। चुनाव की घोषणा के पहले से कहा जा रहा था कि आम
आदमी पार्टी की बढ़त है, पर अंतिम क्षणों में खबरें आईं कि परिणाम आश्चर्यजनक
होंगे। वे उतने एकतरफा नहीं होंगे, जितने समझे जा रहे हैं। यानी कि भारतीय जनता
पार्टी भी मुकाबले में है। उधर कांग्रेस पार्टी सायास या अनायास इस मुकाबले से
बाहर नजर आ रही है। वह मुकाबले में क्यों नहीं है?
तमाम सवालों के जवाब इन परिणामों में छिपे हैं, पर
ज्यादा बड़ा सवाल है कि क्या नागरिकता कानून के कारण साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ
है? क्या 2024 के लोकसभा
चुनाव का यह प्रस्थान-बिंदु है? दिल्ली पूरी तरह राज्य भी नहीं है। राष्ट्रीय राजनीति में उसकी कोई महत्वपूर्ण
भूमिका नहीं है, फिर भी पिछले कुछ वर्षों से किसी न किसी वजह से दिल्ली की राजनीति
राष्ट्रीय चर्चा में रहती है। इसका एक बड़ा कारण सन 2011 का अन्ना आंदोलन है,
जिसने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में खड़ा कर दिया था। उसकी
परिणति आम आदमी पार्टी के रूप में एक राजनीतिक दल में हुई, जिसे 2013 के चुनाव में
पहले आंशिक सफलता मिली और फिर 2015 में भारी। इन दोनों परिघटनाओं के बीच आम आदमी
पार्टी और उसकी राजनीति के अंतर्विरोध सामने आते चले गए।
आपको याद होगा कि
सन 2015 में एक वीडियो संदेश में अरविंद केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया
था 'वह इतने बौखलाए हुए हैं कि मेरी हत्या तक करवा
सकते हैं।' इसके पहले उन्होंने मोदी को ‘मनोरोगी’ बताया
था। कायर और मास्टरमाइंड भी। और यह भी कि मोदी मुझसे घबराता है। वही केजरीवाल आज
अचानक सौम्यता की प्रतिमूर्ति क्यों बन गए हैं। उस ओज और तेज को उन्होंने उतार कर
फेंक दिया। ऐसा क्यों हुआ?
पिछले कुछ महीनों से आम आदमी पार्टी की राजनीति का
केंद्र-बिंदु है ‘काम बोलेगा।’ कौन सा काम बोलेगा? मुफ्त बिजली-पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य। आम आदमी
पार्टी को छोड़िए, जिस आंदोलन से यह पार्टी निकली थी, उसे पूरे देश ने भुला दिया।
यह पार्टी एक जनलोकपाल कानून बनाने वाली थी। देशभर के भ्रष्ट नेताओं की सूची उसने
जारी की थी। पूर्व मुख्यमंत्री को जेल भेजने का एलान कर रखा था। इतना ही नहीं 2014
के लोकसभा चुनाव में करीब सवा चार सौ सीटों पर उसने अपने प्रत्याशी खड़े कर दिए।
पार्टी हाईकमान अरविंद केजरीवाल खुद नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाराणसी
पहुँच गए।
इतने विस्तृत कार्यक्रम को लेकर निकली पार्टी अचानक छोटी
और स्थानीय बातों को लेकर चुनाव लड़ रही है, तो यह विचार करने की जरूरत है कि ऐसा
क्यों हुआ? उसके ‘काम बोलेगा’ कार्यक्रम की असलियत क्या
है? इस राजनीति की तार्किक
परिणति क्या है? अब 11 फरवरी को
विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद यह सोचने का समय आएगा कि राष्ट्रीय राजनीति के
नाम दिल्ली का संदेश क्या है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की भारी विजय से क्या
राष्ट्रीय राजनीति बदल जाएगी? क्या आम आदमी पार्टी विकल्प के रूप में उभरेगी? ऐसे सवाल उठाने के लिए यह उचित समय नहीं है।‘आप’ की भारी विजय से भी उसके
बारे में ये निष्कर्ष नहीं निकालने चाहिए। 2015 की भारी जीत के बावजूद राष्ट्रीय
राजनीति में ‘आप’ का क्रमशः क्षरण हुआ है। दिल्ली के परिणाम वैसे ही हुए जैसे एक्ज़िट पोल बता
रहे हैं, तो केवल इतना ही साबित होगा कि केवल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और भावनात्मक
राजनीति बीजेपी का संबल नहीं बन पाएंगी।
इसमें दो राय नहीं कि जनता की समस्याएं राजनीति के
केंद्र में होनी चाहिए, पर इसकी असलियत क्या है? दिल्ली शहर के मध्यवर्ग की समस्याओं का समाधान क्या
