Wednesday, October 31, 2018

जनता के मसले कहाँ हैं इस चुनाव में?

पाँच राज्यों में चुनाव बादल छाए हैं. छत्तीसगढ़ में पहले दौर का चुनाव प्रचार चल रहा है. नामांकन हो चुके हैं, प्रत्याशी मैदान में हैं और प्रचार धीरे-धीरे शोर में तब्दील हो चुका है. दूसरे चरण की प्रक्रिया चल रही है, जिसमें नामांकन की आखिरी तारीख 2 नवंबर है. उसी रोज मध्य प्रदेश और मिजोरम का नोटिफिकेशन हो जाएगा. इसके बाद राजस्थान और तेलंगाना. 7 दिसंबर तक मतदान की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी. मीडिया के शोर और सूचनाओं की आँधी के बीच क्या कोई बता सकता है कि इन चुनावों के मुद्दे क्या हैं? छत्तीसगढ़ के क्या सवाल हैं, मध्य प्रदेश के मसले क्या हैं और राजस्थान और तेलंगाना के वोटरों की अपेक्षाएं क्या हैं? विधानसभा चुनाव राज्यों के मसलों पर लड़े जाते हैं और लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय प्रश्नों पर. क्या फर्क है दोनों में?

हाल में देशभर में एकसाथ चुनाव कराने की मुहिम जब चल रही थी, तब उसका विरोध करने वालों का कहना था कि देश की विविधता और संघीय-संरचना को देखते हुए एकसाथ चुनाव कराना ठीक नहीं होगा. इससे क्षेत्रीय विविधता को ठेस लगेगी. वास्तव में पूर्वोत्तर के राज्यों की जो समस्याएं हैं, वे दक्षिण भारत में अनुपस्थित हैं. दक्षिण भारत के मसले पश्चिम में गौण हैं. भौगोलिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ फर्क होने के कारण हरेक क्षेत्र की जरूरतें अलग-अलग हैं. पर क्या इन इलाकों की राजनीति अपने क्षेत्र की विशेषता को परिलक्षित करती है?



देशभर में कुछ समस्याएं एक जैसी हैं. गरीबी, बेरोजगारी, किसानों की बदहाली, भ्रष्टाचार, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, शिक्षा-व्यवस्था के दोष और परिवहन की दिक्कतें कमोबेश हर इलाके में मौजूद हैं. पर क्या चुनाव इन मसलों पर लड़े जाते हैं?राजनीतिक दल अपने-अपने इलाकों की जरूरतों पर अनुसंधान नहीं करते हैं. वे अपने बीच आर्थिक-सामाजिक विशेषज्ञों को जगह नहीं देते हैं. राजनीति में कोई व्यक्ति इसलिए सफल नहीं होता कि उसे अपने क्षेत्र की समस्याओं का अच्छा ज्ञान है और उसके पास उनका निदान भी है. उसे चुनाव-जिताऊ लोग चाहिए. मतदाता भी प्रत्याशी की योग्यता के आधार पर वोट नहीं देता.

विषयांतर होगा, पर एक ब्रेकिंग न्यूज का जिक्र करना बेहद जरूरी है. सोमवार 29 अक्तूबर का काफी लोग बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मसले की नियमित सुनवाई होने वाली थी. मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहाकि इस मसले पर अगली सुनवाई जनवरी 2019 में एक उचित पीठ के समक्ष होगी. यह सुनवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं के समूह पर होने वाली है.

यह खबर आने के बाद टीवी चैनलों की रात की सभा में इस सवाल पर कान-फोड़ बहसें शुरू हो गईं. सुप्रीम कोर्ट में जब उत्तर प्रदेश सरकार के वकील ने कहा कि हमारी बात सुन लें, तो मुख्य न्यायाधीश ने कहा, हमारी अपनी प्राथमिकताएं हैं. यह महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही. रात में जब टीवी चैनलों पर गला-फाड़ प्रतियोगिता चल रही थी, तब कोई पूछ नहीं रहा था कि देश की प्राथमिकताएं क्या हैं. क्या वास्तव में पाँच राज्यों के चुनाव संप्रदाय, जाति, भाषा और ऐसे ही दूसरे भावनात्मक मुद्दों पर नहीं लड़े जा रहे हैं? चुनाव-घोषणापत्र क्या बेमतलब के दस्तावेज नहीं होते हैं? क्या पार्टियों की चुनावी रणनीतियाँ जनता के सवालों पर केंद्रित होती हैं.

