स्वभाव से जिज्ञासु और विज्ञानोन्मुखी आशुतोष उपाध्याय ऐसे लेखन पर नजर रखते हैं जो जानकारी के किसी नए दरवाजे को खोलता हो और विश्वसनीय भी हो. मैने इसके महले भी उनके अनूदित लेख अपने ब्लॉग पर डाले हैं। उन्होंने हाल में यह लेख भेजा है. इसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि मनुष्य में भाषा क्षमता के जन्म के बारे में एक विद्वान के कुछ दिन पूर्व प्रकाशित एक हैरतअंगेज लेख ने मुझे प्रेरित किया कि इस विषय पर हिंदी में कुछ तथ्यात्मक व विज्ञान सम्मत सामग्री जुटाई जाय. इस सिलसिले में भाषाविज्ञानी रे जैकेनडौफ के एक शुरुआती आलेख का अनुवाद आप सब के साथ शेयर कर रहा हूं. पसंद आये तो अन्य मित्रों तक भी पहुंचाएं.
कैसे शुरू हुई भाषा?
रे जैकेनडौफ
इस सवाल का मतलब क्या है? मनुष्य में भाषा सामर्थ्य के जन्म के बारे में पूछते हुए, सबसे पहले हमें यह स्पष्ट करना होगा कि असल में हम जानना क्या चाहते हैं? सवाल यह नहीं कि किस तरह तमाम भाषाएं समय के साथ क्रमशः विकसित होकर वर्तमान वैश्विक मुकाम तक पहुंचीं. बल्कि इस सवाल का आशय है कि किस तरह सिर्फ मनुष्य प्रजाति, न कि चिम्पैंजी और बोनोबो जैसे इसके सबसे करीबी रिश्तेदार, काल क्रम में विकसित होकर भाषा का उपयोग करने के काबिल बने.
और क्या विलक्षण विकास था यह! मानव भाषा की बराबरी कोई दूसरा प्राकृतिक संवाद तंत्र नहीं कर सकता. हमारी भाषा अनगिनत विषयों (जैसे- मौसम, युद्ध, अतीत, भविष्य, गणित, गप्प, परीकथा, सिंक कैसे ठीक करें... आदि) पर विचारों को व्यक्त कर सकती है. इसे न केवल सूचना के सम्प्रेषण के लिए, बल्कि सूचना मांगने (प्रश्न करने) और आदेश देने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. अन्य जानवरों के तमाम संवाद तंत्रों के विपरीत, मानव भाषा में नकारात्मक अभिव्यक्तियां भी होती हैं यानी हम मना कर सकते हैं. हर इंसानी भाषा में चंद दर्जन वाक् ध्वनियों से निर्मित दसियों हजार शब्द होते हैं. इन शब्दों की मदद से वक्ता अनगिनत वाक्यांश और वाक्य गढ़ सकते हैं. इन शब्दों के अर्थों की बुनियाद पर वाक्यों के अर्थ खड़े किए जाते हैं. इससे भी विलक्षण बात यह है कि कोई भी सामान्य बच्चा दूसरों की बातें सुनकर भाषा के समूचे तंत्र को सीख जाता है.
इंसानी भाषा के विपरीत जानवरों के संवाद तंत्र में मात्र कुछ दर्जन अलग-अलग ध्वनियां होती हैं. और इन ध्वनियों को ये केवल भोजन, धमकी, खतरा या समझौते जैसे फौरी मुद्दों को प्रकट करने के लिए कर सकते हैं. चिम्पांजियों के संवाद में कुछ इस तरह के संकेत भी होते हैं जिन्हें हम 'बॉडी लेंगुएज' के रूप में प्रकट करते हैं. कई जानवर संवाद के लिए मिश्रित ध्वनियों का प्रयोग करते हैं (जैसे सोंगबर्ड या ह्वेल), लेकिन ऐसे मामलों में मिश्रित ध्वनियों का सांकेतिक अर्थ अलग-अलग ध्वनियों के अर्थों से निर्मित नहीं होता है (हालांकि अब भी कई प्रजातियों का अध्ययन होना अभी बाकी है). इसके अलावा वानरों को इंसानी भाषा सिखाने के सारे प्रयास, दिलचस्प होने के बावजूद बेहद ममूली नतीजे ही दे पाए. इसलिए यह कहा जा सकता है कि प्रकृति के संसार में मानव भाषा की खूबियां अद्वितीय हैं.
