बिहार में जनता
परिवार के ‘महागठबंधन’ पर पक्की मुहर लग जाने और नेतृत्व का विवाद सुलझ जाने के बाद वहाँ गैर-भाजपा
सरकार बनने के आसार बढ़ गए हैं। भाजपा के नेता जो भी कहें, चुनाव पूर्व
सर्वेक्षणों का अनुमान यही है। इस गठबंधन के पीछे लालू यादव और नीतीश कुमार के
अलावा मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के राहुल गांधी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही
है। लगता है कि बिहार में दिल्ली-2015 की पुनरावृत्ति होगी, भले ही परिणाम इतने
एकतरफा न हों। ऐसा हुआ तो पिछले साल लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिले
स्पष्ट बहुमत का मानसिक असर काफी हद तक खत्म हो जाएगा। नीतीश कुमार, लालू यादव, मुलायम
सिंह और राहुल गांधी तीनों अलग-अलग कारणों से यही चाहते हैं। पर क्या चारों हित
हमेशा एक जैसे रहेंगे?
दिल्ली में लालू
के साथ बैठक के पहले नीतीश कुमार ने कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के आवास पर
जाकर उनसे मुलाकात की थी। यह गठबंधन कांग्रेस की व्यापक रणनीति का हिस्सा भी है।
हालांकि बिहार में कांग्रेस को कुछ खास मिलेगा नहीं, पर उसकी दिलचस्पी नरेंद्र
मोदी और बीजेपी के पराभव में है। इस कहानी के एक और महत्वपूर्ण पात्र हैं मुलायम
सिंह यादव। उनकी दिलचस्पी कांग्रेस और बीजेपी की जीत-हार से ज्यादा उत्तर प्रदेश
विधानसभा के 2017 के चुनाव में है।
भावनात्मक असर तो
होगा
बिहार में
महागठबंधन की, जिसे अभी तक किसी पार्टी या संगठन का नाम नहीं मिला है, जीत का भावनात्मक
असर उत्तर प्रदेश के चुनाव पर पड़ सकता है। मसलन कार्यकर्ता उत्साहित होगा या शरद
यादव, लालू और नीतीश चुनाव प्रचार में शामिल हो जाएंगे। पर इससे क्या होगा? क्या मुलायम सिंह यादव इतनी
बात से खुश होंगे कि बिहार में गाड़ी का पहिया उल्टा घूमने लगा है? केंद्रीय राजनीति में
बीजेपी की सरकार दबाव में आ गई है। यह कांग्रेसी खुशी है। कांग्रेस को संतोष होगा
कि बीजेपी भी कमजोर हो रही है। पर मुलायम सिंह को क्या मिलेगा? क्या बिहार में बोए बीज
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की फसल लहलहाने में मददगार होंगे?
जनता-परिवार और
कांग्रेस की इस मिली-जुली परियोजना में अंदरूनी पेच भी हैं। क्या उत्तर प्रदेश के
चुनाव आने तक बिहार का गठबंधन कायम रहेगा? क्या नीतीश कुमार उसके नेता बने रहेंगे? सरकार में लालू यादव की
प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका क्या होगी? क्या गठबंधन बनने या विलय के बाद पार्टियों और
समूहों की अलग-अलग पहचान खत्म हो जाएगी? पहचान कायम रही तो ज्यादा बड़ी संख्या में
विधायक किसके साथ होंगे? जनता-परिवार का इतिहास क्या कहता है? लालू, मुलायम, नीतीश की त्रिमूर्ति क्या क्षेत्रीय राजनीति को कोई नया रूप
देने वाली है? और इसमें कांग्रेस की
भूमिका क्या होगी?
मोदी-केंद्रित
राजनीति
यह धर्म-निरपेक्ष
महा-गठबंधन किसी नए राजनीतिक सिद्धांत का श्रीगणेश कर रहा है या राजनेताओं की
व्यक्तिगत मनोकामनाओं को साधने का उपकरण बन रहा है? जून 2013 में जब बीजेपी नरेंद्र मोदी को
प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी तय कर रही थी, तभी नीतीश कुमार ने अपने रुख में
बदलाव शुरू किया। मोदी के प्रति उनका विरोध व्यक्तिगत था जिसे उन्होंने सैद्धांतिक
बनाया। बीजेपी के आंतरिक संघर्ष में उन्होंने आडवाणी का साथ दिया था। वे भाजपा की
साम्प्रदायिक राजनीति के कारण उससे अलग नहीं हुए, बल्कि मोदी के कारण अलग हुए। यदि
बीजेपी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी नहीं बनाती और लालकृष्ण
आडवाणी के नेतृत्व में चुनाव लड़ती तो क्या नीतीश कुमार एनडीए में बने रहते?
