Sunday, October 14, 2018

‘मीटू’ की ज़रूरत थी

देश में हाल के वर्षों में स्त्री-चेतना की सबसे बड़ी परिघटना थी, दिसम्बर 2012 में दिल्ली-रेपकांड के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन। इस आंदोलन के कारण भले ही कोई क्रांतिकारी बदलाव न हुआ हो, पर सामाजिक-व्यवस्था को लेकर स्त्रियों के मन में बैठी भावनाएं निकल कर बाहर आईं। ऐसे वक्त में जब लड़कियाँ घरेलू बंदिशों से बाहर निकल कर आ रहीं हैं, उनके साथ होने वाला दुर्व्यवहार बड़े खतरे की शक्ल में मुँह बाए खड़ा है। समय क्या शक्ल लेगा हम नहीं कह सकते, पर बदलाव को देख सकते हैं। इन दिनों अचानक खड़ा हुआ ‘मीटू आंदोलन’ इसकी एक मिसाल है। 

लम्बे अरसे से हम मानते रहे हैं कि फिल्मी दुनिया में स्त्रियों का जबर्दस्त यौन-शोषण होता है। पर ऐसा केवल ‘फिल्मी दुनिया’ में नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में है। और यह बात अब धीरे-धीरे खुल रही है। ‘मीटू आंदोलन’ आंदोलन के पहले से देश में कई मामले अदालतों में चल रहे हैं। खासतौर से मीडिया में कुछ लड़कियों ने आत्महत्याएं की हैं। सिनेमा और मीडिया का वास्ता दृश्य जगत से है। उसे लोग ज्यादा देखते हैं। राजनीति के ‘मीटू प्रसंग’ भी सुनाई पड़ेंगे। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, प्रशासनिक सेवाओं, कॉरपोरेट जगत और शैक्षिक संस्थानों से खबरें मिलेंगी।

तब या अब किसी ने इन बातों को सार्वजनिक रूप से उठाया है, तो इसकी तारीफ करनी चाहिए और उस महिला का समर्थन करना चाहिए। पर यह सारी बात का एक पहलू है। इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए। ‘मीटू आंदोलन’ यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक वैश्विक अभियान है, जिसके अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूप हैं। इसका सबसे प्रचलित अर्थ है कार्यक्षेत्र में स्त्रियों का यौन शोषण। अक्तूबर 2017 में अमेरिकी फिल्म निर्माता हार्वे वांइंसटाइन पर कुछ महिलाओं ने यौन शोषण के आरोप लगाए। न्यूयॉर्क टाइम्स और न्यूयॉर्कर ने खबरें प्रकाशित कीं कि एक दर्जन से अधिक स्त्रियों ने वांइंसटाइन पर यौन-विषयक परेशानियाँ पैदा करने, छेड़छाड़, आक्रमण और रेप के आरोप लगाए। इस वाक्यांश को लोकप्रियता दिलाई अमेरिकी अभिनेत्री एलिज़ा मिलानो ने, जिन्होंने हैशटैग के साथ इसका इस्तेमाल 15 अक्टूबर 2017 को ट्विटर पर किया। मिलानो ने कहा कि मेरा उद्देश्य है कि लोग इस समस्या की संजीदगी को समझें। इसके बाद इस हैशटैग का इस्तेमाल सोशल मीडिया पर करोड़ों लोग कर चुके हैं।
वस्तुतः यह अब स्त्री-मुक्ति का आप्त-वाक्य बन चुका है। एलिज़ा मिलानो को इसे प्रचारित करने का श्रेय जाता जरूर है, पर इसका पहली बार इस्तेमाल सन 2006 में अमेरिकी सोशल एक्टिविस्ट और कम्युनिटी ऑर्गनाइज़र टैराना बर्क ने किया था। बर्क का कहना है कि जब एक 13 साल की लड़की ने उन्हें अपने यौन उत्पीड़न की जानकारी दी, तो मेरे मुँह से निकला ‘मी टू।’ स्त्रियों के मन में एक-दूसरे की परेशानियों के प्रति हमदर्दी पैदा करने के उद्देश्य से उन्होंने सोशल मीडिया नेटवर्क माइस्पेस पर इसका इस्तेमाल किया।