वहां से वहां तक हम कैसे पहुंचे? आज समस्त भाषाओं, यहां तक कि शिकारी संग्राहकों तक की भाषा में बहुत सारे शब्द हैं, जिनकी मदद से किसी भी चीज के बारे में बात की जा सकती है या नकारा जा सकता है. अगर हम इतिहास में पीछे मुड़कर देखें तो लगभग 5000 वर्षों से इंसानी भाषा के लिखित साक्ष्य मिलते हैं. चीजें लगभग वैसी ही दिखाई देती हैं जैसी आज हैं. समय के साथ भाषाएं बदलती हैं, कभी संस्कृति या फैशन में परिवर्तन से, तो कभी अन्य भाषाओं के संपर्क में आने से. लेकिन भाषा का बुनियादी ढांचा और अभिव्यक्ति की क्षमता बरकरार रहती है.
तब यह सवाल उठता है कि इंसानी भाषा के इन गुणों की शुरुआत कैसे हुई होगी. जाहिर है ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि गुफा मानवों के एक झुण्ड ने बैठकर एक दिन भाषा गढ़ दी हो, क्योंकि ऐसा करने के लिए भी शुरू में उनके पास कोई न कोई भाषा होनी चाहिए! अपने सहजबोध से कोई कह सकता है कि कराहने, चिल्लाने और रोने वाले आदिमानवों ने 'धीमे-धीमे' और 'किसी तरह' बोलने की वह तरकीब खोज ली होगी जिसे आज हम भाषा कहते हैं. (भाषा के जन्म को लेकर इस तरह की तुक्केबाजी करीब डेढ़ सदी पहले इतनी ज्यादा होने लगी कि 1866 में फ्रेंच अकादमी ने भाषा की उत्पत्ति सम्बन्धी शोधपत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया!) असल में समस्या 'धीमे-धीमे' और 'किसी तरह' को लेकर है. चिम्पैंजी भी कराहते, चिल्लाते और रोते हैं. 60 लाख साल पहले जब आदिमानव और चिम्पैंजियों की शाखाएं अलग हुईं तो हमारे पुरखों के साथ ऐसा क्या हुआ कि वे बोलने लगे? कब और कैसे इंसानी पुरखों ने इस तरह संवाद करना शुरू किया जिन्हें हम आज आधुनिक भाषाओं की चारित्रिक विशेषताएं कहते हैं?
बेशक भाषा के अलावा कई और बातें मनुष्य को चिम्पैंजी से अलग करती हैं: हमारे शरीर का निचला भाग सीधे खड़े होने और दौड़ने के लिए आदर्श है, हमारे अंगूठे मुड़ सकते हैं, शरीर में बाल कम हैं, मांसपेशियां कमजोर हैं, दांत छोटे हैं- और मस्तिष्क बड़ा है. वर्तमान मान्यताओं के मुताबिक भाषा के लिए ज़रूरी बदलाव मस्तिष्क के बड़े आकार में ही नहीं, बल्कि इसकी विशेषताओं में निहित है. जिस तरह के काम के लिए यह बना, वैसा 'सॉफ्टवेयर' इसमें पड़ा रहता है. इसलिए भाषा की शुरुआत का सवाल मनुष्य और चिम्पैंजी के मस्तिष्क की बनावट के अंतर से जुड़ता है. किन विकासवादी दबावों के चलते कब और कैसे ये अंतर अस्तित्व में आये होंगे?
हम ढूंढ क्या रहे हैं?
भाषा के विकास के अध्ययन में बुनियादी कठिनाई इससे सम्बंधित प्रमाणों के अभाव के कारण आती है. वाचिक भाषाएं जीवाश्म नहीं छोड़तीं और जीवाश्म खोपड़ी सिर्फ आदिमानव के मस्तिष्क के आकार-प्रकार का ही अंदाजा दे पाती है. वह मस्तिष्क क्या-क्या कर पाता था, यह इससे पता नहीं लगता. निश्चित तौर पर कुछ कह पाने लायक प्रमाण हमें स्वर तंत्र (मुंह, जीभ और गले) के आकार से मिलते हैं. एक लाख वर्ष पूर्व आधुनिक मनुष्य के आगमन से पहले आदि मानव का स्वर तंत्र वाक् ध्वनियों की आधुनिक शृंखला की इजाजत नहीं देता. लेकिन इस बात का कतई यह मतलब नहीं कि ठीक इसी वक्त भाषा विकसित हुई होगी. इससे पहले के आदि मानव भी भाषा जैसी किसी न किसी संवाद शैली का इस्तेमाल करते होंगे जिसमें सीमित संख्या में व्यंजन व स्वर रहे होंगे और स्वर तंत्र में बदलाव ने केवल वाक् क्षमता को ज्यादा तेज व अर्थपूर्ण बनाया होगा. कुछ शोधकर्ता सुझाते हैं कि भाषा पहले सांकेतिक रूप में विकसित हुई होगी और फिर (धीरे-धीरे या एकाएक) वाक् रूप में तब्दील हो गयी होगी. बोलते समय आज भी हम जो इशारे करते हैं, वे हमारे पूर्वजों की संकेत भाषा के भग्नावशेष हैं.