जनता के बढ़ते मसलों के साथ-साथ देश में राजनीतिक दलों की संख्या भी बढ़ती जा रही है. हाल में चुनाव आयोग ने एक रोचक सूचना जारी की है. पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से ठीक पहले देश में 74 नए राजनीतिक दलों ने निर्वाचन आयोग में अपना रजिस्ट्रेशन कराया है. इनमें से 26 दल इन्हीं पांच राज्यों में रजिस्टर्ड हुए हैं. देश में अब तक कुल राजनीतिक दलों की संख्या 2069 से बढ़कर 2143 हो गई है. इसमें 6 पार्टियां मध्यप्रदेश से रजिस्टर्ड कराई गई हैं, राजस्थान और तेलंगाना से 9-9, छत्तीसगढ़ एवं मिजोरम से 1-1 नई पार्टी रजिस्टर्ड हुई है. सन 1951 के चुनाव में हमारे यहाँ 14 राष्ट्रीय और 39 अन्य मान्यता प्राप्त पार्टियाँ थीं. सन 2009 के लोकसभा चुनाव में 363 पार्टियाँ उतरीं थीं. इनमें 7 राष्ट्रीय, 34 प्रादेशिक और 242 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियाँ थीं.

सन 2014 के लोकसभा चुनाव में जिन दलों ने हिस्सा लिया उनकी संख्या इस प्रकार थी-राष्ट्रीय दल 6 भाजपा, बसपा, भाकपा, माकपा, कांग्रेस और राकांपा. राज्य स्तर के दल 46 और पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त पार्टियाँ 464. यानी हमारी राजनीति की ग्रोथ राष्ट्रीय जीडीपी से कहीं ज्यादा है. विडंबना है कि राजनीति की इस संवृद्धि के समांतर समस्याओं की संवृद्धि दर और भी तेज है और उनके समाधान की दर लगातार गिर रही है. इसके पीछे के तमाम कारणों में चुनाव की खेती को भी शामिल किया जाना चाहिए, जिसमें वोट पड़ते हैं, पर जनता के मुद्दे गायब रहते हैं. यह निराशाजनक स्थिति है.

हमारी राजनीति राष्ट्रीय आंदोलन से निकली है, जिसने हमें लड़ाई में उतरना सिखाया है. समस्याओं का समाधान नहीं सिखाया. बंद, हड़ताल, घेराव, धरना और विरोध प्रदर्शन हमारी राजनीतिक संस्कृति के अटूट अंग हैं. अक्सर वही आंदोलन सफल माना जाता है, जो हिंसा फैलाने में कामयाब हो.हमें असंतोष, विक्षोभ और कुंठा नहीं समझदार विमर्श चाहिए, जिसके लिए चुनाव एक आदर्श स्थिति होती है. उस दौरान हमारा ध्यान मसलों पर केंद्रित होता है. पर ऐसा होता है क्या?

देश की प्रशासनिक-व्यवस्था से नागरिकों को तमाम शिकायतें हैं.भ्रष्ट प्रशासनिक-व्यवस्था का फायदा राजनीति ने उठाया है. नागरिकों के आंदोलन या तो होते नहीं और होते हैं, तो आसानी से दबा दिए जाते हैं. हाल के वर्षों में नागरिकों का सबसे सफल आंदोलन सन 2012 के दिसम्बर महीने में दिल्ली के रेप कांड के विरोध में देखा गया था.वह भी आंदोलन नहीं गुस्सा था, जो अचानक फूटकर निकलता है. पाँच राज्यों के चुनाव के बाद हम 2019 के लोकसभा चुनाव की तरफ बढ़ेंगे. तब भी यही होगा.
 inext में प्रकाशित

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