Monday, October 22, 2018

आजाद हिन्द की टोपी पहन, कांग्रेस पर वार कर गए मोदी

नरेंद्र मोदीइसे नरेंद्र मोदी की कुशल ‘व्यावहारिक राजनीति’ कहें या नाटक, पर वे हर उस मौके का इस्तेमाल करते हैं, जो भावनात्मक रूप से फायदा पहुँचाता है. निशाने पर नेहरू-गांधी ‘परिवार’ हो तो वे उसेखास अहमियत देते हैं. रविवार 21 अक्तूबर को लालकिले से तिरंगा फहराकर उन्होंने कई निशानों पर तीर चलाए हैं.

'आजाद हिंद फौज' की 75वीं जयंती के मौके पर 21 अक्टूबर को लालकिले में हुए समारोह में मोदीजी की उपस्थिति की योजना शायद अचानक बनी. वरना यह लम्बी योजना भी हो सकती थी. ट्विटर पर एक वीडियो संदेश में उन्होंने कहा था कि मैं इस समारोह में शामिल होऊँगा.

कांग्रेस पर वार
इस ध्वजारोहण समारोह में मोदी ने नेताजी के योगदान को याद करने में जितने शब्दों का इस्तेमाल किया, उनसे कहीं कम शब्द उन्होंने कांग्रेस पर वार करने में लगाए, पर जो भी कहा वह काफी साबित हुआ.

उन्होंने कहा, एक परिवार की खातिर देश के अनेक सपूतों के योगदान को भुलाया गया. चाहे सरदार पटेल हो या बाबा साहब आम्बेडकर. नेताजी के योगदान को भी भुलाने की कोशिश हुई. आजादी के बाद अगर देश को पटेल और बोस का नेतृत्व मिलता तो बात ही कुछ और होती.

अभिषेक मनु सिंघवी ने हालांकि बाद में कांग्रेस की तरफ से सफाई पेश की, पर मोदी का काम हो गया. मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गांधी, आम्बेडकर, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोकप्रिय नेताओं को पहले ही अंगीकार कर लिया है. अब आजाद हिन्द फौज की टोपी पहनी है.
बीजेपी को क्या मिलेगा?

यह 'सॉफ्ट राजनीति' है.नेताजी सुभाष कोई राजनीतिक कांस्टीट्यूएंसी नहीं हैं. न उनका नाम से किसी वोट बैंक का दरवाजा खुलता है. देशप्रेम की भावना जरूर उनके नाम से पैदा होती है. भगत सिंह के विचार बीजेपी के विचारों से मेल नहीं खाते, पर बीजेपी उनका नाम भी लेती है.

इस बहाने मोदी यह बताने की कोशिश करते हैं कि जिन्हें मिलना चाहिए था, उन्हें श्रेय नहीं मिला. राष्ट्रीय आंदोलन की कमाई कोई और खा गया. अभी वे 30 दिसंबर को पोर्ट ब्लेयर (अंडमान निकोबार) भी जाएंगे. पोर्ट ब्लेयर में 75 साल पहले 30 दिसंबर को ही 1943 में पहली बार भारतीय जमीन पर सबसे पहले सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का तिरंगा फहराया था.

भावनाओं की खेती

इस महीने के अंत में 31 अक्तूबर को वे गुजरात में सरदार पटेल के ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ का अनावरण करने जा रहे हैं. इसमें दो राय नहीं कि मोदी ने उन रूपकों, प्रतीकों और भावनाओं के भुनाया है, जो जनता के मन को छूते हैं.

भावनाओं की यह राजनीति मोदी की देन नहीं है. पहले से चली आई है. इसके रंग-रूप अलग हैं. अलबत्ता मोदी ने निखारा जरूर है. वे जब कुछ उत्तेजक बोलते हैं, तो जवाब में नकारात्मक प्रतिक्रियाएं आती हैं. मोदी उनका भी अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लेते हैं.

पिछले चार साल से उन्होंने 21 अक्तूबर को लालकिले पर ध्वजारोहण की बात नहीं सोची. संयोग है कि यह उस परिघटना का 75वाँ साल है. और चुनाव भी करीब हैं.

तारीखों के नए निहितार्थ खोजना भीमोदी-कला है. पिछले साल 9 अगस्त क्रांति दिवस को उन्होंने ‘संकल्प दिवस’ मनाया. इस तरह एक कांग्रेसी तारीख को छीना. यह कहकर कि वह तो राष्ट्रीय आंदोलन था.

कांग्रेसी मुहावरों को छीना

अगस्त क्रांति के 75 साल पूरे होने पर बीजेपी सरकार ने जिस स्तर का आयोजन किया, उसकी उम्मीद कांग्रेस ने नहीं की होगी. मोदी ने 1942 से 1947 को ही नहीं जोड़ा है, 2017 से 2022 को भी जोड़ दिया. यानी उनकी योजनाएं 2019 के आगे जा रही हैं.

पिछले चार साल में उन्होंने कांग्रेस के तमाम मुहावरों को भी छीना. उनके ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है. गांधी के सत्याग्रह के तर्ज पर मोदी ‘स्वच्छाग्रह’ शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं.



कहा जा सकता है कि यह सब नाटक है, राजनीति है. पर राजनीति में किसने नाटक नहीं खेला? बात इतनी सी है कि कौन कितना बढ़िया नाटक खेलता है.

बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम पर प्रकाशित

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-10-2018) को "सुहानी न फिर चाँदनी रात होती" (चर्चा अंक-3134) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. सटीक समीक्षा की है। मोदी जी को पता है किस चीज का किधर कितना इस्तेमाल करना है। यह एक कुशल राजनीतिज्ञ की पहचान हैं।

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