ये और ऐसे ही कई और मुद्दे आज भाषाविदों, मनोवैज्ञानिकों और जीवविज्ञानियों के बीच जीवंत शोध का विषय बने हुए हैं. एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मानव भाषा की पूर्ववर्ती भाषिक क्षमताएं किस हद तक जानवरों में पाई जाती हैं. उदाहरण के लिए, वानरों की विचार क्षमता किस हद तक हमारे जैसी है? क्या उनके पास ऐसी चीजें हैं जिन्हें आदि मानव परस्पर बातचीत में उपयोगी समझते थे? इस बात पर काफी हद तक सहमति है कि वानरों की स्थानिक क्षमताएं और अपने सामाजिक परिवेश से निपटने की क्षमता वह आधार प्रदान कर सकती हैं जिस पर मनुष्य का अवधारणा निर्माण का तंत्र खड़ा है.
एक मिलता जुलता सवाल यह है कि भाषा के कौन से पहलू सिर्फ भाषा से सम्बंधित है और कौन से उन दूसरी मानव क्षमताओं से जुड़े हैं, जो अन्य प्राईमेटों में नहीं पाई जातीं. यह मुद्दा खास तौर पर विवादास्पद है. कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि भाषा का हर पहलू अन्य मानव दक्षताओं के ऊपर खड़ा है- जैसे, आवाज की नकल करने की क्षमता, बड़ी मात्रा में सूचनाओं को याद करने की क्षमता (शब्दों को याद रखने में दोनों की जरूरत पड़ती है), संवाद की इच्छा, दूसरे के इरादों और विश्वासों की समझ, और सहयोग करने की क्षमता. ताजा शोध बताते हैं कि मनुष्यों की ये क्षमताएं वानरों में या तो अनुपस्थित रहती हैं या बहुत कम विकसित होती हैं. अन्य शोधकर्ता इन कारकों के महत्व को स्वीकारते हुए तर्क देते हैं कि आदिमानव मस्तिष्क में कुछ आवश्यक बदलाव हुए होंगे, जिन्होंने उसे भाषिक क्षमता के लिए अनुकूलित किया.
क्या यह एक बार में हुआ या धीरे-धीरे?
ये बदलाव किस तरह आये? कुछ शोधकर्ता दावा करते हैं कि ये एक झटके में पैदा हुए. एक म्यूटेशन ने मस्तिष्क में पूरा का पूरा वह तंत्र खड़ा कर दिया जिसके जरिये मनुष्य ध्वनियों के समूहों की मदद से जटिल अर्थों को प्रकट करता है. इन शोधकर्ताओं का यह भी तर्क है कि भाषा के कुछ पहलू ऐसे भी हैं जो पूर्ववर्ती प्राणियों में नहीं पाए जाते.
अन्य शोधकर्ताओं की मान्यता है कि भाषा से जुड़े विशिष्ट गुण लाखों वर्षों के कालक्रम में आदिमानवों की कई प्रजातियों से गुजरते हुए संभवतः अनेक स्तरों में विकसित हुए होंगे. शुरूआती दौर में, परिवेश में मौजूद वस्तुओं और क्रियाओं की विविध किस्मों को नाम देने के लिए अलग-अलग तरह की ध्वनियों का इस्तेमाल किया गया होगा. इसके अलावा नई चीजों के बारे में बताने के लिए लोग नई ध्वनियों के रूप में नई शब्दावलियां गढ़ते होंगे. बहुत बड़े शब्द भण्डार के निर्माण के लिए एक ज़रूरी अग्रगामी कदम रहा होगा ध्वनि संकेतों के 'डिजिटलीकरण' की क्षमता, जिस कारण बेतरतीब आवाजों के स्थान पर इन्हें अलग-अलग वाक् ध्वनियों- व्यंजनों व स्वरों- में सूचीबद्ध कर पाना संभव हुआ. इसके लिए उन तौर-तरीकों में बदलाव की ज़रूरत पड़ी होगी, जिनसे मस्तिष्क स्वर तंत्र को नियंत्रित करता है और शायद श्रव्य संकेतों का अर्थ निकालता है (हालांकि यह बात भी खासी विवादास्पद है).
