Saturday, October 6, 2018

बाएं बाजू रूस, दाएं अमेरिका

कुछ दिन पहले तक लगता था कि भारत की विदेश नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग होती जा रही है। अब लगता है कि हम स्थिरता के धरातल पर वापस लौट रहे हैं। सितम्बर के पहले हफ्ते में भारत और अमेरिका के बीच हुई ‘टू प्लस टू’ वार्ता के ठीक एक महीने बाद रूस के साथ एस-400 मिसाइल प्रणाली को लेकर समझौता हो गया है। यह मिसाइल प्रणाली हवाई हमलों के खिलाफ दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली मानी जाती है। इसे अमेरिकी ‘टर्मिनल हाई अल्टीट्यूड एरिया डिफेंस सिस्टमट (ठाड) या पैट्रियट मिसाइल प्रणाली के मुकाबले किफायती और ज्यादा मारक समझा जा रहा है। सच यह है कि रूसी मिसाइलों, फ्रांसीसी लड़ाकू विमानों, अमेरिकी ड्रोनों और इसरायली रेडारों के सहारे चलने वाली भारतीय रक्षा-नीति अपने आप में अनोखी साबित हो रही है। रक्षा बहरहाल हमें अभी इस समझौते के बाबत अमेरिका की औपचारिक प्रतिक्रिया का इंतजार करना चाहिए। इतना जरूर लगता है कि भारत ने काफी सोच-समझ कर यह फैसला किया है। 
भारत और रूस के बीच 19 वें वार्षिक शिखर सम्मेलन के दौरान आठ समझौते हुए हैं। ये समझौते रक्षा, नाभिकीय ऊर्जा, स्पेस और अर्थ-व्यवस्था से जुड़े हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये समझौते अमेरिका की धमकी के बाद हुए हैं। अमेरिका ने धमकी दी है कि वह उन देशों पर पाबंदी लगाएगा, जो रूसी हथियार खरीदते हैं। पिछले महीने भारत और अमेरिका के बीच पहली बार जब टू प्लस टू वार्ता हुई थी, तब यह सवाल सबसे ऊपर था कि भारत इस मिसाइल प्रणाली को खरीद भी पाएगा या नहीं? 

पिछले महीने जब विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और रक्षामंत्री निर्मला सीतारामन की मुलाकात अमेरिकी विदेशमंत्री माइक पोम्पियो और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस से हुई तो अमेरिका ने भारत से कहा कि हम इस बात को समझते हैं कि भारत किस हद तक रूसी शस्त्र प्रणालियों पर आश्रित है, पर जब एस-400 जैसी बड़ी शस्त्र प्रणाली आप खरीदेंगे तब अमेरिका प्रभावित होता है। एयर-डिफेंस की इस प्रणाली को भारत पाँच अरब डॉलर (करीब 39.000 करोड़ रुपये) की लागत से खरीद रहा है।
इस मुलाकात के पहले अमेरिकी विदेशमंत्री पोम्पियो ने अमेरिकी मीडिया के साथ बातचीत में कहा था, ‘हमने भारतीयों से कहा है कि 4 नवम्बर को ईरानी कच्चे तेल के बाबत पाबंदियाँ लागू हो जाएंगी। हमसे जहाँ-जहाँ सम्भव होगा, छूट देने पर विचार करेंगे और हमें यकीन है कि हरेक देश की ईरान से तेल की खरीद शून्य के स्तर पर आ जाएगी। ऐसा नहीं हुआ तो पाबंदियाँ लगाई जाएंगी। हम भारत के साथ भी इस सिलसिले में काम करेंगे।’ यानी कि धमकी और छूट की सम्भावनाएं दोनों अपनी जगह कायम हैं। 
भारत का आश्वासन
भारत ने कई बार अमेरिका को आश्वस्त किया है कि रूसी मिसाइल प्रणाली की खरीद से अमेरिका के सामरिक हित किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं होंगे। अमेरिकी संसद से पास, हुए प्रस्ताव ‘काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट (CAATSA)’ में भारत को छूट देने की व्यवस्था है, पर यह खुली छूट नहीं है सशर्त है। भारतीय मीडिया के लिए पिछले महीने जारी नोट में पोम्पियो ने कहा था, ‘हमारी कोशिश है कि भारत जैसे महान सामरिक मित्र पर पाबंदियाँ नहीं लगाई जाएं। पाबंदियों का उद्देश्य उस देश पर असर डालना है, जो इसके केन्द्र में है। यानी कि रूस। इसलिए हम आने वाले समय में पाबंदियों से छूट के तरीकों पर काम करेंगे।’
