सोमवार को चीन ने नाथूला होकर कैलाश मानसरोवर तक जाने का दूसरा रास्ता खोल दिया गया. चीन ने भारत के साथ विश्वास बहाली के उपायों के तहत यह रास्ता खोला है. इस रास्ते से भारतीय तीर्थ यात्रियों को आसानी होगी. धार्मिक पर्यटन के अलावा यहाँ आधुनिक पर्यटन की भी अपार सम्भावनाएं हैं. पर सिद्धांततः यह आर्थिक विकास के नए रास्तों को खोलने की कोशिश है.
पिछले हफ्ते की खबर थी कि चीन ने म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते प्राचीन ‘रेशम मार्ग’ को फिर से शुरू करने के अपने प्रयासों के तहत कुनमिंग और कोलकाता के बीच एक हाई स्पीड रेल लाइन बिछाने की इच्छा जताई है. कुनमिंग में ग्रेटर मीकांग सबरीजन (जीएमएस) सम्मेलन में इस प्रस्ताव पर चर्चा की गई, जिसमें बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआईएम) मल्टी-मोडल गलियारे को प्रोत्साहन देने पर बल दिया गया.
इस हाई स्पीड गलियारे से म्यांमार और बांग्लादेश की अर्थव्यवस्थाओं को भी मदद मिलेगी. कुनमिंग में लगे दक्षिण एशिया व्यापार मेले का उद्घाटन के लिए भारत के विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह खासतौर से वहाँ गए थे. क्षेत्रीय एकीकरण (रीजनल इंटीग्रेशन) की बातें फिर से होने लगीं हैं. पचास के दशक से प्रस्तावित एशियन हाइवे और ट्रांस एशियन रेलवे जैसी परियोजनाएं चर्चा में आ रहीं हैं, जिन्हें सफल बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियाँ कोशिश करती रहीं हैं. चीन जिस 2800 किलोमीटर के रेल मार्ग की पेशकश कर रहा है उससे 132 अरब डॉलर का सालाना व्यापार हो सकता है. अभी भारत-चीन व्यापार तकरीबन 70 अरब डॉलर का है.
क्षेत्रीय एकीकरण दक्षिण एशिया के सामने बड़ी चुनौती है. पर यहाँ की राजनीति इसमें अड़ंगा लगाती है. पिछले साल नवम्बर में काठमांडू में हुए दक्षेस सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण होकर रहेगा. यह काम दक्षेस के मंच पर नहीं होगा, तो किसी दूसरे मंच से होगा. मोदी ने यह बात पाकिस्तान की आनाकानी से उपजी परिस्थितियों के मद्देनज़र कही थी. उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल सम्पर्क समझौते पर सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़कर सभी देश इसके लिए तैयार थे.
पाकिस्तान की आनाकानी के बाद भारतीय राजनय में एक बुनियादी बदलाव आया है. अब भारत दक्षेस से बाहर जाकर सहयोग के रास्ते खोजने लगा है. इसकी शुरुआत 15 जून को थिम्पू में हुए बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल मोटर वेहिकल एग्रीमेंट (बीबीआईएन) से हुई है. भारत अगले कुछ दिनों में इसी आशय का एक त्रिपक्षीय समझौता अब अफगानिस्तान और ईरान से करने जा रहा है. इसके तहत ईरान के चहबहार बंदरगाह का विकास भारत करेगा, जहाँ से अफगानिस्तान तक माल का आवागमन सड़क मार्ग से होगा. भारत के सीमा सड़क संगठन ने ईरान की सीमा से होकर 215 किलोमीटर लम्बे डेलाराम-जाराज मार्ग का निर्माण अफगानिस्तान में किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है. इस परियोजना पर भारत ने लगभग 750 करोड़ रुपये लगाए हैं.