इन दो परिवर्तनों ने इकलौते संकेतों वाले संवाद तंत्र की बुनियाद रखी होगी- जो चिपेंजियों के तंत्र से तो बेहतर होगा लेकिन आधुनिक भाषा से काफी पीछे रहा होगा. अगला मुमकिन चरण रहा होगा वह क्षमता हासिल करना ताकि ऐसे कई 'शब्दों' को गूंथकर एक सन्देश तैयार किया जा सके, जिसके टुकड़ों का कोई अर्थ न हो. यह अब भी आधुनिक भाषा की जटिलता से कोसों दूर होगा. ये सन्देश "मैं टारजन, तुम जेन" जैसे वाक्यांश हो सकते हैं, जो एक शब्द वाली अभिव्यक्तियों से थोड़ा बेहतर हैं. असल में हम ऐसी 'प्राक भाषा' क्षमता दो साल के बच्चे में आज भी देख सकते हैं. या किसी विदेशी भाषा को सीखने की शुरुआत में वयस्क इसी तरह से खुद को अभिव्यक्त करते हैं. या फिर अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले लोग आपसी कारोबार या किसी और सहयोग के लिए संवाद की खातिर कुछ शब्दों या वाक्यांशों को गढ़ लेते हैं. इन दलीलों के आधार पर कुछ शोधकर्ता यह कहते हैं कि 'प्राक-भाषा' का तंत्र आधुनिक मानव मस्तिष्क में आज भी मौजूद है. यह आधुनिक संवाद तंत्र के नीचे छुपा रहता है और तब सक्रिय होता है जब आधुनिक तंत्र काम नहीं कर रहा हो या फिर अविकसित हो.
एक अंतिम बदलाव या बदलावों की शृंखला ने 'प्राक भाषा' को और समृद्ध किया होगा ताकि यह बहुवचन, काल, तुलनात्मकता और पूरकता (जो सोचता है कि धरती सपाट है) जैसी व्याकरणसम्मत प्रविधियों को इस्तेमाल कर सके. तथापि, कुछ लोग मानते हैं कि यह विकास शुद्ध रूप से सांस्कृतिक है और कुछ इसके लिए बोलने वाले के मस्तिष्क में कतिपय आनुवांशिक बदलाव आवश्यक बताते हैं. इस पर अब तक कोई अंतिम फैसला नहीं किया जा सका है.
ये तमाम बातें कब हुईं? पुनः इसका जवाब देना बहुत मुश्किल है. हम यह जानते हैं कि मनुष्य की विकास यात्रा में 1,00,000 से 50,000 वर्ष पूर्व कुछ महत्वपूर्ण घटना घटी थी: यह वह समय है जब हमें कला और कर्मकांड में इस्तेमाल होने वाली वस्तुएं या प्रमाण मिलते हैं. इन्हें हम सभ्यता से जोड़ते हैं. एस मोड़ पर मनुष्य प्रजाति में क्या बदलाव आये होंगे? क्या वे पहले से ज्यादा चतुर हो गए (जबकि उनके मस्तिष्क अचानक बड़े नहीं हुए थे)? क्या तब उन्होंने अचानक भाषा का अविष्कार कर लिया? क्या वे भाषा से मिलने वाली बौद्धिक सुविधा का फायदा उठकर ज्यादा चतुर बने (जैसे पीढ़ियों तक वाचिक रूप से इतिहास को संभालने की क्षमता)? क्या यह तब हुआ जब वे भाषा का विकास कर रहे थे, या फिर भाषाविहीनता से आधुनिक भाषा के स्तर पर पहुंच रहे थे या संभवतः 'प्राक-भाषा' की सीढ़ी लांधकर आधुनिक भाषा के पायदान में पहुंच रहे थे? और अगर बाद की बात सही है तो 'प्राक-भाषा' कब पैदा हुई? क्या हमारे चचेरे भाई निएंडरथाल किसी किस्म की 'प्राक-भाषा' बोलते थे? फिलहाल, इन सवालों के जवाब हमारे पास नहीं हैं.
हाल ही में प्रमाणों का एक आकर्षक स्रोत सामने आया है. FOXP2 नाम की एक जीन का पता लगा है जिसमें उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) से बोलने की क्षमता तथा चहरे व मुंह पर नियंत्रण चले जाते हैं. यह वानरों में पाई जाने वाले एक जीन का हल्का सा परिवर्धित संस्करण है, जो अपने वर्तमान स्वरूप में लगभग दो से एक लाख वर्ष पहले अस्तित्व में आया. यह देखते हुए FOXP2 को 'भाषा जीन' कहने को जी ललचाता है, लेकिन लगभग हर कोई इस किस्म के अतिसरलीकरण से बचना चाहेगा. क्या इस उत्परिवर्तन से प्रभावित व्यक्ति वास्तव में भाषाविहीन हो जाते हैं या उन्हें सिर्फ बोलने में दिक्कत होती है? इन सब से ऊपर, तंत्रिका विज्ञान में खासी बढ़त के बावजूद हम अब तक इस बाबत बहुत कम जानते हैं कि जीन किस तरह मस्तिष्क की वृद्धि व ढाँचे को निर्धारित करती हैं या मस्तिष्क का ढांचा किस तरह भाषा के इस्तेमाल की क्षमता को तय करता है. तथापि, अगर हम इस बारे में और जानना चाहते हैं कि मनुष्य की भाषा क्षमता किस तरह विकसित हुई तो हमें सबसे भरोसेमंद प्रमाण शायद मानव जीनोम से ही मिलेंगे, जिनमें हमारी प्रजाति के इतिहास की समूची कहानी दर्ज है. असल चुनौती इस कहानी को पढ़ पाने की है.