क्या है एस-400
यह मिसाइल प्रणाली हवाई हमलों से बचाव के लिए है। इनमें लड़ाकू विमानों और मिसाइलों और चालक रहित विमानों यानी हर तरह के हमलों से बचाव की व्यवस्था है। यह चल वाहन पर तैनात होती है। इसमें मल्टी फंक्शनल रेडार, ऑटोनॉमस डिटैक्शन और टार्गेटिंग सिस्टम, एंटी एयरक्राफ्ट मिसाइल सिस्टम, लांचर और एक कंट्रोल सेंटर शामिल है। 
जैसे ही इसे बाहरी आक्रमण की सूचना मिलती है उसके पाँच मिनट के भीतर इसकी मिसाइलें दगने लगती हैं। हमलावर की ऊँचाई के हिसाब से यह तीन लेयरों पर तीन तरह की मिसाइलें दागती है। यानी कि 30 किलोमीटर से लेकर 400 किलोमीटर की दूरी तक से मार करने वाले 100 लक्ष्यों को यह एकसाथ निशाना बना सकती है। इस प्रणाली को पहली बार 2007 में सक्रिय किया गया था। सन 2015 में रूस ने सीरिया पर हो रहे हमलों से बचाव के लिए इसे तैनात किया था। 
भारत को जरूरत क्यों है?
भारत के सामने पाकिस्तान और चीन का दोहरा खतरा खड़ा है। चीन ने सन 2015 में एस-400 की छह बटालियनें खरीदने का समझौता किया था। ये मिसाइलें चीन को इस साल जनवरी से मिलनी शुरू हो भी गई हैं। पाकिस्तानी खतरे से निपटने में भारत अकेला ही समर्थ है। हमारे पास स्वदेशी प्रणाली आकाश भी है। पर कभी दोनों देशों के साथ युद्ध की स्थिति पैदा हुई तो भारत के सामने दिक्कतें पैदा हो जाएंगी, इसलिए इसे खरीदने का फैसला किया गया है। भारत ने यही बात अमेरिका को समझाने का प्रयास किया है। 
अक्टूबर 2015 में भारत की रक्षा खरीद परिषद ने एस-400 की 12 यूनिटें खरीदने पर विचार किया था, पर अंततः पाँच यूनिटें खरीदने का फैसला हुआ। चीन और भारत के अलावा तुर्की और सऊदी अरब भी इसे खरीदने की बात रूस से कर रहे हैं। इराक और कतर ने भी इसमें दिलचस्पी दिखाई है।  
क्या अमेरिका पाबंदियाँ लगाएगा? 
पिछले साल अमेरिकी संसद ने ‘काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट (CAATSA)’ एक्ट पास किया। मूलतः यह कानून रूस, ईरान और उत्तर कोरिया के खिलाफ है। इसकी धारा 231 के तहत अमेरिकी राष्ट्रपति के पास  की किसी भी देश पर 12 किस्म की पाबंदियाँ लगाने का अधिकार है।अमेरिका ने रूस की 39 संस्थाओं को चिह्नित किया है, जिनके साथ कारोबार करने वालों को पाबंदियों का सामना करना पड़ सकता है। इनमें ज्यादातर संस्थाएं रक्षा उपकरणों को तैयार करती हैं। इनमें ही एस-400 बनाने वाली संस्थाएं भी हैं। इसके अलावा कामोव हेलिकॉप्टर का निर्माण एचएएल करने जा रहा है। भारत में रूसी एसयू-30एमकेआई लड़ाकू विमान का निर्माण भी होता है। 
भारत ने हाल के वर्षों में रक्षा तकनीक में इसरायल और अमेरिका का हाथ भी थामा है। इस वजह से अमेरिका पाबंदियाँ लगाने के पहले कई बार सोचेगा। पिछले महीने हुऊ टू प्ल टू वार्ता में भारत ने ईरान पर लगाई गई अमेरिकी पाबंदियों के बरक्स अपनी चिंताओं से अवगत कराया। अमेरिका ने भारत की इस बात को स्वीकार किया कि ऊर्जा आपूर्ति की व्यवस्था रातों-रात बदली नहीं जा सकती। भारतीय प्रतिनिधि काफी आश्वस्त नजर आए। उनकी बात से लगता है कि अफगानिस्तान के सामरिक महत्व को देखते हुए ईरान पर अमेरिकी पाबंदियों के बावजूद चाबहार बंदरगाह पर समझौता हो जाएगा। 