मुफ्त बिजली-पानी से होता है? आम आदमी पार्टी के आने के पहले दिल्ली के शिक्षा और स्वास्थ्य का क्या हाल था? दिल्ली सरकार की आय के साधन क्या हैं? ऐसे तमाम सवालों पर विचार किए बगैर आम आदमी पार्टी की
भविष्य की राजनीति पर विचार करना उचित नहीं होगा।
यह भी सच है कि दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों और निर्धन
वर्ग की बस्तियों में आम आदमी पार्टी ने जगह बनाई है, पर उसके बारे में कोई बड़ा
निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। दिल्ली केंद्र-शासित राज्य है। राष्ट्रीय
राजधानी होने के नाते उसे केंद्र से बड़े स्तर पर सब्सिडी मिलती है। आम आदमी
पार्टी के विकास के साथ दिल्ली और देश के अन्य क्षेत्रों में पत्रकारों की भी
भूमिका रही है। उन्होंने इस पार्टी के ऊट-पटाँग कामों को भी सैद्धांतिक जामा
पहनाने में कमी नहीं रहने दी।
हाल में अरविंद केजरीवाल ने कहीं कहा कि इक्कीसवीं के
भारत का निर्माण नागरिकता कानून से नहीं बेहतर स्कूलों से होगा। उनकी बात सही है,
पर इसके पीछे गहरा पाखंड है। रंगीन कमरों में खिलौनों से खेलते गरीब बच्चों की
तस्वीरें वोटर के मन में एक आभासी सत्य का निर्माण करती हैं। ऐसा ही स्वास्थ्य
सेवाओं के साथ भी है। पिछले छह-आठ महीनों में दिल्ली सरकार ने टीवी चैनलों पर ऐसे
विज्ञापनों की भरमार कर दी, जिनसे लगा कि दिल्ली में क्रांति हो गई है। वास्तव में
सच क्या है, वह तभी पता लगेगा, जब पड़ताल होगी। मीडिया के पास पड़ताल का समय नहीं
है।
दिल्ली के परिणाम दो
बातों अंतर्विरोधों को रेखांकित करेंगे। एक तरफ मुफ्त बिजली पानी, शिक्षा और
स्वास्थ्य। दूसरी तरफ शाहीनबाग का आंदोलन और उसकी प्रतिक्रिया। दोनों का रिश्ता
क्या है? शाहीनबाग क्या मुस्लिम
प्रतिक्रिया है? क्या मुस्लिम भावनाओं
के दोहन की कोशिश हो रही है? क्या ये अलग-अलग राहें हैं? शाहीनबाग आंदोलन भारतीय संविधान, धर्मनिरपेक्षता और देश की बहुल संस्कृति का
आवाज है या भारतीय जनता पार्टी के विरोध में किसी पार्टी या संगठन द्वारा
प्रायोजित आंदोलन है, इसका पता भी इस हफ्ते लगेगा।
आश्चर्यजनक रूप से
अरविंद केजरीवाल ने खुद को इस आंदोलन से अलग रखने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं
उन्होंने पिछले हफ्ते अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय अखबार से कहा ‘मैं सॉफ्टकोर नहीं हार्डकोर
राष्ट्रवादी हूँ।’ उनकी चिंता का केंद्र शिक्षा और स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके भी
उतने ही बड़े सरोकार हैं, जितने पाँच साल पहले थे। ‘शिक्षा और स्वास्थ्य’ भी पड़ाव हैं, मंजिल नहीं। उनके
क्रमशः बदलते गए साथियों के नाम भी यह बताते हैं।
राजनीति में नाटकीयता
और प्रतीकात्मकता का एक हद तक मतलब होता है, पर दिल्ली में पिछले छह साल में अति हुई है। बीजेपी, कांग्रेस या दूसरे दलों
के बीच ‘आप’ ने अपनी जगह बनाई है, तो उसके पीछे उसकी नाटकीयता की भूमिका भी है। यह पार्टी
जनता के सपनों का दोहन करते हुए खड़ी हुई है। अब देखना यह है कि इसका भविष्य क्या
है? दिल्ली के परिणाम उसका भविष्य तय करेंगे। बीजेपी या
कांग्रेस के भविष्य पर इन परिणामों का कोई असर नहीं होगा, पर यह ‘आप’ के अस्तित्व का चुनाव है।
बहुत अच्छा लेख लिखा है l इस चुनाव के परिणाम बहुत सी बातें स्पष्ट करेंगे l ये चुनाव परिणाम यह भी स्पष्ट करेंगे कि क्या जनता अब भी राष्ट्रवाद कि बातों को सबसे अहम् मुद्दा मानती है या नहीं l यह भी स्पष्ट होगा क़ि जो दावे केजरीवाल सरकार ने प्रगति के किये हैँ, उस पर दिल्ली की जनता को कितना विश्वास है l फिलहाल केजरीवाल का पलड़ा, एग्जिट पोल के अनुसार,भारी दिखाई पड़ता है l
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