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)
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कैसे शुरू हुई भाषा?
रे जैकेनडौफ
इस सवाल का मतलब क्या है? मनुष्य में भाषा सामर्थ्य के जन्म के बारे में पूछते हुए, सबसे पहले हमें यह स्पष्ट करना होगा कि असल में हम जानना क्या चाहते हैं? सवाल यह नहीं कि किस तरह तमाम भाषाएं समय के साथ क्रमशः विकसित होकर वर्तमान वैश्विक मुकाम तक पहुंचीं. बल्कि इस सवाल का आशय है कि किस तरह सिर्फ मनुष्य प्रजाति, न कि चिम्पैंजी और बोनोबो जैसे इसके सबसे करीबी रिश्तेदार, काल क्रम में विकसित होकर भाषा का उपयोग करने के काबिल बने.
और क्या विलक्षण विकास था यह! मानव भाषा की बराबरी कोई दूसरा प्राकृतिक संवाद तंत्र नहीं कर सकता. हमारी भाषा अनगिनत विषयों (जैसे- मौसम, युद्ध, अतीत, भविष्य, गणित, गप्प, परीकथा, सिंक कैसे ठीक करें... आदि) पर विचारों को व्यक्त कर सकती है. इसे न केवल सूचना के सम्प्रेषण के लिए, बल्कि सूचना मांगने (प्रश्न करने) और आदेश देने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. अन्य जानवरों के तमाम संवाद तंत्रों के विपरीत, मानव भाषा में नकारात्मक अभिव्यक्तियां भी होती हैं यानी हम मना कर सकते हैं. हर इंसानी भाषा में चंद दर्जन वाक् ध्वनियों से निर्मित दसियों हजार शब्द होते हैं. इन शब्दों की मदद से वक्ता अनगिनत वाक्यांश और वाक्य गढ़ सकते हैं. इन शब्दों के अर्थों की बुनियाद पर वाक्यों के अर्थ खड़े किए जाते हैं. इससे भी विलक्षण बात यह है कि कोई भी सामान्य बच्चा दूसरों की बातें सुनकर भाषा के समूचे तंत्र को सीख जाता है.
इंसानी भाषा के विपरीत जानवरों के संवाद तंत्र में मात्र कुछ दर्जन अलग-अलग ध्वनियां होती हैं. और इन ध्वनियों को ये केवल भोजन, धमकी, खतरा या समझौते जैसे फौरी मुद्दों को प्रकट करने के लिए कर सकते हैं. चिम्पांजियों के संवाद में कुछ इस तरह के संकेत भी होते हैं जिन्हें हम 'बॉडी लेंगुएज' के रूप में प्रकट करते हैं. कई जानवर संवाद के लिए मिश्रित ध्वनियों का प्रयोग करते हैं (जैसे सोंगबर्ड या ह्वेल), लेकिन ऐसे मामलों में मिश्रित ध्वनियों का सांकेतिक अर्थ अलग-अलग ध्वनियों के अर्थों से निर्मित नहीं होता है (हालांकि अब भी कई प्रजातियों का अध्ययन होना अभी बाकी है). इसके अलावा वानरों को इंसानी भाषा सिखाने के सारे प्रयास, दिलचस्प होने के बावजूद बेहद ममूली नतीजे ही दे पाए. इसलिए यह कहा जा सकता है कि प्रकृति के संसार में मानव भाषा की खूबियां अद्वितीय हैं.
वहां से वहां तक हम कैसे पहुंचे? आज समस्त भाषाओं, यहां तक कि शिकारी संग्राहकों तक की भाषा में बहुत सारे शब्द हैं, जिनकी मदद से किसी भी चीज के बारे में बात की जा सकती है या नकारा जा सकता है. अगर हम इतिहास में पीछे मुड़कर देखें तो लगभग 5000 वर्षों से इंसानी भाषा के लिखित साक्ष्य मिलते हैं. चीजें लगभग वैसी ही दिखाई देती हैं जैसी आज हैं. समय के साथ भाषाएं बदलती हैं, कभी संस्कृति या फैशन में परिवर्तन से, तो कभी अन्य भाषाओं के संपर्क में आने से. लेकिन भाषा का बुनियादी ढांचा और अभिव्यक्ति की क्षमता बरकरार रहती है.