उम्मीद की किरण
चूंकि काट्सा कानून में अपने मित्र देशों को छूट देने की व्यवस्था भी है, इसलिए हमें उम्मीद है कि अमेरिका इस मामले में छूट देगा। इस साल जुलाई में अमेरिका ने संकेत दिए थे कि भारत को छूट दी जा सकती है। पिछले कुछ वर्षों में भारत और अमेरिका के बीच करीब 15 अरब डॉलर के समझौते हुए हैं, जबकि उसके पहले यह कारोबार शून्य था। भारत ने हाल में सी-17 ग्लोबमास्टर और सी-130जे परिवहन विमान अमेरिका से खरीदे हैं। इनके अलावा पी-8(आई) समुद्री टोही विमान, एम-777 विट्जर तोपें, हारपून मिसाइल, अपाचे और चिनूक हेलिकॉप्टर खरीदे हैं। उम्मीद है कि अमेरिकी सी गार्डियन ड्रोन भी भारत खरीदेगा। 
अमेरिका की दो बड़ी कम्पनियाँ बोइंग और लॉकहीड मार्टिन भारत में विमान निर्माण में दिलचस्पी दिखा रहीं हैं। भारतीय नौसेना के अगले विमानवाहक पोत में अमेरिकी तकनीक का इस्तामाल करने पर बात चल रही है। ईरान से कच्चा तेल खरीदने के बारे में भारत की दलील है कि यह तेल सस्ता है। आप हमें विकल्प बताइए। साथ ही हमारे ईरान के साथ बहुत पुराने रिश्ते एक झटके में खत्म नहीं हो सकते। 
अमेरिका से रिश्ते 
पिछले महीने भारत और अमेरिका के बीच सैनिक समन्वय और सहयोग के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण ‘कम्युनिकेशंस, कंपैटिबिलिटी, सिक्योरिटी एग्रीमेंट (कोमकासा)’ हो जाने के बाद पहला असमंजस दूर हुआ था। इससे इतना जाहिर होता है कि अमेरिका ने पूरी तरह न सही, आंशिक रूप से माना कि भारत के रूस से सैनिक रिश्ते फिलहाल जारी रहेंगे। यह समझौता 10 साल के लिए हुआ है। 
दोनों देशों की सेनाएं अब सामरिक सूचनाओं को साझा करेंगी। कोमकासा के कारण भारत द्वारा खरीदी गई अमेरिकी शस्त्र प्रणालियाँ अमेरिकी संचार चैनलों का इस्तेमाल ही नहीं करेंगी, बल्कि ऑपरेशंस के वक्त व्यापक ‘डोमेन सम्पर्क’ बनाए रखेंगी। दोनों देशों की नौसेनाओं के बीच भी सम्पर्क का रास्ता खुला है। अमेरिकी नौसेना की सेंट्रल कमांड (NAVCENT) और भारतीय नौसेना के बीच सम्पर्क कायम हो जाएगा। भारत अपना एक अटैशे (प्रतिनिधि) बहरीन में नियुक्त करेगा, जो अमेरिकी सेना के साथ समन्वय बनाएगा। भारत और अमेरिका के बीच इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी एनेक्सी (ISA) की स्थापना के लिए बातचीत शुरू होगी, ताकि रक्षा उद्योगों के बीच सहयोग बढ़े। 
बदलता वैश्विक परिप्रेक्ष्य
दुनिया के बदलते हालात और खासतौर से भारत-पाकिस्तान और चीन के बदलते रिश्तों के बरक्स यह दौर बहुत महत्वपूर्ण है।भारत-रूस रिश्ते हाल में बिगड़ते गए हैं, पर अब लगता है कि यह गिरावट रुकी है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे अमेरिका से रिश्ते बिगड़ेंगे। यही बात चीन के संदर्भ में कही जा सकती है। भारत एकसाथ कई तरह की शक्तियों के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश कर रहा है। इसका एक मतलब यह भी है कि हम अपनी वैश्विक भूमिका को और विश्व हमारी भूमिका को देख पा रहा है।
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (08-10-2018) को "कुछ तो बात जरूरी होगी" (चर्चा अंक-3118) पर भी होगी!
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    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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