Sunday, June 14, 2015

विदेश नीति पर राजनीति नहीं

सामान्य धारणा है कि विदेश नीति और सुरक्षा से जुड़े सवालों को संकीर्ण राजनीति का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। विदेश नीति व्यापक फलक पर राष्ट्रीय हितों से जुड़ी होती है, उसका किसी एक पार्टी के हितों से लेना-देना नहीं होता। इसमें राजनीतिक नेतृत्व की सफलता या विफलता का फैसला जनता करती है, पर उसके लिए सही मौका और सही मंच होना चाहिए। यह बात मणिपुर में की गई फौजी कार्रवाई, पाकिस्तान के साथ चल रहे वाक्-युद्ध और भारत-चीन संवाद तथा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को लेकर उठाए गए सवालों के कारण सामने आई है।  


मणिपुर या म्यांमार में हुई फौजी कार्रवाई कितनी सफल थी या कितनी विफल, यह सवाल दीगर है। सवाल यह है कि हमारी फौज का मनोबल कौन बढ़ाएगा? दूसरा सवाल यह है कि 18 सैनिकों की हत्या के बाद फौज ने जो कार्रवाई की उसके पीछे भारतीय जनता पार्टी की इच्छा थी या भारतीय जनता का रोष? अलबत्ता राजनीतिक दलों से अनुरोध किया जाना चाहिए कि वे विदेश नीति को राजनीति का विषय कम से कम बनाएं साथ ही रक्षा से जुड़े मसलों पर आमराय बनाएं। इन सवालों पर देश की फज़ीहत न होने दें। बेहतर हो कि इन मसलों पर सर्वदलीय सम्मेलन बुलाएं।

पिछले दिनों पेशावर के स्कूल में आतंकी हमले के बाद से पाकिस्तानी सेना और सरकार ने अचानक भारतीय खुफिया एजेंसियों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया है। यह सब सायास लगता है। पाकिस्तान को लेकर केंद्र सरकार ने हाल में जाहिर किया है कि अब वक्त बदल चुका है, भारत सरकार पलट-वार करेगी। सीमा पर हो रही गोलाबारी के जवाब में भारतीय सुरक्षा सेनाओं ने दुगने जोश से गोलाबारी शुरू की, जिसके परिणाम फौरन सामने आए।

पिछले साल अगस्त में पाकिस्तान के साथ बातचीत रद्द करने के बाद यह स्पष्ट होने लगा था कि सरकार ने बेंचमार्क बदल दिया है। बहरहाल मणिपुर में कार्रवाई के बाद जारी केंद्रीय सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर का एक बयान विवाद का विषय बन गया। उन्होंने कहा था कि भारतीय फ़ौज ने म्यांमार में जिस तरह की कार्रवाई की है वह उन सभी देशों के लिए संदेश है जो भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं। उनका इशारा पाकिस्तान की ओर था। यह सम्भावना अभी खत्म नहीं हुई है कि मणिपुर में जो हुआ, उसके पीछे कोई बाहरी ताकत भी हो सकती है।

इस बयान के कुछ दिन पहले रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर का एक और बयान चर्चा में आया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि आतंकियों का इलाज हम उसी तरह करेंगे, जैसे काँटे से काँटा निकाला जाता है। इस बयान की पाकिस्तान में कड़ी प्रतिक्रिया हुई और कहा गया कि भारत ने पाकिस्तानी हिंसा में अपना हाथ स्वीकार कर लिया है। हाल में बांग्लादेश की यात्रा पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेश के जन्म में भारत की भूमिका का उल्लेख किया तो पाकिस्तान उस बयान को भी ले उड़ा। म्यांमार और बांग्लादेश से जुड़े बयानों को जोड़कर पाकिस्तान ने भारत पर अपने पड़ोसियों के खिलाफ आक्रामकता बरतने का आरोप लगाना शुरू कर दिया।
मणिपुर में हुई कार्रवाई की मीडिया कवरेज आभास देती थी कि भारतीय सेना ने म्यांमार में घुसकर उग्रवादियों के कैम्पों को ध्वस्त किया। किया या नहीं किया, पर औपचारिक रूप से ऐसे बयानों की राजनीतिक परिणति भी होती है। 