तब यह सवाल उठता है कि इंसानी भाषा के इन गुणों की शुरुआत कैसे हुई होगी. जाहिर है ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि गुफा मानवों के एक झुण्ड ने बैठकर एक दिन भाषा गढ़ दी हो, क्योंकि ऐसा करने के लिए भी शुरू में उनके पास कोई न कोई भाषा होनी चाहिए! अपने सहजबोध से कोई कह सकता है कि कराहने, चिल्लाने और रोने वाले आदिमानवों ने 'धीमे-धीमे' और 'किसी तरह' बोलने की वह तरकीब खोज ली होगी जिसे आज हम भाषा कहते हैं. (भाषा के जन्म को लेकर इस तरह की तुक्केबाजी करीब डेढ़ सदी पहले इतनी ज्यादा होने लगी कि 1866 में फ्रेंच अकादमी ने भाषा की उत्पत्ति सम्बन्धी शोधपत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया!) असल में समस्या 'धीमे-धीमे' और 'किसी तरह' को लेकर है. चिम्पैंजी भी कराहते, चिल्लाते और रोते हैं. 60 लाख साल पहले जब आदिमानव और चिम्पैंजियों की शाखाएं अलग हुईं तो हमारे पुरखों के साथ ऐसा क्या हुआ कि वे बोलने लगे? कब और कैसे इंसानी पुरखों ने इस तरह संवाद करना शुरू किया जिन्हें हम आज आधुनिक भाषाओं की चारित्रिक विशेषताएं कहते हैं?
बेशक भाषा के अलावा कई और बातें मनुष्य को चिम्पैंजी से अलग करती हैं: हमारे शरीर का निचला भाग सीधे खड़े होने और दौड़ने के लिए आदर्श है, हमारे अंगूठे मुड़ सकते हैं, शरीर में बाल कम हैं, मांसपेशियां कमजोर हैं, दांत छोटे हैं- और मस्तिष्क बड़ा है. वर्तमान मान्यताओं के मुताबिक भाषा के लिए ज़रूरी बदलाव मस्तिष्क के बड़े आकार में ही नहीं, बल्कि इसकी विशेषताओं में निहित है. जिस तरह के काम के लिए यह बना, वैसा 'सॉफ्टवेयर' इसमें पड़ा रहता है. इसलिए भाषा की शुरुआत का सवाल मनुष्य और चिम्पैंजी के मस्तिष्क की बनावट के अंतर से जुड़ता है. किन विकासवादी दबावों के चलते कब और कैसे ये अंतर अस्तित्व में आये होंगे?
हम ढूंढ क्या रहे हैं?
भाषा के विकास के अध्ययन में बुनियादी कठिनाई इससे सम्बंधित प्रमाणों के अभाव के कारण आती है. वाचिक भाषाएं जीवाश्म नहीं छोड़तीं और जीवाश्म खोपड़ी सिर्फ आदिमानव के मस्तिष्क के आकार-प्रकार का ही अंदाजा दे पाती है. वह मस्तिष्क क्या-क्या कर पाता था, यह इससे पता नहीं लगता. निश्चित तौर पर कुछ कह पाने लायक प्रमाण हमें स्वर तंत्र (मुंह, जीभ और गले) के आकार से मिलते हैं. एक लाख वर्ष पूर्व आधुनिक मनुष्य के आगमन से पहले आदि मानव का स्वर तंत्र वाक् ध्वनियों की आधुनिक शृंखला की इजाजत नहीं देता. लेकिन इस बात का कतई यह मतलब नहीं कि ठीक इसी वक्त भाषा विकसित हुई होगी. इससे पहले के आदि मानव भी भाषा जैसी किसी न किसी संवाद शैली का इस्तेमाल करते होंगे जिसमें सीमित संख्या में व्यंजन व स्वर रहे होंगे और स्वर तंत्र में बदलाव ने केवल वाक् क्षमता को ज्यादा तेज व अर्थपूर्ण बनाया होगा. कुछ शोधकर्ता सुझाते हैं कि भाषा पहले सांकेतिक रूप में विकसित हुई होगी और फिर (धीरे-धीरे या एकाएक) वाक् रूप में तब्दील हो गयी होगी. बोलते समय आज भी हम जो इशारे करते हैं, वे हमारे पूर्वजों की संकेत भाषा के भग्नावशेष हैं.