जनता परिवार के
एक होने की कोशिशों के पीछे सबसे बड़ी वजह नरेंद्र मोदी हैं। समझना यह भी चाहिए कि
यह व्यक्तिगत रूप से मोदी के कारण है या व्यापक स्तर पर गैर-साम्प्रदायिक राजनीति के
कारण। बीजेपी के बढ़ते असर को रोकने के लिए एक छतरी की जरूरत किसे है? इस छतरी की परिकल्पना
बिहार में अगस्त 2014 में हुए उप-चुनाव में सफल हुई थी, जब मोदी लहर के उस दौर में
बीजेपी-विरोधी गठबंधन 10 में से 6 सीटें निकाल ले गया। इसके बाद सितम्बर 2014 में उत्तर
प्रदेश में 11 सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें भाजपा को केवल तीन सीटें मिलीं। समाजवादी
पार्टी के खाते में आठ सीटें गईं। इसके पहले ये सभी 11 सीटें भाजपा की थीं।
उप-चुनाव में
खुली छतरी
सपा की वह सफलता
चुनावी गणित की देन थी। पार्टी इस चुनाव में भाजपा-विरोधी वोटों को बिखरने से
रोकने में कामयाब हुई। लोकसभा चुनाव में भारी हार से पार्टी ने सबक लिया और मुलायम
सिंह यादव ख़ुद आम चुनाव की तरह सक्रिय रहे। एक-एक सीट की रणनीति उन्होंने खुद
बनाई। पर उत्तर प्रदेश और बिहार में फर्क था। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में
भाजपा-विरोधी मोर्चा नहीं था। अलबत्ता बहुजन समाज पार्टी ने चुनाव में अपने
प्रत्याशी नहीं उतारे। सपा को इसका फायदा मिला। सपा की जीत का सबसे बड़ा कारण बसपा
की अनुपस्थिति थी। पर 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा उसके सामने सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धी
होगी। देखना यह भी होगा कि बिहार में उनकी सहयोगी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भी
सहयोगी होगी या नहीं।
नीतीश कुमार और
कांग्रेस की पहल पर बिहार में खुली यह धर्म-निरपेक्ष छतरी सार्वदेशिक नहीं है।
पिछले साल नवम्बर में जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती के सहारे कांग्रेस ने धर्म
निरपेक्ष छतरी के रूप में अपना बैनर ऊँचा किया था। अलबत्ता सीपीएम में प्रकाश करत
की जगह आए सीताराम येचुरी इसे लेकर उत्साहित हैं। पर सीपीएम का उत्तर भारत की
राजनीति से क्या लेना-देना? क्या देश के सारे गैर-भाजपा दल कांग्रेस को धर्म
निरपेक्षता की ध्वजवाहक मानेंगे? इतना ही नहीं ये दल द्रविड़ प्राणायाम भी कर रहे हैं। जनता
परिवार के नेता कहते हैं कि इस मुहिम का मोदी और भाजपा से कुछ भी लेना-देना नहीं
है। हम तो नई राजनीति की शुरूआत करना चाहते हैं। सवाल है कि इस नई राजनीति में नया
क्या है?
अब भी सुशासन
बाबू?
मुलायम सिंह यादव
और लालू यादव की राजनीति के मुकाबले नीतीश कुमार की राजनीति में नई बात विकास और
सुशासन वगैरह की थी। पर वह नारा तो
भाजपा के साथ गया। क्या वह अब भी नीतीश कुमार का नारा है? उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री क्यों
बनाया? मांझी सरकार ने किया क्या? बहरहाल इस नई धर्म-निरपेक्ष राजनीति का गणित है कि जातियों
का नेतृत्व बँटा होने के कारण वोट बँट जाता है, जिसे रोका जाना चाहिए। इनके बँटने के कारण भी तो कहीं हैं।
इस राजनीति का एक
बड़ा अंतर्विरोध यह है कि कांग्रेस की कोशिश गैर-भाजपा दलों के केंद्र के रूप में
खड़ा होने की है। नेहरू को लेकर दिल्ली में पिछले साल 17, 18 नवंबर के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में गैर
राजग दलों को बुलाकर कांग्रेस ने अपनी इच्छा को प्रकट कर दिया। क्या जनता कुनबा
नेहरू के झंडे तले आने को तैयार है? बिहार में कांग्रेस ने लालू और नीतीश का भरत-मिलाप करा
दिया। पर क्या वह पूरे देश में ऐसा कर पाएगी?
पलट-वार भी सम्भव
मुलायम सिंह यादव
इस गठजोड़ के नेता हैं, पर वे अपने ही मित्रों के बीच अविश्वसनीय हैं। शाब्दिक
बाजीगरी में लालू लाजवाब हैं। राजनीति को चुनाव जीतने की कला माना जाए तो मुलायम
सिंह यादव सफल राजनेता हैं। पर समय बदल रहा है। इनके समर्थक भी प्रशासनिक कौशल और
गवर्नेंस चाहते हैं। वोटर के दबाव का नया दौर चल रहा है। भारतीय जनता पार्टी और
नरेंद्र मोदी को वोट देने वाला मतदाता हमेशा उसका साथ नहीं देगा। पर, बिहार और
उत्तर प्रदेश में जाति और सम्प्रदाय का फॉर्मूला भी हमेशा नहीं चलेगा। सबसे बड़ी
बात यह है कि दिल्ली में अगले चार साल तक मोदी की सरकार है। यूपीए के पास कोई जड़ी
जरूर थी जो सपा और बसपा दोनों ने उसका समर्थन किया था। क्या मोदी के पास वह जड़ी
नहीं है?
एक क्रिया की
प्रतिक्रिया भी होगी। बिहार में जातीय-साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ तो उत्तर प्रदेश में
पलट-वार होगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में वह भी हुआ था। उत्तर प्रदेश पूरी तरह
बिहार नहीं है। यहाँ की सामाजिक ज़मीन दो नहीं साढ़े तीन खेमों में बँटी है। यों
भी देश में भविष्य की राजनीति अनिवार्य रूप से जाति केंद्रित नहीं है। राजनीतिक
संरचनाएं जातीय क्षत्रपों के इर्द-गिर्द स्थापित हुईं हैं और उनके पाला बदलते ही
स्थितियाँ और सिद्धांत बदल जाते हैं। कैसे मान लें कि भविष्य में पाले बदले नहीं
जाएंगे? ये चुनाव-केंद्रित पार्टियाँ हैं और सत्ता के शेयर पर जीवित रहती हैं। पहले
बिहार में जीतने तो दीजिए।
बिहार का बोया तो बाद में काम आएगा पहले तो यू पी में पाँच साल तक किया काम परखा जायेगा जो कम से कम अभी तक संतोषजनक नहीं है
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