रक्षामंत्री
मनोहर पर्रिकर का कहना है कि भारत ने पिछले 40-50 साल से कोई युद्ध नहीं लड़ा,
इसलिए देश ने सेना की सुध लेना कम कर दिया है। पर्रिकर ने साथ ही यह बात भी साफ की
कि मैं यह नहीं कहना चाहता कि देश को युद्ध करना चाहिए। जयपुर में हुई गोष्ठी में उन्होंने
कहा, "शांति के समय लोगों का फौज
के प्रति सम्मान कम हो जाता है जिसके कारण सैनिकों को परेशानियों का सामना करना
पड़ता है। अफसरों की दो पीढ़ियां तो बिना कोई युद्ध देखे रिटायर हो गईं। उन्होंने
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,"अपनी सेना का
सम्मान न करने वाला देश कभी आगे नहीं बढ़ सकता।... मैंने रक्षा से जुड़े मुद्दों
पर कई मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखे। कुछ ने जवाब दिया, जबकि कुछ ने कोई
प्रतिक्रिया नहीं दी।”
पर्रिकर अपनी
चुटीली टिप्पणियों के लिए विख्यात हैं। हाल में आतंकवाद के काँटे को काँटे से
निकालने की बात कहकर वे विवाद में फँस चुके हैं। उनकी इस बात पर कुछ लोगों को लगा
कि यह युद्धोन्माद है, गोकि उन्होंने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया कि उनका आशय यह
नहीं है। पर्रिकर मोदी सरकार के सबसे कुशल मंत्रियों में गिने जाते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने देश की विदेश नीति के साथ-साथ जिस विषय पर सबसे ज्यादा ध्यान
दिया है वह है राष्ट्रीय सुरक्षा का। ऐसे में देश का रक्षामंत्री यह बात कह रहा है
तब इसका मतलब क्या निकाला जाए? क्या वे राजनीति प्रणाली को लेकर शिकायत कर रहे हैं? या अपने नागरिक समाज पर
टिप्पणी कर रहे हैं? या देश की प्रशासनिक व्यवस्था की शिकायत कर रहे हैं?
मोदी सरकार से
देश की सेना और पूर्व सैनिकों ने कुछ उम्मीदें पाल रखीं थीं। सन 2013 में जब मोदी
को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया गया तब और फिर पिछले साल चुनाव जीतने के
बाद उन्होंने रेवाड़ी में पूर्व सैनिकों की रैली की थी। रेवाड़ी रैली के बाद पहली
बार ऐसा लगा कि सैनिकों के रोष का राजनीतिकरण हो रहा है। उत्तर भारत के ग्रामीण
समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पूर्व सैनिकों से जुड़ा है। देश में तकरीबन 25 से 30
लाख पूर्व सैनिक और पूर्व सैनिकों की विधवाएं हैं। ये सैनिक पेंशन लेकर अपना जीवन
चला रहे हैं। अनुशासित, प्रशिक्षित और राष्ट्रीय सुरक्षा को समर्पित इन सैनिकों की
हमारे सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। इनके परिवार और मित्रों की संख्या
को जोड़ लें तो इनसे प्रभावित लोगों की तादाद करोड़ों में पहुँचती है। लोक-जीवन
में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वे जनमत बनाते हैं और समाज को क्रियाशील भी। एक
माने में हमारे समाज की रीढ़ हैं।
रक्षामंत्री की
यह बात उस मौके पर आई है जब भूतपूर्व सैनिक अपनी माँगों को लेकर आंदोलन कर रहे
हैं। हालांकि लगता है कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही सरकार ‘एक रैंक, एक पेंशन’ सिद्धांत को लागू कर
देगी। पर सच यह है कि व्यवस्था को लेकर सामान्य सैनिक से लेकर पूर्व जनरल तक को शिकायत है। इंडियन
एक्स सर्विसमैन मूवमेंट के मीडिया सलाहकार कर्नल (सेनि) अनिल कौल का कहना है कि प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने पूर्व सैनिकों की सितंबर 2013 में रेवाड़ी की रैली में वादा किया था कि सरकार बनने पर वन
रैंक, वन पेंशन योजना शुरू की
जाएगी, लेकिन एक साल बाद भी इसे
लागू नहीं किया गया है। अब सैनिकों ने आंदोलन शुरू कर दिया है। उन्होंने राष्ट्रपति
प्रणब मुखर्जी से मिलने का समय मांगा गया है। उन्हें योजना को लागू करने को ज्ञापन
सौंपा जाएगा।’
आप गौर से
देखेंगे तो यह शिकायत केवल पेंशन तक सीमित नहीं है। फिलहाल ‘एक रैंक, एक पेंशन’ इस आंदोलन का ट्रिगर
पॉइंट है, पर शिकायत इससे ज्यादा बड़े मसलों को लेकर है। पर पहले यह समझ लें कि ‘वन रैंक, वन पेंशन’ का मसला है क्या। मोटे
तौर पर इसका मतलब है कि एक ही पद और सेवावधि पर रिटायर होने वाले सैनिक की पेंशन
बराबर होगी। अभी उनके रिटायरमेंट की तारीख से पेंशन की राशि तय होती है। चूंकि हर
दस साल बाद नए वेतनमान लागू होते हैं, इसलिए पहले रिटायर होने वालों की पेंशन बाद
में रिटायर होने वालों से कम हो जाती है, भले ही उनका रैंक और सेवावधि समान रही
हो।
इस योजना को लागू