ये और ऐसे ही कई और मुद्दे आज भाषाविदों, मनोवैज्ञानिकों और जीवविज्ञानियों के बीच जीवंत शोध का विषय बने हुए हैं. एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मानव भाषा की पूर्ववर्ती भाषिक क्षमताएं किस हद तक जानवरों में पाई जाती हैं. उदाहरण के लिए, वानरों की विचार क्षमता किस हद तक हमारे जैसी है? क्या उनके पास ऐसी चीजें हैं जिन्हें आदि मानव परस्पर बातचीत में उपयोगी समझते थे? इस बात पर काफी हद तक सहमति है कि वानरों की स्थानिक क्षमताएं और अपने सामाजिक परिवेश से निपटने की क्षमता वह आधार प्रदान कर सकती हैं जिस पर मनुष्य का अवधारणा निर्माण का तंत्र खड़ा है.
एक मिलता जुलता सवाल यह है कि भाषा के कौन से पहलू सिर्फ भाषा से सम्बंधित है और कौन से उन दूसरी मानव क्षमताओं से जुड़े हैं, जो अन्य प्राईमेटों में नहीं पाई जातीं. यह मुद्दा खास तौर पर विवादास्पद है. कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि भाषा का हर पहलू अन्य मानव दक्षताओं के ऊपर खड़ा है- जैसे, आवाज की नकल करने की क्षमता, बड़ी मात्रा में सूचनाओं को याद करने की क्षमता (शब्दों को याद रखने में दोनों की जरूरत पड़ती है), संवाद की इच्छा, दूसरे के इरादों और विश्वासों की समझ, और सहयोग करने की क्षमता. ताजा शोध बताते हैं कि मनुष्यों की ये क्षमताएं वानरों में या तो अनुपस्थित रहती हैं या बहुत कम विकसित होती हैं. अन्य शोधकर्ता इन कारकों के महत्व को स्वीकारते हुए तर्क देते हैं कि आदिमानव मस्तिष्क में कुछ आवश्यक बदलाव हुए होंगे, जिन्होंने उसे भाषिक क्षमता के लिए अनुकूलित किया.
क्या यह एक बार में हुआ या धीरे-धीरे?
ये बदलाव किस तरह आये? कुछ शोधकर्ता दावा करते हैं कि ये एक झटके में पैदा हुए. एक म्यूटेशन ने मस्तिष्क में पूरा का पूरा वह तंत्र खड़ा कर दिया जिसके जरिये मनुष्य ध्वनियों के समूहों की मदद से जटिल अर्थों को प्रकट करता है. इन शोधकर्ताओं का यह भी तर्क है कि भाषा के कुछ पहलू ऐसे भी हैं जो पूर्ववर्ती प्राणियों में नहीं पाए जाते.
अन्य शोधकर्ताओं की मान्यता है कि भाषा से जुड़े विशिष्ट गुण लाखों वर्षों के कालक्रम में आदिमानवों की कई प्रजातियों से गुजरते हुए संभवतः अनेक स्तरों में विकसित हुए होंगे. शुरूआती दौर में, परिवेश में मौजूद वस्तुओं और क्रियाओं की विविध किस्मों को नाम देने के लिए अलग-अलग तरह की ध्वनियों का इस्तेमाल किया गया होगा. इसके अलावा नई चीजों के बारे में बताने के लिए लोग नई ध्वनियों के रूप में नई शब्दावलियां गढ़ते होंगे. बहुत बड़े शब्द भण्डार के निर्माण के लिए एक ज़रूरी अग्रगामी कदम रहा होगा ध्वनि संकेतों के 'डिजिटलीकरण' की क्षमता, जिस कारण बेतरतीब आवाजों के स्थान पर इन्हें अलग-अलग वाक् ध्वनियों- व्यंजनों व स्वरों- में सूचीबद्ध कर पाना संभव हुआ. इसके लिए उन तौर-तरीकों में बदलाव की ज़रूरत पड़ी होगी, जिनसे मस्तिष्क स्वर तंत्र को नियंत्रित करता है और शायद श्रव्य संकेतों का अर्थ निकालता है (हालांकि यह बात भी खासी विवादास्पद है).
इन दो परिवर्तनों ने इकलौते संकेतों वाले संवाद तंत्र की बुनियाद रखी होगी- जो चिपेंजियों के तंत्र से तो बेहतर होगा लेकिन आधुनिक भाषा से काफी पीछे रहा होगा. अगला मुमकिन चरण रहा होगा वह क्षमता हासिल करना ताकि ऐसे कई 'शब्दों' को गूंथकर एक सन्देश तैयार किया जा सके, जिसके टुकड़ों का कोई अर्थ न हो. यह अब भी आधुनिक भाषा की जटिलता से कोसों दूर होगा. ये सन्देश "मैं टारजन, तुम जेन" जैसे वाक्यांश हो सकते हैं, जो एक शब्द वाली अभिव्यक्तियों से थोड़ा बेहतर हैं. असल में हम ऐसी 'प्राक भाषा' क्षमता दो साल के बच्चे में आज भी देख सकते हैं. या किसी विदेशी भाषा को सीखने की शुरुआत में वयस्क इसी तरह से खुद को अभिव्यक्त करते हैं. या फिर अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले लोग आपसी कारोबार या किसी और सहयोग के लिए संवाद की खातिर कुछ शब्दों या वाक्यांशों को गढ़ लेते हैं. इन दलीलों के आधार पर कुछ शोधकर्ता यह कहते हैं कि 'प्राक-भाषा' का तंत्र आधुनिक मानव मस्तिष्क में आज भी मौजूद है. यह आधुनिक संवाद तंत्र के नीचे छुपा रहता है और तब सक्रिय होता है जब आधुनिक तंत्र काम नहीं कर रहा हो या फिर अविकसित हो.