पाकिस्तान के रवैये को देखते हुए भारत ने अब उप-क्षेत्रीय समझौतों में शामिल होने का फैसला किया है. साउथ एशिया सब रीजनल इकोनॉमिक को-ऑपरेशन संगठन में भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका शामिल हैं. इसी तरह बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (बिमस्टेक) में भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका के अलावा म्यांमार तथा थाईलैंड भी हैं. म्यांमार से होकर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को जोड़ने वाली दो बड़ी हाइवे परियोजनाएं जापान और चीन की मदद से चलने वाली हैं.
पिछले साल नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया के देशों के लिए जिस उपग्रह की बात की थी उसमें भी पाकिस्तान के अलावा सभी देशों ने दिलचस्पी दिखाई है. काठमांडू में दक्षेस देशों का बिजली का ग्रिड बनाने पर पाकिस्तान सहमत हो गया था, पर कहना मुश्किल है कि वह इसमें उत्साह से हिस्सा लेगा या नहीं. भारत को ऐसी ज्यादातर परियोजनाओं में दक्षेस के बजाय किसी दूसरे फोरम के मार्फत काम करना होगा. तमाम सीमा विवाद के बावजूद चीन इस मामले में भारत के साथ सहयोग करने का बेहद इच्छुक है.
इन रास्तों से होकर यात्रा और व्यापार का इतिहास पुराना है. चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की पिछले साल सितंबर में भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच नाथूला वैकल्पिक मार्ग से यात्रा शुरू किए जाने को लेकर समझौते पर दस्तखत हुए थे. हजारों साल पहले से लेकर पचास के दशक तक ऐसे दर्जनों रास्ते थे, जिनसे होकर साधु-महात्मा, योगी और व्यापारी बिना किसी पासपोर्ट या आज्ञा-पत्रों की औपचारिकता के यात्रा किया करते थे. अब जब वैश्विक अर्थ-व्यवस्था सारी दुनिया को एक करने की कोशिश कर रही है, परम्परागत रास्तों पर फिर से निगाहें जा रहीं हैं.
सन 2003 में अटल बिहारी की चीन यात्रा के दौरान चीन ने सिक्किम में भारत की सम्प्रभुता को स्वीकार किया था. वह एक राजनीतिक सफलता थी साथ ही परम्परागत रास्तों को खोलने की शुरुआत भी. सन 2004 में दोनों देशों ने नाथूला और जेपला नामक दो दर्रों को खोलने का समझौता किया. इन दर्रों से होकर तिब्बत और सिक्किम के बीच सैकड़ों साल से आवागमन चलता था. दोनों देशों ने निश्चय किया कि नाथूला के रास्ते होने वाले परम्परागत व्यापार को फिर से शुरू किया जाए. और 5 जुलाई 2006 से यह रास्ता व्यापार के लिए खोल दिया गया.
नाथूला मार्ग प्राचीन सिल्क रोड या रेशम मार्ग की एक शाखा रहा है. रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक मार्गों का जाल था जिसके ज़रिए एशिया, यूरोप और अफ्रीका जुड़े हुए थे. इसमें सबसे प्रसिद्ध उत्तरी रेशम मार्ग है जो चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप में जाता था और जिस से निकलती एक शाखा भारत की ओर जाती थी. रेशम मार्ग का ज़मीनी हिस्सा साढ़े छह हजार किमी लम्बा था. इसका नाम चीन से आने वाले रेशम पर पड़ा. यह कोई एक रास्ता नहीं था, बल्कि अनेक रास्तों का जाल था.