कोई भी देश यह स्वीकार नहीं करेगा कि उसकी सीमा के भीतर घुसकर कोई दूसरा देश कार्रवाई करे। म्यांमार सरकार ने फौरन इस बात का प्रतिवाद किया और भारत सरकार ने इसे ज्यादा तूल नहीं दी। व्यावहारिक सच यह है कि इस प्रकार के उग्रवादी ठिकानों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए दो देश एक-दूसरे से सहयोग भी करते हैं। इस मामले में म्यांमार सरकार कार्रवाई के खिलाफ नहीं थी। उसे इस प्रकार के खुले बयान पर आपत्ति थी। इसपर हमें भी ध्यान देना होगा।

पाकिस्तानी या भारत-विरोधी प्रतिक्रियाओं में अजब कुछ नहीं था। पर देश के भीतर से म्यांमार-कार्रवाई पर आई प्रतिक्रियाएं विस्मयकारी हैं। इस हैरत के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं। बांग्लादेश के स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाने में योगदान के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सम्मान प्रदान किया गया। बांग्लादेश के राष्ट्रपति अब्दुल हामिद ने नरेंद्र मोदी को यह सम्मान सौंपा। वाजपेयी जी के लिए यह सम्मान अपनी जगह था, पर बेहतर होता कि मोदी इस मौके पर इंदिरा गांधी को भी याद करते। इस संग्राम में भारत का नेतृत्व इंदिरा गांधी ने किया था और तब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा की उपाधि दी थी।

विदेश नीति का लक्ष्य होता है राष्ट्रीय हितों की रक्षा। इसमें देश की फौजी और आर्थिक शक्ति से लेकर सांस्कृतिक शक्ति तक का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे इन दिनों सॉफ्ट पावर कहते हैं। सैद्धांतिक रूप से दुनिया के सभी देश समान हैं, पर व्यावहारिक रूप से जो असर अमेरिका का है वही सूडान और इथोपिया का नहीं है। अमेरिका की ताकत केवल उसकी सेना की ताकत नहीं है। विज्ञान-तकनीक और यहाँ तक कि उसकी संस्कृति और जीवन शैली भी इस ताकत को साबित करती है। करवट बदलती दुनिया में भारत को अपनी भूमिका को स्थापित करना ही होगा।

मोदी सरकार का पहला साल विदेश नीति के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। पिछले साल संयुक्त राष्ट्र महासभा में नरेंद्र मोदी ने योग को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दिलाने की अपील की थी। इसे महासभा ने स्वीकार कर लिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग को भारतीय जीवन-पद्धति के रूप में पेश होता है, केवल हिन्दू जीवन पद्धति के रूप में नहीं। वैश्विक संस्कृति की तमाम बातें किसी न किसी धर्म से जुड़ी हैं। पर वे सब ने स्वीकार कर ली हैं। जैसे जनवरी, फरवरी, मार्च वाला ग्रेगोरियन कैलेंडर। रविवार को छुट्टी का दिन मनाना ईसाई परम्परा है। बड़ी तादाद में मुसलमान नहीं जानते कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा खलीफा उमर ने दी थी। दुनिया का कोई भी मुस्लिम देश इस अवधारणा पर नहीं चलता। पर यह आधुनिक अवधारणा है। इसका श्रेय इस्लाम को मिलना चाहिए।
  
इक्कीसवीं सदी का मानव समुदाय दुनियाभर के समाजों की श्रेष्ठ अवधारणाओं को साथ लेकर ही आगे बढ़ सकता है। योग की हिन्दू धार्मिक दृष्टि मानवीय भी है तो उसे आगे बढ़ाने में क्या खराबी है? इसी कारण 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र ने 21 जून को "अंतरराष्ट्रीय योग दिवस" को मनाने का प्रस्ताव पास किया था। इस प्रस्ताव को 177 देशों ने पेश किया था, जिनमें से 47 मुस्लिम देश थे, जिनमें ईरान, कतर और संयुक्त अरब अमीरात भी शामिल थे। भारत में यह धार्मिक और राजनीतिक कारणों से विवाद का विषय बना है। इसे संकीर्णता के दायरे से बाहर लाने की जरूरत है। 


हरिभूमि में प्रकाशित

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