एक अंतिम बदलाव या बदलावों की शृंखला ने 'प्राक भाषा' को और समृद्ध किया होगा ताकि यह बहुवचन, काल, तुलनात्मकता और पूरकता (जो सोचता है कि धरती सपाट है) जैसी व्याकरणसम्मत प्रविधियों को इस्तेमाल कर सके. तथापि, कुछ लोग मानते हैं कि यह विकास शुद्ध रूप से सांस्कृतिक है और कुछ इसके लिए बोलने वाले के मस्तिष्क में कतिपय आनुवांशिक बदलाव आवश्यक बताते हैं. इस पर अब तक कोई अंतिम फैसला नहीं किया जा सका है.
ये तमाम बातें कब हुईं? पुनः इसका जवाब देना बहुत मुश्किल है. हम यह जानते हैं कि मनुष्य की विकास यात्रा में 1,00,000 से 50,000 वर्ष पूर्व कुछ महत्वपूर्ण घटना घटी थी: यह वह समय है जब हमें कला और कर्मकांड में इस्तेमाल होने वाली वस्तुएं या प्रमाण मिलते हैं. इन्हें हम सभ्यता से जोड़ते हैं. एस मोड़ पर मनुष्य प्रजाति में क्या बदलाव आये होंगे? क्या वे पहले से ज्यादा चतुर हो गए (जबकि उनके मस्तिष्क अचानक बड़े नहीं हुए थे)? क्या तब उन्होंने अचानक भाषा का अविष्कार कर लिया? क्या वे भाषा से मिलने वाली बौद्धिक सुविधा का फायदा उठकर ज्यादा चतुर बने (जैसे पीढ़ियों तक वाचिक रूप से इतिहास को संभालने की क्षमता)? क्या यह तब हुआ जब वे भाषा का विकास कर रहे थे, या फिर भाषाविहीनता से आधुनिक भाषा के स्तर पर पहुंच रहे थे या संभवतः 'प्राक-भाषा' की सीढ़ी लांधकर आधुनिक भाषा के पायदान में पहुंच रहे थे? और अगर बाद की बात सही है तो 'प्राक-भाषा' कब पैदा हुई? क्या हमारे चचेरे भाई निएंडरथाल किसी किस्म की 'प्राक-भाषा' बोलते थे? फिलहाल, इन सवालों के जवाब हमारे पास नहीं हैं.
हाल ही में प्रमाणों का एक आकर्षक स्रोत सामने आया है. FOXP2 नाम की एक जीन का पता लगा है जिसमें उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) से बोलने की क्षमता तथा चहरे व मुंह पर नियंत्रण चले जाते हैं. यह वानरों में पाई जाने वाले एक जीन का हल्का सा परिवर्धित संस्करण है, जो अपने वर्तमान स्वरूप में लगभग दो से एक लाख वर्ष पहले अस्तित्व में आया. यह देखते हुए FOXP2 को 'भाषा जीन' कहने को जी ललचाता है, लेकिन लगभग हर कोई इस किस्म के अतिसरलीकरण से बचना चाहेगा. क्या इस उत्परिवर्तन से प्रभावित व्यक्ति वास्तव में भाषाविहीन हो जाते हैं या उन्हें सिर्फ बोलने में दिक्कत होती है? इन सब से ऊपर, तंत्रिका विज्ञान में खासी बढ़त के बावजूद हम अब तक इस बाबत बहुत कम जानते हैं कि जीन किस तरह मस्तिष्क की वृद्धि व ढाँचे को निर्धारित करती हैं या मस्तिष्क का ढांचा किस तरह भाषा के इस्तेमाल की क्षमता को तय करता है. तथापि, अगर हम इस बारे में और जानना चाहते हैं कि मनुष्य की भाषा क्षमता किस तरह विकसित हुई तो हमें सबसे भरोसेमंद प्रमाण शायद मानव जीनोम से ही मिलेंगे, जिनमें हमारी प्रजाति के इतिहास की समूची कहानी दर्ज है. असल चुनौती इस कहानी को पढ़ पाने की है.
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)
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