हाल में हुए अदालतों के दो फैसलों के सामाजिक निहितार्थों को समझने की जरूरत है। इनमें एक फैसला उत्तर भारत से जुड़ा है और दूसरा दक्षिण से, पर दोनों के पीछे आस्था से जुड़े प्रश्न हैं। पिछले कुछ समय में गुरमीत राम रहीम और आसाराम बापू को अदालतों ने सज़ाएं सुनाई। अब बाबा रामपाल को दो मामलों में उम्रकैद की सज़ा सुनाई है। तीनों मामले अपराधों से जुड़े है। पिछले साल अगस्त में जैसी हिंसा राम रहीम समर्थकों ने की, तकरीबन वैसी ही हिंसा उसके पहले मथुरा के जवाहर बाग की सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उनके हजारों समर्थकों और पुलिस के बीच हिंसक भिड़ंत में हुई थी। बहरहाल बाबा रामपाल प्रकरण में ऐसा नहीं हो पाया।
पिछले हफ्ते केरल के सबरीमलाई (या सबरीमाला) मंदिर में कपाट खुलने के बाद के घटनाक्रम ने देश का ध्यान खींचा है। 12वीं सदी में बने भगवान अयप्पा के इस मंदिर में परम्परा से 10-50 साल की उम्र की स्त्रियों के प्रवेश पर रोक है। हाल में कुछ सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रतिबंध को हटा दिया और सभी महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी। केरल के परम्परागत समाज ने अदालत की इस अनुमति को धार्मिक मामलों में राज-व्यवस्था का अनुचित हस्तक्षेप माना। प्रतीक रूप में कुछ महिलाओं ने मंदिर में पुलिस के संरक्षण में प्रवेश पाने की कोशिश की है, जिसे भक्तों ने सफल नहीं होने दिया है। भक्तों के हिंसक होने और पुलिस के बल प्रयोग करने की अलग-अलग खबरें हैं। केरल सरकार ने कहा है कि हम कोर्ट के आदेश को लागू करेंगे, लेकिन अदालत के फैसले का जिस स्तर पर विरोध देखने को मिल रहा है, उसपर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। इस मामले में अपनी फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 25 सभी वर्गों के लिए समानता की व्यवस्था करता है। मंदिर हर वर्ग के लिए है किसी खास के लिए नहीं है। सांविधानिक व्यवस्थाओं के दायरे में यह बात जायज है, पर कुछ दूसरी सांविधानिक व्यवस्थाएं इस सिद्धांत पर सवाल खड़े करती हैं।
अदालत में मामले की सुनवाई के दौरान केरल सरकार ने मंदिर में सभी महिलाओं के प्रवेश की वकालत की थी। याचिका का विरोध करने वालों ने दलील दी थी कि सुप्रीम कोर्ट सैकड़ों साल पुरानी प्रथा और रीति रिवाज में दखल नहीं दे सकता। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि संविधान इतिहास पर नहीं चलता बल्कि यह जैविक और गतिशील व्यवस्था है। यानी कि समय के हिसाब से यह सामाजिक बदलाव की समर्थक है। तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि मंदिर प्राइवेट नहीं, सार्वजनिक संपत्ति है।
केरल के हिन्दू धर्मस्थल अधिनियम-1965 के नियम 3(बी) में इस परम्परागत प्रतिबंध को स्वीकार किया गया था। सन 1993 में केरल हाईकोर्ट के एक खंडपीठ ने भी इस प्रतिबंध को स्वीकार किया था। पर अब सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने 4-1 के बहुमत फैसले के आधार पर नियम 3(बी) को रद्द कर दिया है। इस फैसले का एक महत्वपूर्ण पहलू था पीठ की एकमात्र महिला सदस्य जस्टिस इन्दु मल्होत्रा का चार जजों के फैसले के प्रतिकूल निर्णय। उन्होंने कहा कि सती जैसी सामाजिक कुरीतियों के अलावा दूसरे धार्मिक मामलों में अदालतों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्थाओं से जुड़े विषयों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। मुद्दा सिर्फ सबरीमाला तक सीमित नहीं है। इसका अन्य धार्मिक स्थलों पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने कहा कि धार्मिक मामलों में तार्किकता की धारणा नहीं लाई जा सकती है।