आज दुनिया के तमाम लोग इसका इस्तेमाल ‘हम तुम्हारे साथ हैं’ की भावना से कर रहे हैं। भारत में बॉलीवुड अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने इसमें पहल की है। दिन-ब-दिन हमारे सामाजिक जीवन की परतें खुलरहीं हैं। इसके साथ ही सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन को लेकर नए सवाल सामने आ रहे हैं। पश्चिमी संस्कृति में काफी कम उम्र से बच्चे आत्मनिर्भर होकर घर छोड़ने लगे हैं, जबकि भारत जैसे परम्परागत समाज में उन्हें परिवार का संरक्षण और निर्देशन मिलता है। इसका सकारात्मक पक्ष भी है। हमें अपने सांस्कृतिक जीवन की समीक्षा भी करनी चाहिए।

इस प्रसंग को राजनीतिक रंगत भी दी गई है, पर वस्तुतः यह ज्यादा बड़े धरातल पर सामाजिक समस्या है। यह राजनीति में भी है, तो उसके पीछे कोई एक विचारधारानहीं, बल्कि स्त्रियों की बदलती भूमिका है। पितृसत्तावादी प्रवृत्तियों और स्त्री-मुक्ति की कामना के बीच टकराव है। भारतीय राजनीति ने अभी तक स्त्रियों को जन-प्रतिनिधित्व में आरक्षण नहीं दिया है। यह अपने आप में मीटू-प्रसंग है।

स्त्रियाँ जो मीटू-दृष्टांत सामने रख रहीं हैं, उनके पीछे कोई एक मंतव्य नहीं है। एक दुखद प्रसंग को सामने लाना, सामाजिक सम्मान के ऊँचे पैडस्टल पर बैठे किसी व्यक्ति के पाखंड का पर्दाफाश करना, कार्यक्षेत्र के खतरों को बताना, आने वाली पीढ़ी को सावधान करना और ऐसे ही दूसरे कारण हैं। कुछ नकारात्मक बातें भी सम्भव हैं। मसलन बदला लेने या बदनाम करने की कामना, ब्लैकमेलिंगवगैरह।

सकारात्मक अधिकारों के दुरुपयोग के उदाहरण भी हैं। दहेज कानून, घरेलू हिंसा, अजा-जजा कानून और यहाँ तक कि सूचना के अधिकार के दुरुपयोग के उदाहरण भी हैं। इसलिए यदि पीड़िता की इच्छा न्याय पाने की है, तो उसे न्याय के द्वार पर भी जाना चाहिए। व्यक्ति के सामाजिक जीवन में कलंक लगने की कीमत भी भारी होती है। उसका सम्मान जीवन की कमाई होता है। यह बात भी हमें जीवन में स्थापित करनी चाहिए। यह भी सच है कि हमारे देश में पुलिस और न्यायपालिका तक गुहार लगाना मुश्किल काम है। एक बड़े सुधार के बगैर हम ऐसे मामलों में न्याय नहीं कर पाएंगे।

‘मीटू आंदोलन’ ने हमारे पाखंड के साथ-साथ व्यवस्था के अंतर्विरोधों को भी खोला है। हम ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते’ वाले समाज में रहते हैं, पर लड़कियों के साथ अन्याय होते देखते रहते हैं। स्त्री-शिक्षा और कार्य-क्षेत्र में उनकी क्रमशः बढ़ती उपस्थिति के कारण ऐसे हालात पैदा हो रहे हैं। यह आंदोलन ट्विटर की देन है। इससे जन-जागृति में सोशल मीडिया की भूमिका भी रेखांकित हुई है। इसी सोशल मीडिया ने ‘मीटू आंदोलन’ के अंतर्विरोधों को भी उजागर किया है।

इस आंदोलन का नेतृत्व करने वालों में इटली की फिल्मकार और अभिनेत्री आसिया अर्जेंटो भी पहली कतार में थीं। उन पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने वांइंसटाइन पर उंगली उठाई।हाल में कान फिल्म महोत्सव में और ब्रसेल्स में यूरोपीय संसद में उन्होंने बताया कि कैसे इस शोषण पर पर्दा डालने की कोशिश की गई। इस बीच न्यूयॉर्क टाइम्स ने खबर छापी कि आसिया अर्जेंटो ने एक नाबालिग अभिनेता जिम्मी बेनेट के साथ बलात्कार किया और उसका मुँह बंद करने के लिए मोटी रकम दी।

शायद अभी ऐसे कुछ और अंतर्विरोध सामने आएंगे, पर इसमें दो राय नहीं कि इस प्रसंग ने एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा है। हमें इसके सकारात्मक पक्ष पर जोर देना चाहिए। खासतौर से यह देखते हुए कि आधी आबादी की भूमिका बढ़ रही है। हमें उसकी सुरक्षा और मान-मर्यादा की व्यवस्था भी करनी होगी।
हरिभूमि में  प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-10-2018) को "कृपा करो अब मात" (चर्चा अंक-3125) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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