भारत और चीन के बीच दक्षिण सिल्क रोड भी थी. म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते भारत को चीन से जोड़ने की पहल चीन ने की है. चीन के राष्ट्रपति ने मालदीव, श्रीलंका और भारत की यात्रा के दौरान दक्षिणी चीन सागर और हिंद महासागर को जोड़ने वाले नौवहन सिल्क रोड के विकास पर भी चर्चा की थी. शी ने खास तौर से दक्षिणी सिल्क रोड को पुनर्जीवित करने में अपनी दिलचस्पी दिखाई जिसे बीसीआइएम (बांग्लादेश, चीन, म्यांमार, भारत) कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है. सुरक्षा और राष्ट्रीय हितों को बेशक ध्यान में, पर रास्तों को खोलना हमारे हित में ही होगा. प्रभात खबर में प्रकाशित
पिछले हफ्ते की खबर थी कि चीन ने म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते प्राचीन ‘रेशम मार्ग’ को फिर से शुरू करने के अपने प्रयासों के तहत कुनमिंग और कोलकाता के बीच एक हाई स्पीड रेल लाइन बिछाने की इच्छा जताई है. कुनमिंग में ग्रेटर मीकांग सबरीजन (जीएमएस) सम्मेलन में इस प्रस्ताव पर चर्चा की गई, जिसमें बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआईएम) मल्टी-मोडल गलियारे को प्रोत्साहन देने पर बल दिया गया.
इस हाई स्पीड गलियारे से म्यांमार और बांग्लादेश की अर्थव्यवस्थाओं को भी मदद मिलेगी. कुनमिंग में लगे दक्षिण एशिया व्यापार मेले का उद्घाटन के लिए भारत के विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह खासतौर से वहाँ गए थे. क्षेत्रीय एकीकरण (रीजनल इंटीग्रेशन) की बातें फिर से होने लगीं हैं. पचास के दशक से प्रस्तावित एशियन हाइवे और ट्रांस एशियन रेलवे जैसी परियोजनाएं चर्चा में आ रहीं हैं, जिन्हें सफल बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियाँ कोशिश करती रहीं हैं. चीन जिस 2800 किलोमीटर के रेल मार्ग की पेशकश कर रहा है उससे 132 अरब डॉलर का सालाना व्यापार हो सकता है. अभी भारत-चीन व्यापार तकरीबन 70 अरब डॉलर का है.
क्षेत्रीय एकीकरण दक्षिण एशिया के सामने बड़ी चुनौती है. पर यहाँ की राजनीति इसमें अड़ंगा लगाती है. पिछले साल नवम्बर में काठमांडू में हुए दक्षेस सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण होकर रहेगा. यह काम दक्षेस के मंच पर नहीं होगा, तो किसी दूसरे मंच से होगा. मोदी ने यह बात पाकिस्तान की आनाकानी से उपजी परिस्थितियों के मद्देनज़र कही थी. उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल सम्पर्क समझौते पर सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़कर सभी देश इसके लिए तैयार थे.
पाकिस्तान की आनाकानी के बाद भारतीय राजनय में एक बुनियादी बदलाव आया है. अब भारत दक्षेस से बाहर जाकर सहयोग के रास्ते खोजने लगा है. इसकी शुरुआत 15 जून को थिम्पू में हुए बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल मोटर वेहिकल एग्रीमेंट (बीबीआईएन) से हुई है. भारत अगले कुछ दिनों में इसी आशय का एक त्रिपक्षीय समझौता अब अफगानिस्तान और ईरान से करने जा रहा है. इसके तहत ईरान के चहबहार बंदरगाह का विकास भारत करेगा, जहाँ से अफगानिस्तान तक माल का आवागमन सड़क मार्ग से होगा. भारत के सीमा सड़क संगठन ने ईरान की सीमा से होकर 215 किलोमीटर लम्बे डेलाराम-जाराज मार्ग का निर्माण अफगानिस्तान में किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है. इस परियोजना पर भारत ने लगभग 750 करोड़ रुपये लगाए हैं.
पाकिस्तान के रवैये को देखते हुए भारत ने अब उप-क्षेत्रीय समझौतों में शामिल होने का फैसला किया है. साउथ एशिया सब रीजनल इकोनॉमिक को-ऑपरेशन संगठन में भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका शामिल हैं. इसी तरह बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (बिमस्टेक) में भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका के अलावा म्यांमार तथा थाईलैंड भी हैं. म्यांमार से होकर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को जोड़ने वाली दो बड़ी हाइवे परियोजनाएं जापान और चीन की मदद से चलने वाली हैं.