वस्तुतः व्यक्तिगत रूप से धार्मिक अधिकार के अलावा हमारा संविधान सामुदायिक अधिकार की बात भी करता है। जब दोनों के बीच टकराव हो, तब किसे ज्यादा महत्व देना होगा, यह स्पष्ट करने की जरूरत है। अंततः समुदाय अपनी धार्मिक पद्धतियों को किस प्रकार और कब बदलेगा और स्वीकार करेगा, यह बड़े स्तर पर समुदाय को ही तय करना है। यह मसला जितना धार्मिक अधिकारों से जुड़ा है, उतना ही यह राजनीतिक रूप भी लेता जा रहा है। स्त्रियों को मंदिर प्रवेश का अधिकार देने की माँग श्रद्धालुओं की ओर से न होकर एक्टिविस्टों की और से हो रही है। वे भक्त नहीं हैं, बल्कि वे अपनी बात को साबित करना चाहते हैं।
मंदिर की इस पवित्रता की रक्षा को लेकर केरल के सवर्ण हिन्दू सक्रिय हुए हैं। सत्तारूढ़ वाममोर्चा ने इसके परिणामों की तरफ ध्यान नहीं दिया है। बीजेपी को राज्य में प्रवेश के लिए यह एक अच्छा मौका मिल रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अपनी नाराजगी जताई है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि हमारी आस्था के प्रतीकों पर हमले हो रहे हैं। यह राजनीतिक बयान है। इस नाराजगी को रेखांकित करने का राजनीतिक निहितार्थ महत्वपूर्ण है। कानूनी निराकरण के लिए वे अदालत के पास जा सकते हैं, पर बीजेपी की दिलचस्पी जनमत को प्रभावित करने में है।
इस प्रकरण के लगातार बढ़ने से बीजेपी को राजनीतिक लाभ मिलेगा। केरल वामपंथ का अंतिम गढ़ बचा है। यहाँ के उच्चवर्णी नायर और सीरियाई ईसाई वामपंथी दलों की ताकत हैं। बीजेपी और कांग्रेस दोनों की सबरीमाला प्रकरण में एक जैसी राय है। दोनों के निशाने पर वामपंथी हैं। वाम मोर्चा फँस गया है। सवाल है कि क्या वह इतनी आसानी से बीजेपी को राज्य में प्रवेश करने देगा?
एक बात ज़ाहिर है कि जो एक्टिविस्ट मंदिर में प्रवेश की कोशिश कर रहीं हैं, वे श्रद्धालु नहीं हैं। वे केवल एक स्त्रियों के बीच भेदभाव को दूर करना चाहती हैं। पर इस प्रयास में वे एक और अंतर्विरोध को खोल रहीं हैं। उनके प्रयास से समाज के एक बड़े तबके के बीच असंतोष फैल रहा है। यह असंतोष कितना दूर तक जाएगा, अभी कहना मुश्किल है।
पिछले हफ्ते केरल के सबरीमलाई (या सबरीमाला) मंदिर में कपाट खुलने के बाद के घटनाक्रम ने देश का ध्यान खींचा है। 12वीं सदी में बने भगवान अयप्पा के इस मंदिर में परम्परा से 10-50 साल की उम्र की स्त्रियों के प्रवेश पर रोक है। हाल में कुछ सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रतिबंध को हटा दिया और सभी महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी। केरल के परम्परागत समाज ने अदालत की इस अनुमति को धार्मिक मामलों में राज-व्यवस्था का अनुचित हस्तक्षेप माना। प्रतीक रूप में कुछ महिलाओं ने मंदिर में पुलिस के संरक्षण में प्रवेश पाने की कोशिश की है, जिसे भक्तों ने सफल नहीं होने दिया है। भक्तों के हिंसक होने और पुलिस के बल प्रयोग करने की अलग-अलग खबरें हैं। केरल सरकार ने कहा है कि हम कोर्ट के आदेश को लागू करेंगे, लेकिन अदालत के फैसले का जिस स्तर पर विरोध देखने को मिल रहा है, उसपर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। इस मामले में अपनी फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 25 सभी वर्गों के लिए समानता की व्यवस्था करता है। मंदिर हर वर्ग के लिए है किसी खास के लिए नहीं है। सांविधानिक व्यवस्थाओं के दायरे में यह बात जायज है, पर कुछ दूसरी सांविधानिक व्यवस्थाएं इस सिद्धांत पर सवाल खड़े करती हैं।
अदालत में मामले की सुनवाई के दौरान केरल सरकार ने मंदिर में सभी महिलाओं के प्रवेश की वकालत की थी। याचिका का विरोध करने वालों ने दलील दी थी कि सुप्रीम कोर्ट सैकड़ों साल पुरानी प्रथा और रीति रिवाज में दखल नहीं दे सकता। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि संविधान इतिहास पर नहीं चलता बल्कि यह जैविक और गतिशील व्यवस्था है। यानी कि समय के हिसाब से यह सामाजिक बदलाव की समर्थक है। तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि मंदिर प्राइवेट नहीं, सार्वजनिक संपत्ति है।