कराने के लिए पूर्व सैनिक 1973 से प्रयास कर
रहे हैं। सन 1971 तक पेंशन के नियम अलग थे। अधिकारियों और सैनिकों को अलग-अलग फॉर्मूलों से
पेंशन मिलती थी। इसके बाद तीसरे वेतन आयोग के नियम लागू हुए जिनके कारण जवान की
पेंशन कम हो गई। इतना ही नहीं सैनिक और नागरिक अधिकारियों के वेतन की विसंगति भी
सामने आईं। पुराने सैनिकों और नए सैनिकों की पेंशन का अंतर बढ़ने लगा। नए कर्नल की
पेंशन, पुराने मेजर जनरल से ज्यादा होने लगी। सैनिकों ने अपनी माँगों को आगे
बढ़ाने के लिए सन 2008 में इंडियन
सर्विसमैन मूवमेंट की स्थापना की। सन 2009 में फौजियों ने क्रमिक भूख हड़ताल के साथ राष्ट्रपति भवन
तक मार्च करते हुए राष्ट्रपति को हजारों मेडल वापस करने का आंदोलन चलाया था। डेढ़
लाख पूर्व सैनिकों के खून से हस्ताक्षरित एक ज्ञापन भी राष्ट्रपति को सौंपा था गया था।
बहरहाल लम्बे आंदोलन के बाद पिछली यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों
में सैद्धांतिक रूप से इस माँग को स्वीकार कर लिया। शायद इस घोषणा के पीछे वह दबाव
था, जो मोदी की रेवाड़ी रैली के कारण पैदा हो गया था।
इस घोषणा के बाद
वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने अपने अंतिम बजट में इस कार्य के लिए मामूली सी राशि का
आबंटन करके इसे लागू करने का कम मोदी सरकार पर छोड़ दिया। मोदी सरकार के दो बजटों
में भी इसकी ओर खास ध्यान नहीं दिया गया। इससे सैनिकों की नाराज़गी बढ़ी। दूसरी ओर
कांग्रेस ने इस बात को लेकर भाजपा सरकार पर फब्तियाँ कसनी शुरू कर दीं। प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ने रेडियो पर ‘मन की बात’ कार्यक्रम में स्वीकार किया कि ‘वन रैंक
वन पेंशन’ योजना लागू करने में दिक्कत आ रहीं हैं, पर हम इसे लागू करेंगे। अप्रैल
में रक्षामंत्री ने कहा कि सरकार ने औपचारिकता पूरी कर ली हैं, बस अब जल्द ही
योजना लागू हो जाएगी। और अब लगता है कि बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव के
पहले यह योजना लागू हो जाएगी।
सम्भावना है कि
इसके लागू होने का साल 2014-15 होगा, जिसके लिए सरकार को तकरीबन नौ हजार करोड़
रुपए की अतिरिक्त धनराशि की व्यवस्था करनी होगी। फौजियों के लिए इस योजना की माँग
के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि सैनिकों का बहुत बड़ा हिस्सा 33 से 40 साल की उम्र
में रिटायर हो जाता है। उनके जीवन निर्वाह में बाधा न आए, इसके लिए उनकी पेंशन को
सिविल पेंशन की तरह नहीं देखा जा सकता।
सरकार को अंदेशा
है कि फौजियों के लिए यह नियम मान लेने के बाद असैनिक केंद्रीय कर्मचारियों के लिए
भी यह माँग उठ खड़ी होगी और अंततः यह सवाल राज्यों तक जाएगा। केंद्र सरकार के
सामने अगले वेतन आयोग को लागू करने की चुनौती भी है। इसके कारण मुद्रास्फीति बढ़ने
की आशंकाएं अलग से हैं। इन सब चुनौतियों का सामना करते हुए सरकार फौजियों की बात
मान लेगी, पर सवाल है कि ऐसी स्थिति क्यों आई कि फौजियों को सड़क पर आना पड़ा? हमारी रक्षा-प्रणाली को
लेकर कुछ बुनियादी सवालों के जवाब खोजे जाने चाहिए। रक्षामंत्री ने जिस ‘सम्मान’ का जिक्र किया है, उसे
भी समझने की जरूरत है। क्या हम सेना का सम्मान करने में फेल हो रहे हैं?
पूर्व नौसेना
अध्यक्ष एडमिरल अरुण प्रकाश ने एक जगह लिखा है, “पिछले पाँच-छह साल में राजनीतिज्ञों के
उपेक्षाभाव और पूर्व सैनिकों, शहीदों की विधवाओं और हताहत फौजियों की पेंशन और
भत्तों को लेकर रक्षा मंत्रालय की नौकरशाही के आक्रामक तेवरों के कारण वे राजनीति
की और धकेल दिए गए। उन्हें अदालतों के दरवाजे खटखटाने पड़े और वे इस बात से सन्न
रह गए कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला होने के बाद भी रक्षा मंत्रालय ने उसे लागू करने
से इंकार कर दिया।” एडमिरल अरुण प्रकाश ने यह भी लिखा है, “दुनियाभर में सैनिक
मुख्यालय शासन का अंग होते हैं, केवल भारत में उन्हें (सरकार के पास विचारार्थ
रिपोर्ट पेश करने वाली) बाहरी संस्था माना जाता है।...उन्हें सरकारी संरचना का
हिस्सा बनाया जाना चाहिए।” शायद सेना और नागरिक प्रशासन के रिश्तों पर हमने उतना
ध्यान नहीं दिया है, जितना देना चाहिए।
वन रैंक वन पेंशन का मुद्दा थोडा पेचीदा इसलिए भी है... क्यूंकि सरकार को हर तबके से वन रैंक वन पेंशन कि मांग उठाने का डर हैं...
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