पिछले साल नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया के देशों के लिए जिस उपग्रह की बात की थी उसमें भी पाकिस्तान के अलावा सभी देशों ने दिलचस्पी दिखाई है. काठमांडू में दक्षेस देशों का बिजली का ग्रिड बनाने पर पाकिस्तान सहमत हो गया था, पर कहना मुश्किल है कि वह इसमें उत्साह से हिस्सा लेगा या नहीं. भारत को ऐसी ज्यादातर परियोजनाओं में दक्षेस के बजाय किसी दूसरे फोरम के मार्फत काम करना होगा. तमाम सीमा विवाद के बावजूद चीन इस मामले में भारत के साथ सहयोग करने का बेहद इच्छुक है.
इन रास्तों से होकर यात्रा और व्यापार का इतिहास पुराना है. चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की पिछले साल सितंबर में भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच नाथूला वैकल्पिक मार्ग से यात्रा शुरू किए जाने को लेकर समझौते पर दस्तखत हुए थे. हजारों साल पहले से लेकर पचास के दशक तक ऐसे दर्जनों रास्ते थे, जिनसे होकर साधु-महात्मा, योगी और व्यापारी बिना किसी पासपोर्ट या आज्ञा-पत्रों की औपचारिकता के यात्रा किया करते थे. अब जब वैश्विक अर्थ-व्यवस्था सारी दुनिया को एक करने की कोशिश कर रही है, परम्परागत रास्तों पर फिर से निगाहें जा रहीं हैं.
सन 2003 में अटल बिहारी की चीन यात्रा के दौरान चीन ने सिक्किम में भारत की सम्प्रभुता को स्वीकार किया था. वह एक राजनीतिक सफलता थी साथ ही परम्परागत रास्तों को खोलने की शुरुआत भी. सन 2004 में दोनों देशों ने नाथूला और जेपला नामक दो दर्रों को खोलने का समझौता किया. इन दर्रों से होकर तिब्बत और सिक्किम के बीच सैकड़ों साल से आवागमन चलता था. दोनों देशों ने निश्चय किया कि नाथूला के रास्ते होने वाले परम्परागत व्यापार को फिर से शुरू किया जाए. और 5 जुलाई 2006 से यह रास्ता व्यापार के लिए खोल दिया गया.
नाथूला मार्ग प्राचीन सिल्क रोड या रेशम मार्ग की एक शाखा रहा है. रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक मार्गों का जाल था जिसके ज़रिए एशिया, यूरोप और अफ्रीका जुड़े हुए थे. इसमें सबसे प्रसिद्ध उत्तरी रेशम मार्ग है जो चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप में जाता था और जिस से निकलती एक शाखा भारत की ओर जाती थी. रेशम मार्ग का ज़मीनी हिस्सा साढ़े छह हजार किमी लम्बा था. इसका नाम चीन से आने वाले रेशम पर पड़ा. यह कोई एक रास्ता नहीं था, बल्कि अनेक रास्तों का जाल था.
भारत और चीन के बीच दक्षिण सिल्क रोड भी थी. म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते भारत को चीन से जोड़ने की पहल चीन ने की है. चीन के राष्ट्रपति ने मालदीव, श्रीलंका और भारत की यात्रा के दौरान दक्षिणी चीन सागर और हिंद महासागर को जोड़ने वाले नौवहन सिल्क रोड के विकास पर भी चर्चा की थी. शी ने खास तौर से दक्षिणी सिल्क रोड को पुनर्जीवित करने में अपनी दिलचस्पी दिखाई जिसे बीसीआइएम (बांग्लादेश, चीन, म्यांमार, भारत) कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है. सुरक्षा और राष्ट्रीय हितों को बेशक ध्यान में, पर रास्तों को खोलना हमारे हित में ही होगा. प्रभात खबर में प्रकाशित
आपको पढ़ना हमेशा ही अच्छा और सकारात्मक असर वाला अनुभव पाना होता है प्रमोद जी , बरसों से आपको चुपचाप पढ़ रहा हूँ आपके इस ब्लॉग के शुरूआती दिन से ही !
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