केरल के हिन्दू धर्मस्थल अधिनियम-1965 के नियम 3(बी) में इस परम्परागत प्रतिबंध को स्वीकार किया गया था। सन 1993 में केरल हाईकोर्ट के एक खंडपीठ ने भी इस प्रतिबंध को स्वीकार किया था। पर अब सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने 4-1 के बहुमत फैसले के आधार पर नियम 3(बी) को रद्द कर दिया है। इस फैसले का एक महत्वपूर्ण पहलू था पीठ की एकमात्र महिला सदस्य जस्टिस इन्दु मल्होत्रा का चार जजों के फैसले के प्रतिकूल निर्णय। उन्होंने कहा कि सती जैसी सामाजिक कुरीतियों के अलावा दूसरे धार्मिक मामलों में अदालतों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्थाओं से जुड़े विषयों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। मुद्दा सिर्फ सबरीमाला तक सीमित नहीं है। इसका अन्य धार्मिक स्थलों पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने कहा कि धार्मिक मामलों में तार्किकता की धारणा नहीं लाई जा सकती है।
वस्तुतः व्यक्तिगत रूप से धार्मिक अधिकार के अलावा हमारा संविधान सामुदायिक अधिकार की बात भी करता है। जब दोनों के बीच टकराव हो, तब किसे ज्यादा महत्व देना होगा, यह स्पष्ट करने की जरूरत है। अंततः समुदाय अपनी धार्मिक पद्धतियों को किस प्रकार और कब बदलेगा और स्वीकार करेगा, यह बड़े स्तर पर समुदाय को ही तय करना है। यह मसला जितना धार्मिक अधिकारों से जुड़ा है, उतना ही यह राजनीतिक रूप भी लेता जा रहा है। स्त्रियों को मंदिर प्रवेश का अधिकार देने की माँग श्रद्धालुओं की ओर से न होकर एक्टिविस्टों की और से हो रही है। वे भक्त नहीं हैं, बल्कि वे अपनी बात को साबित करना चाहते हैं।
मंदिर की इस पवित्रता की रक्षा को लेकर केरल के सवर्ण हिन्दू सक्रिय हुए हैं। सत्तारूढ़ वाममोर्चा ने इसके परिणामों की तरफ ध्यान नहीं दिया है। बीजेपी को राज्य में प्रवेश के लिए यह एक अच्छा मौका मिल रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अपनी नाराजगी जताई है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि हमारी आस्था के प्रतीकों पर हमले हो रहे हैं। यह राजनीतिक बयान है। इस नाराजगी को रेखांकित करने का राजनीतिक निहितार्थ महत्वपूर्ण है। कानूनी निराकरण के लिए वे अदालत के पास जा सकते हैं, पर बीजेपी की दिलचस्पी जनमत को प्रभावित करने में है।
इस प्रकरण के लगातार बढ़ने से बीजेपी को राजनीतिक लाभ मिलेगा। केरल वामपंथ का अंतिम गढ़ बचा है। यहाँ के उच्चवर्णी नायर और सीरियाई ईसाई वामपंथी दलों की ताकत हैं। बीजेपी और कांग्रेस दोनों की सबरीमाला प्रकरण में एक जैसी राय है। दोनों के निशाने पर वामपंथी हैं। वाम मोर्चा फँस गया है। सवाल है कि क्या वह इतनी आसानी से बीजेपी को राज्य में प्रवेश करने देगा?
एक बात ज़ाहिर है कि जो एक्टिविस्ट मंदिर में प्रवेश की कोशिश कर रहीं हैं, वे श्रद्धालु नहीं हैं। वे केवल एक स्त्रियों के बीच भेदभाव को दूर करना चाहती हैं। पर इस प्रयास में वे एक और अंतर्विरोध को खोल रहीं हैं। उनके प्रयास से समाज के एक बड़े तबके के बीच असंतोष फैल रहा है। यह असंतोष कितना दूर तक जाएगा, अभी कहना मुश्किल है।
इन दिनों मंदिर के दर्शनों का जो कार्यक्रम चल रहा है, वह केवल पाँच दिन का है। नवम्बर के मध्य में मंदिर फिर दो महीने के लिए खुलेगा। तब काफी भीड़ होगी। उस वक्त व्यवस्था को बनाए रखने के लिए भारी पुलिस बल की जरूरत होगी। तबतक कोई रास्ता नहीं निकला तो अराजकता फैलेगी। उसके फौरन बाद लोकसभा चुनाव के बिगुल बजने लगेंगे। केरल का संदेश पूरे दक्षिण में तो जाएगा ही, उत्तर को भी प्रभावित करेगा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-10-2018) को "दुर्गा की पूजा करो" (चर्चा अंक-3133) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'